“कुछ अजीब दिल्लगी है कि हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जब कोई लड़का फेल हो जाता है, तो उसे इसकी यह सजा दी जाती है कि स्कूल से निकाल दिया जाता है, और जब अपने स्कूल ने निर्दयता से निकाल दिया, तो ऐसे निकाले हुए लड़कों को दूसरा स्कूल क्यों लेने लगा। इस प्रकार लड़के के लिए शिक्षा के द्वार चारों ओर से बंद हो जाते हैं। कितनी दयनीय परिस्थिति है।”
परीक्षा और पास-फेल
“या तो हमें इतने स्कूल चाहिए कि सभी बच्चे पढ़ सकें या मौजूदा स्कूलों से इस कैद को उठाकर और जगहें निकालनी चाहिए...”
वे एक क्लास में 33 लड़कों की पाबंदी ख़त्म करने की बात कर रह रहे हैं। इन दोनों से भी
“...उत्तम यह है कि इम्तहानों को और सरल कर दिया जाय, जिससे अधिक से अधिक बच्चे पास हो सकें।”
प्रेमचंद के वक़्त ही स्कूल या कॉलेज के सर्टिफ़िकेट या डिग्री का महत्त्व समाप्त हो चुका था,
“जब स्कूल या कॉलेज की सनद नौकरी के लिए बेकार हो गई है, तो क्यों लड़कों पर इतनी कैद लगाई जाए।”
उससे भी बड़ी बात यह है कि फेल होने का अकेला ज़िम्मेदार बच्चा नहीं:
“...क्या लड़के के फेल हो जाने में केवल लड़के की खता है? स्कूल के अध्यापकों पर उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं आती? माना, अध्यापक घोलकर नहीं पिला सकता, लेकिन यह निर्विवाद है कि लड़कों की सफलता या असफलता, बहुत कुछ अध्यापक के व्यक्तित्व, अध्यवसाय, प्रोत्साहन पर निर्भर है। फिर किस मुँह से फेल होने वाले लड़कों को निकाल दिया जाता है।”
परीक्षा की प्रेमचंद की निगाह में कोई बहुत इज़्ज़त न थी। 1933 में ही गोरखपुर में हुए एक शिक्षा सम्मेलन की रिपोर्ट करते हुए वह अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं कि बागवानी, खेलकूद, क्ले-मॉडलिंग, कसरत, वाद-विवाद जैसे विषयों की भी परीक्षा की वेदी पर बलि चढ़ा दी गई है।
“लड़कों का मुख्य उद्देश्य इम्तहान पास करना है और अध्यापक का परम कर्तव्य पास कराना है...लड़कों के मनोरंजन और विनोद के लिए जो विषय चुने जाते हैं उनकी परीक्षा भी ली जाती है और इस तरह परीक्षाओं की संख्या बढ़ती जाती है।”
‘भारत में गुरु-प्रथा’
प्रेमचंद ख़ुद मुदर्रिस रह चुके हैं। तालीम के महकमे से दूसरी हैसियत में भी जुड़े हुए थे। अध्यापक, हेडमास्टर और स्कूल इंस्पेक्टर रह कर उन्होंने औपचारिक शिक्षा को उसके अलग-अलग पहलू से समझा था। लेकिन वह इस शिक्षा के मुरीद न हो सके। वह उनके लिए संदेह और उपहास की वस्तु बनी रही। उसका एक कारण उसमें पैवस्त ग़ैर-बराबरी और खुदगर्जी का ख्याल है। अध्यापक या गुरु के महिमागान में भी शायद इस वजह से उनमें आस्था न हो सकी। गुरु को अपेक्षा से अधिक गुरुता देने में शिष्य की स्वाधीनता के लोप का ख़तरा था:
“....प्राचीन हिंदू ग्रंथों में गुरु की महिमा इतने मुबालगे के साथ बयान की गई है कि उसे ईश्वर से भी दो हाथ ऊपर उठा दिया है। गुरु जो कहे, उसे आँख बंद करके शिरोधार्य करना होगा।”
भले ये प्रेमचंद के अपने शब्द न हों, वह इन्हें अपने लेख ‘भारत में गुरु-प्रथा’ में सहमतिपूर्वक उद्धृत करते हैं। यह लेख लखनऊ विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर डॉक्टर परांजपे के एक व्याख्यान की रिपोर्ट का आरम्भ है और शब्द उन्हीं के हैं।
लेख गुरु प्रथा पर है और समाज में तर्कशीलता और स्वतंत्र बुद्धि के लोप पर अफ़सोस जाहिर करता है लेकिन इसे आम तौर पर शिक्षा प्रणाली में भी स्वतंत्र चेतना की वकालत के रूप में पढ़ना चाहिए। गुरु या अध्यापक का काम छात्र का दिमाग़ गढ़ना नहीं है, बल्कि उसे आज़ाद करने में छात्र की मदद करना है। लेकिन क्या ऐसा होता है? वह मानते हैं कि अध्यापक का जीवन ही उदाहरण होना चाहिए छात्र के लिए। अगर वह अपने लिए अधिक से अधिक सुविधा और इत्मीनान इकट्ठा करने की जुगत में लगा हो तो छात्र से निर्भय, स्वाधीन होने की उम्मीद क्योंकर करे? लेकिन वह शिक्षा है ही क्या जिसकी योजना में अध्यापक भी लगा हुआ है?
“अब तक संसार के सामने जो शिक्षा का आदर्श था, वह परंपरागत समाजव्यवस्था की ही पूर्ति करता था।”
प्रेमचंद इसके समर्थक नहीं क्योंकि इसका अर्थ होगा जाति आधारित भेदभाव को बनाए रखना, उस सामाजिक क्रम को और मज़बूत करना जो बहुसंख्या के अपमान और शोषण पर टिका है। लेकिन जो आधुनिक शिक्षा का तरीक़ा है, वह दूसरे क़िस्म की असमानता को गहरा करता है। विश्वविद्यालय तक आकर हम मानते हैं कि व्यक्ति का विकास हो चुका होता है। प्रेमचंद ऐसे विकास के घोर आलोचक हैं,
“उस साँचे में ढलकर युवक आत्मसेवी, घोर स्वार्थी, मित्रता में भी स्वार्थ की रक्षा करनेवाला, पक्का उपयोगितावादी और घमंडी होकर रह जाता है। हमारी शिक्षा हमारी सामाजिक चेतना को नहीं जगाती, उसका उद्देश्य अपने फायदे के लिए समाज से काम निकालना है।”
व्यक्ति का सृजन
आधुनिक शिक्षा को व्यक्ति के सृजन का श्रेय दिया जाता है। वह किस प्रकार का व्यक्ति है?
“समाज केवल इसलिए है कि उसे बढ़ने और संचय करने का अवसर दे। वही मनुष्य सफल माना जाता है, जो समाज को ख़ूब अच्छी तरह एक्सप्लाइट कर सके।”
इससे अपवाद निकल सकते हैं, लेकिन वे निजी बौद्धिक वीरता के उदाहरण ही हो सकते हैं, नियम नहीं। प्रेमचंद दोष छात्रों का नहीं मानते। व्यवस्था अगर ऐसी ही हो व्यक्ति उसी लीक पर कैसे न चले?
प्रेमचंद पाठकों को सावधान करते हैं कि शिक्षा के नए आदर्श का उदय हो चुका है और भारत जैसे रूढ़िवादी देश को भी इस ओर नज़र उठानी होगी,
“...कम्युनिज्म का प्रचार हो न हो पर समाज का आदर्श बदल गया है...संसार समष्टि की ओर जा रहा है और सच पूछो तो समष्टिवाद की अनीश्वरता, जो हर आदमी के लिए समान अवसर की व्यवस्था करती है, जो किसी का जन्मसिद्ध या परम्परागत विशेष अधिकार नहीं मानती, ईश्वरता के अधिक निकट है।”
इसे प्रेमचंद एकात्मवाद का नया रूप मानते हैं। ‘संसारव्यापी भाईचारा’ धर्म का भी सबसे ऊँचा आदर्श रहा है, लेकिन इस आदर्श से हमारी दूरी उतनी ही है जितनी हज़ारों साल पहले थी। इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए
“...एक नई सृष्टि रचनी पड़ेगी, अर्थात्—बालक के लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा को एक सिरे से बदलना पड़ेगा, जिससे समाज में संघर्ष की जगह सहयोग की प्रवृत्ति जागे। लोग एक दूसरे से सशंकित रहने के बदले विश्वास करें और शक्ति का संचय इसलिए न करें कि उससे दूसरों पर आतंक जमाएँगे बल्कि इसलिए कि दूसरों की सहायता करेंगे।”
प्रचलित शिक्षा प्रणाली मनुष्य में ईर्ष्या, भय, स्वार्थ, अनुदारता और कायरता जैसे दुर्गुण भरती है और
“साम्राज्यवाद और व्यवसायवाद और राष्ट्रों में संघर्ष इसी कुशिक्षा के फल है, जिसने व्यक्ति को प्रधानता देकर उसे समाज का सबसे हिंसक जंतु बना दिया है।”
समाज का सबसे हिंसक कहने की जगह वे उसे प्रकृति का सबसे हिंसक जंतु भी कह सकते थे। जो प्रेमचंद कह रहे हैं, वह मार्क्स की 1844 की पांडुलिपियों के विचार से भिन्न नहीं हालाँकि प्रेमचंद को उसका कोई इल्म न था। उसी तरह वे गाँधी और टैगोर के शिक्षा के उसूलों के काफ़ी क़रीब पड़ते हैं। बल्कि उनमें इन दोनों का समन्वय दिखलाई पड़ता है। व्यक्ति के उदय का अर्थ स्वार्थपरता का जड़ जमा लेना न होना चाहिए।
प्रेमचंद पश्चिम के विरोधी नहीं, लेकिन गाँधी की तरह ही इस पश्चिमी ‘सभ्यता’ से उनकी गहरी नाराज़गी इस वजह से है कि
“पश्चिम ने हमें सबसे ज़हरीला पाठ जो पढ़ाया है वह यही खुदगर्जी है। समस्त संसार को स्वार्थ के पैरों तले रौंदकर अब वह स्वार्थ का पिशाच हो गया है। उसमें न हृदय है, न कोमलता है, न दर्द है। वह सर से पैर तक, भीतर से बाहर तक स्वार्थ से भरा हुआ है। हँसना-बोलना, रोना-गाना, एक भी स्वार्थ से खाली नहीं।”
शिक्षा का मक़सद स्वार्थ से लड़ना है। स्वार्थ से लड़ने का मतलब यह नहीं कि अपनी स्वाधीन सत्ता का विसर्जन कर दें। ‘बच्चों को स्वाधीन बनाओ’ शीर्षक लेख में वे कहते हैं,
“पुराने ज़माने में जब बड़ों का हुक्म और अदब मानना समाज का सबसे मान्य नियम था और एक एक छोटी जाति अपने से ऊँची जाति के सामने अदब से सर झुकाती थी, तब बालकों को बचपन से ही अदब करना सिखाया जाता था...लेकिन आज किसी बाहरी सत्ता की आज्ञाओं को मानने की शिक्षा देना बालकों की सबसे बड़ी ज़रूरत की तरफ़ से आँखें बंद कर लेना है।”
स्वाधीन भाव का विकास
“युवकों के सामने जो परिस्थिति है उसमें अदब और विनम्रता का इतना महत्त्व नहीं है, जितना व्यक्तिगत विचारों और कामों की स्वाधीनता का।”
“बाहरी दबाव की जगह हममें आत्म संयम का उदय हो। सच्चा स्वाधीन आदमी वही है, जिसका जीवन आत्मा के शासन से संयमित हो जाता है, जिसे बाहरी दबाव की ज़रूरत नहीं पड़ती। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे हर एक काम के गुण दोष को भीतर की आँखों से देखें।”
1931 में प्रेमचंद ने दो विश्वविद्यालयों के दीक्षांत समारोहों की रिपोर्ट के साथ उनपर टिप्पणी की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और लखनऊ विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोहों में दीक्षांत भाषण वैज्ञानिक सी. वी. रमण ने दिया और इलाहाबाद में दार्शनिक राधाकृष्णन ने।
भारत के विश्वविद्यालयों के बारे में प्रेमचंद का खयाल कोई बहुत ऊँचा नहीं है:
“युनिवर्सिटी तो भारत में कोई है नहीं, हाँ, ग्रैजुएट बनाने के कारखाने हैं....जहाँ युवकों को दुर्व्यसन और फिजूलखर्ची और विलासिता और झूठे अभिमान की शिक्षा दी जाती है। बी.ए. पास होने का अर्थ व्यावहारिक रूप से यही है कि अमुक युवक इन दुर्गुणों में पास हो चुका है।”
इन कठोर शब्दों में वे इन विश्वविद्यालयों की तारीफ़ करते हैं। अब दीक्षांत भाषणों पर आएँ:
“अब की उपाधि बँटाई के अवसर पर इलाहाबाद के कारखाने में सर रमन का भाषण हुआ और लखनऊ के कारखाने में सर राधाकृष्णन का… इन दोनों… में बड़ा अंतर है। सर रमन ने तो इलाहाबाद के कारखाने की भूरि-भूरि प्रशंसा की है और उसे आदर्श विद्यालय कहा है...रमन साहब ने तो (उसकी) तुलना हार्वर्ड से करने में भी संकोच न किया।”
प्रेमचंद किंचित व्यंग्य से कहते हैं,
“सर रमन के शब्दों में ---‘हम एक महान सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं...”
सर रमन के भाषण से प्रेमचंद ख़ासे ख़फ़ा नज़र आते हैं। वह लिखते हैं कि
“सबसे अचम्भे की जो बात सर रमन ने कही वह यह थी—
हिन्दुस्तान के विद्यालयों का यह धर्म नहीं है कि वह इस क्रान्ति और परिवर्तन की गति को और तेज बनावे, बल्कि उसका वास्तविक धर्म यह है कि वह जातीय विकास की इस द्रुत गति के लिए ब्रेक का काम दे।”
खोई हुई आत्मा
प्रेमचंद सर रमन से सहमत नहीं। वे कहते हैं कि
“भारत की क्रांति, केवल अपनी आत्मा को पा जाने की इच्छा है। ...हमारी क्रान्ति अपनी खोयी हुई आत्मा को ....वापस लाना चाहती है और इस पश्चिमी संघर्ष और स्वार्थवाद को मिटाकर उसकी जगह सहयोग और सहृदयता को आसीन देखने की इच्छुक है।”
इसी पर बहस हो सकती है कि वह खोई हुई आत्मा क्या है और ‘वापस लाने’ से प्रेमचंद का क्या तात्पर्य है। क्या वह उस रूप में भारत में कभी थी भी?
क्या ऐसा तो नहीं कि यह आधुनिक शिक्षा से मिली दृष्टि ही है जो इन मूल्यों के महत्त्व को उस देश में पहचान रही है जहाँ समानता के सिद्धांत का कोई आदर न था? जो हो असल बात यह है कि प्रेमचंद के जीवन मूल्य क्या हैं जिन्हें वे शिक्षा का उद्देश्य भी मानते हैं।
सर रमन छात्रों को किसी क्रांति और परिवर्तन के अभियान से दूर रखना चाहते हैं। इसके उलट लखनऊ में सर राधाकृष्णन ने
“..अधिकारियों की खुशी या नाखुशी की बिलकुल परवाह न करके सच्ची और बेलाग बातें कह सुनायी हैं।”
प्रेमचंद इस भाषण से उत्साहित हैं:
“...सर राधाकृष्णन के इस भाषण ने सिद्ध कर दिया है कि वह फिलासफर होते हुए भी राष्ट्र के दुख से दुखी हैं और शिक्षित समुदाय का... क्या धर्म है, इसे अच्छी तरह समझते हैं।”
प्रेमचंद राधाकृष्णन के भाषण को उद्धृत करते हैं,
“बुद्धिमान आदमी का यह दावा नहीं होता कि हरेक विषय में वह कोई न कोई राय दे सकता है,...(उसमें) दृष्टि का विस्तार, विचार की स्वाधीनता और नवीनता और अन्य मनोभावों को समझने की शक्ति होती है। वह हमेशा उन विचारों से सहानुभूति रखने को तैयार रहता है, जिनसे उसे मतभेद है।”
‘अन्य मनोभावों को समझने की शक्ति’ हासिल करना शिक्षा का मक़सद है। आगे दार्शनिक राधाकृष्णन को वे उद्धृत करते हैं,
“प्राचीनकाल में विद्यालयों के संस्कार की उपमा एक मशाल से दी जाती थी...यह मशाल एक भयंकर वस्तु है। इतने कितने ही आंदोलनों को उठाया है, कितनी ही हलचल जगायी है। यह क्रान्ति भावना की बोधक है, वह आग है, जो घास-फूस और गन्दगी को जलाकर साफ़ कर देती है।”
राधाकृष्णन सर रमन की तरह विद्यार्थियों को आंदोलनों से विरत रहने का उपदेश नहीं देते। वे कहते हैं,
“अगर हम उन सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक आंदोलनों से भयभीत हो जाएँ जो इस आग के फैलने से पैदा होते हैं तो हमें विद्यालयों से दूर ही रहना चाहिए।”
अग्नि के कण
प्रेमचंद इन विद्यालयों को कारखाने कहते हैं, लेकिन वहाँ अग्नि के कण भी पलते हैं। वे वैज्ञानिक की जगह दार्शनिक से इस कारण प्रसन्न हैं कि वे उन्हीं की बात कह रहे हैं। प्रेमचंद को उनके शब्दों में अपनी आवाज़ सुनाई दे रही है।
“अगर विद्यालय ऐसे मनुष्य पैदा करता है, जो दिल के बोदे हैं, जो अपनी जान की खैरियत मनाते हैं, जो ऐशो आराम के बंदे हैं, जो जोखिम से बचते हैं, तो वह विद्यालय अपने धर्म का पालन नहीं कर सकता।”
विद्यालयों में आने के पहले युवकों में उत्साह और पौरुष होता है। ऐसे युवकों को अगर
“...बोदे, स्वार्थी और प्रथाओं का गुलाम बना देता है, अगर वह उसके विचारों को कठोर कर देता है और उनकी आगे बढ़ने की शक्ति को निर्जीव कर देता है, तो वह अपने धर्म से दूर चला जाता है।”
प्रेमचंद को मालूम न था कि यह विद्यालय राधाकृष्णन को और ख़ुद उन्हें भी परीक्षोपयोगी प्रश्नों में बदलकर उनकी जान सोंख लेगा। तो चुनौती प्रेमचंद को इस शिक्षा की जकड़ से आज़ाद करने की है।
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