सितारे रोज़ टूटते हैं, आज आसमान टूटा है- कुछ दिन पहले यह वाक्य मित्र व्योमेश शुक्ल ने नृत्य गुरु बिरजू महाराज के देहावसान के बाद लिखा था। लेकिन लता मंगेशकर के निधन की व्याख्या के लिए शायद इससे सही कोई वाक्य सोचना मुश्किल है। वाकई संगीत का, सुरों का आसमान आज टूट गया है। सत्तर साल से यह आवाज़ एक पर्यावरण की तरह हमारे ऊपर छाई हुई थी। वह हम माटी के पुतलों को सांस लेते मनुष्यों में बदलती थी। इस आवाज़ की संगत में हम पहचान पाते थे कि हमारे पास एक दिल है जो धड़कता है, प्रेम करता है, मायूस होता है, रिश्ते निभाता है, रिश्तों के लिए जान देता है, उदास होता है, उदासी से उबरता है, अपने देश को जानता है, अपनी दुनिया को पहचानता है और ख़ुद को उस आवाज़ में बहने के लिए छोड़ देता है।
ताजा ख़बरें
बस कल्पना करें कि लता मंगेशकर न होतीं तो क्या होता। बेशक, हिंदी फिल्मों की दुनिया में बहुत सारी आवाज़ें थीं, लेकिनलता मंगेशकर वाली दैवी संपूर्णता किसी में नहीं थी। वे न होतीं तो ‘महल’ की‘आएगा, आएगा, आएगा’ वाली वह अबूझ पुकारकैसे संभव हो पाती जिसमें समय भी सांस लेता मालूम होता है? वे न होतीं तो ‘मुग़ले आज़म’में शहंशाह अकबर बने पृथ्वीराज कपूर की जलती हुई आंखों के सामने कौन बगावत की वह शमा जला पाता कि प्यार किया तो डरना क्या, और कौन इस अंदाज़ में गा पाता कि ‘परदा नहीं जब कोई ख़ुदा से, बंदों से परदा करना क्या?’
वे न होतीं तो ‘पाकीजा’ में मीना कुमारी के दर्द को वह मीठी टीस कौन दे जाता जिसके साथ चलते-चलते एक उम्र निकल जाती है?‘द गाइड’ की वह रोज़ी कैसे साकार होती जो ‘कांटों में खींच कर ये आंचल, तोड़ के बंधन बांधी पायल’ गाती और कहती कि आज फिर जीने की तमन्ना है और इस गुस्ताख़ी पर भी दुनिया निसार होती?
लता मंगेशकर न होतीं हमारी मधुबाला, मीनाकुमारी, वहीदा रहमान, वैजयंतीमाला, नूतन, नरगिस, सायरा बानो, शर्मिला टैगोर, जया भादुड़ी, रेखा, हेमा मालिनी काफ़ी कुछ अधूरी रह जातीं। वे न होतीं तो हमारे मुकेश, मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार, तलत महमूद, हेमंत कुमार और महेंद्र कपूर कितने अकेले लगते, सुरैया, गीता दत्त, शमशाद बेगम, आशा भोंसले और सुमन कल्याणपुरे तक कितनी इकहरी जान पड़तीं? और लता मंगेशकर न होती तो हिंदुस्तान की लड़कियां कैसी होतीं? इस आवाज़ ने हिंदुस्तान की लड़कियों को गढ़ा। जिस दौर में वे घरों से निकल नहीं सकती थीं, बचपन में ब्याह दी जाती थीं, उम्र भर पति की इच्छाएं पूरी करने में गुज़ार देती थीं और बुढ़ापे में अपनी बीमारी की उपेक्षा करती हुई एक दिन गुज़र जाती थीं, उस दौर में उन्हें लता मंगेशकर के गीतों ने जीने के बहाने दिए, जीने की वजह दी, जीने लायक तसल्ली और राहत दी, जीने का सलीका भी दिया।
इन गीतों के सहारे वे चुलबुली बहनें बनीं, प्यारी भाभियां बनीं, ममतामयी मांएं बनीं, आज्ञाकारी बेटियां और बहुएं बनीं, इन्हीं गीतों के बीच उन्होंने शादियों और होली-दिवाली के त्योहारों के सुख लिए, और इन्हीं गीतों की छाया में उन्होंने प्रेम करना, विद्रोह करना और घरों से भागना भी सीखा।
यह हिंदी सिनेमा न होता और उसमें लता मंगेशकर के गीत न होते तो हमारी स्त्रियों की दुनिया शायद उतनी जीवंत और बहुरंगी न होती जितनी आज है। लता बस लता नहीं थीं, एक विशाल छतनार वृक्ष थीं जिसके साये में हिंदी फिल्मों के संगीत का सुनहरा दौर परवान चढ़ा। कई असंभव लगती धुनें सिर्फ़ उन्हीं की वजह से जैसे संभव हो पाईं।वे बहुत हल्के सुरों में भी उठान भर देती थीं और बहुत ऊंचे सुरों को भी अपनी पकड़ में बनाए रखती थीं। मुश्किल से मुश्किल गीत उनके कंठ में सहज पुकार होकर रह जाते थे।
यह शास्त्रीयता का संधान करती और लोक का रस लेती आवाज़ थी। यह भी एक वजह थी कि उनके गीत हमें गीत नहीं, जीवन का हिस्सा लगते। और कितनी-कितनी पीढ़ियों को लता बनाती या बिगाड़ती रहीं?
फिल्मी गीतों की दुनिया में उनका प्रवेश ज़िंदगी की मुश्किलों के बीच हुआ था। बचपन में उनका नाम लता नहीं हेमा हुआ करता था। संगीतकार पिता दीनानाथ मंगेशकर के असमय निधन के बाद 14 साल की उम्र में उन्हें पैसे कमाने के लिए माइक के सामने खड़ा होना पड़ा था। उन्हें अपने से छोटी तीन बहनों- मीना, आशा और उषा मंगेशकर के अलावा सबसे छोटे भाई हृदयनाथ मंगेशकर का भी खयाल रखना था। आने वाले वर्षों में ये सब अपने ढंग से बड़े नाम हुए, लेकिन जो शुरुआत थी, उसे एक लंबा सफ़र तय करना था।
यह चालीस का दशक था। हिंदी सिनेमा तब बोलना और गाना सीख ही रहा था। उसके बाद वे जैसे लगातार गाती-गाती-गाती चली गईं। उनकी आवाज़ में लगातार निखार भी आता रहा।
शुरुआती दशकों में वह एक बहुत महीन और स्त्रैण आवाज़ थी जिस पर कुछ प्रभाव दूसरों का भी था। लेकिन धीरे-धीरे वह स्वतंत्र और खिली हुई आवाज़ में बदली- पचास और साठ के दशकों में गाए उनके गीत इस आवाज़ की सबसे ख़ूबसूरत चढ़ान के बीच बने।मोहब्बत, बगावत, आज़ादी, देशभक्ति सब इस आवाज़ में साकार होते रहे। इसी दौर में पंडित प्रदीप का लिखा गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ लता मंगेशकर की आवाज़ में सुन कर पंडित नेहरू की आंखों में आंसू आने की बात कही जाती है। इसी दौर में उनकी आवाज़ के जादू से सजी ‘पाकीजा’ की ऐसी चर्चा होती है कि बांग्लादेश युद्ध हारने के बाद शिमला समझौते के लिए भारत आए ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के साथ आई उनकी युवा बेटी बेनज़ीर ये फिल्म देखने की इच्छा जताती हैं और उनके लिए इसका विशेष शो रखा जाता है।
यह आवाज़ न होती तो वे फिल्में शायद अपना जादू काफ़ी कुछ खो देतीं। सत्तर का दशक आते-आते यह आवाज़ कुछ और प्रौढ़, परिपक्व, गहरी और परतदार हो जाती है। ‘आंधी’, ‘ मौसम’ या ‘अभिमान’ जैसी फिल्मों के उनके गीत एक अलग आयाम बनाते हैं।
‘खामोशी’ के गीत ‘हमने देखी है उन आंखों की ख़ुशबू’ के शब्दों को लता जैसी नई ऊंचाई दे डालती हैं। फिल्म ‘अभिमान’ में एक टूटी हुई पत्नी बन कर जब वे गाती हैं तो लगता है कि बस यही आवाज़ जया भादुड़ी की सकुचाहट और बाद में उनके आंसुओं के साथ इंसाफ़कर सकती है। जब वे ‘मुक़द्दर का सिकंदर’ के लिए मुजरा गाती हैं- ‘सलामे इश्क़ मेरी जान ज़रा कबूल कर ले’ तो आवाज़ में एक अलग सी शोखी और कमनीयता चली आती है।
बेशक, बहुत सारे संगीत मर्मज्ञ इस मुजरे को पाक़ीजा या दूसरी फिल्मों में लता द्वारा गाए मुजरों की टक्कर का न मानें, लेकिन इस गीत का भी अपनी तरह का जादू है। यह सिलसिला जैसे ख़त्म होता ही नहीं।
अस्सी के दशक में, जब वे ख़ुद साठ पार हो चुकी हैं, तब वे ‘सोलह बरस की बाली उमर को सलाम’ जैसा गीत गाती हैं। यहां उनकी आवाज़ कुछ और होती मालूम होती है। नब्बे के दशक में ‘1942 अ लव स्टोरी’ का गीत ‘कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो’ जैसे प्रेम और उदासी के आंगन में टहलता हुआ गीत है। यह सिलसिला बिल्कुल नई सदी तक चला आता है। 2004 में वे ‘वीर जारा’ तक के लिए गाती हैं। यह सच है कि लता मंगेशकर के इस विशाल सफर में बहुत सारे ऐसे पड़ाव हैं जिन पर सवाल उठते रहे हैं। कई लोगों का मानना है कि उन्होंने दूसरी गायिकाओं का रास्ता रोका। लेकिन लता मंगेशकर इतनी विराट प्रतिभा थीं कि उन्हें किसी का रास्ता रोकने की ज़रूरत नहीं थी।
कई लोग यह मानते रहे कि आशा भोसले में उनसे ज़्यादा विविधता है। निस्संदेह‘इजाज़त’ और ‘उमराव जान’ जैसी फिल्मों में आशा भोसले ने जो ग़ज़लें और नज़्में गाईं, वे अपनी तरह से अप्रतिम हैं, लेकिन इससे लता मंगेशकर की श्रेष्ठता पर ज़रा भी खरोंच नहीं आती। बेशक, उनके राजनीतिक रुझानों को लेकर कई लोग निराश और नाराज़ तक होते हैं, लेकिन एक कलाकार का मूल्यांकन हम उसकी राजनीतिक समझ से नहीं कर सकते। लता मंगेशकर के गीत लता मंगेशकर के विचारों से काफी बड़े हैं। कई तरह के भावों का जो भारत हमारे सामने है, अपने सारे अंतर्विरोधों के बावजूद कई तरह की पहचानों वाला जो सांस्कृतिक सामंजस्य हमने बनाया है, उसमें हिंदी सिनेमा की भी एक भूमिका है और उसकी सबसे कामयाब पार्श्वगायिका के तौर पर लता मंगेशकर की भी।
दरअसल यह ऐसी संपूर्ण आवाज़ है जो सुनने के लिए नहीं, बस महसूस करने और जीने के लिए है। इस आवाज़ में काया का जादू भी मिलता है और आत्मा का राग भी। ये आवाज़ चित्र बनाती है और चित्रों के पार जाती है। इस आवाज़ में प्यार पवित्र हो जाता है, इसके पुकारने से ईश्वर कुछ क़रीब आ जाता है- यह सांसारिकता के बीच आध्यात्मिकता को बसाने वाली आवाज़ है। हम ख़ुशक़िस्मत हैं कि हमने ये आवाज़ सुनी है।
लता मंगेशकर 92 साल की उम्र में गई हैं- एक भरा-पूरा जीवन जीकर। यह उनके जाने का शोक नहीं है, बस यह महसूस करने का है कि जीवन के कितने विराट और भरे-पूरे फलक पर आज परदा गिर गया। इसमें शक नहीं कि गायन के संसार में दूसरी लता मंगेशकर नहीं होगी।लेकिन उनके गीत बने रहेंगे। उन्होंने गाया ही है, “रहें न रहें हम, महका करेंगे, बन के कली, बन के सबा, बागे वफ़ा में।‘
अपनी राय बतायें