“कुछ अजीब दिल्लगी है कि हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जब कोई लड़का फेल हो जाता है, तो उसे इसकी यह सजा दी जाती है कि स्कूल से निकाल दिया जाता है, और जब अपने स्कूल ने निर्दयता से निकाल दिया, तो ऐसे निकाले हुए लड़कों को दूसरा स्कूल क्यों लेने लगा। इस प्रकार लड़के के लिए शिक्षा के द्वार चारों ओर से बंद हो जाते हैं। कितनी दयनीय परिस्थिति है।”
प्रेमचंद 140 : 25वीं कड़ी : अनौपचारिक शिक्षा व्यवस्था पर क्या सोचते थे प्रेमचंद?
- साहित्य
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- 6 Sep, 2020

प्रेमचंद ख़ुद मुदर्रिस रह चुके हैं। तालीम के महकमे से दूसरी हैसियत में भी जुड़े हुए थे। अध्यापक, हेडमास्टर और स्कूल इंस्पेक्टर रह कर उन्होंने औपचारिक शिक्षा को उसके अलग-अलग पहलू से समझा था। लेकिन वह इस शिक्षा के मुरीद न हो सके। वह उनके लिए संदेह और उपहास की वस्तु बनी रही। पढ़िए, प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर सत्य हिदी की विशेष शृंखला की 25वीं कड़ी।
परीक्षा और पास-फेल
‘फेल होने वाले लड़के’ बहुत छोटी टिप्पणी है जो 1934 में लिखी गई। पग पग पर परीक्षा और पास-फेल पर टिकी हुई शिक्षा प्रणाली के औचित्य पर इतनी साफ़ निगाह से शायद ही इस तरह हिंदी में लिखा गया हो। यह लिखते हुए वह मानते हैं कि स्कूलों में जगह कम है और अगर सभी, फेल समेत बने रहें तो नयों के लिए कहाँ से मौक़ा बने। इसका तो एक ही उपाय है,
“या तो हमें इतने स्कूल चाहिए कि सभी बच्चे पढ़ सकें या मौजूदा स्कूलों से इस कैद को उठाकर और जगहें निकालनी चाहिए...”