सांस्कृतिक सच्चाई
पितरों की आत्मा बिना ब्राह्मणों के पासपोर्ट और सिगनल के स्वर्ग नहीं जा सकती और न उन्हें मुक्ति मिल सकती है। ज्योतिबा फुले, पेरियार, बाबा साहब आंबेडकर, मोहनदास करमचंद गाँधी के बावजूद भारत की सांस्कृतिक सच्चाई यही है।ब्राह्मणों के सांस्कृतिक वर्चस्व की गंभीरता को प्रेमचंद बखूबी समझते थे। जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रसंगों में ब्राह्मण की केंद्रीयता के अतिरिक्त दैनंदिन जीवन में दान-दक्षिणा वह ज़रिया था, जिससे ब्राह्मण साधारण गृहस्थ को आध्यात्मिक प्रसाद देता था।
शंकर के घर में जौ का आटा था, लेकिन
'प्राचीनकाल में जौ का चाहे जो कुछ महत्त्व रहा हो, पर वर्तमान युग में जौ का भोजन सिद्ध पुरुषों के लिए दुष्पाच्य होता है।'
मनुष्य और देवता
गेहूँ का आटा कहीं से उधार लेने का निश्चय किया, लेकिन
'गाँव में सब मनुष्य-ही-मनुष्य थे, देवता एक भी न था, अतएव देवताओं का खाद्य पदार्थ कैसे मिलता।'
यह कहानी सादे तरीके से शंकर की नियति का वर्णन करती है जो दोनों की मर्यादा का पालन करने के कारण विप्र महाराज का पुश्तैनी ग़ुलाम हो जाता है।
शंकर ने चकित होकर कहा, ‘मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए थे जो साढ़े पाँच मन हो गये? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ किसी का छटाँक-भर न अनाज है, न एक पैसा उधार।’
विप्र - ‘इसी नीयत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुड़ता।’
यह कहकर विप्रजी ने उस सवा सेर गेहूँ का ज़िक्र किया, जो आज के सात वर्ष पहले शंकर को दिये थे। शंकर सुनकर अवाक् रह गया। ...जब पोथी-पत्रा देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ-न-कुछ 'दक्षिणा' ले ही जाते थे। इतना स्वार्थ ! सवा सेर अनाज को अंडे की भाँति सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल जायगा। इतने दिनों में एक बार भी कह देते तो मैं गेहूँ तौलकर दे देता, क्या इसी नीयत से चुप साध बैठे रहे? बोला, ‘महाराज, नाम लेकर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानों में सेर-सेर, दो-दो सेर दिया है। अब आप आज साढ़े पाँच मन माँगते हैं, मैं कहाँ से दूँगा?’'
धर्म और जीवन में फाँक
शंकर के यहाँ धर्म और जीवन में फाँक नहीं है, लेकिन विप्र महोदय घालमेल नहीं करते। धर्म अलग है, संसार अलग है:'विप्र – ‘लेखा जौ-जौ, बखसीस सौ-सौ, तुमने जो कुछ दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहे एक की जगह चार पसेरी दे दो। तुम्हारे नाम बही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है; जिससे चाहे हिसाब लगवा लो। दे दो तो तुम्हारा नाम छेक दूँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा।’
शंकर – ‘पाँडे, क्यों एक ग़रीब को सताते हो, मेरे खाने का ठिकाना नहीं, इतना गेहूँ किसके घर से लाऊँगा?’
विप्र – ‘ज़िसके घर से चाहे लाओ, मैं छटाँक-भर भी न छोडूँगा, यहाँ न दोगे, भगवान् के घर तो दोगे।’'
उसी तरह वे यह आरोप भी लगा सकते हैं कि इस कहानी में प्रेमचंद उसी ब्राह्मणद्वेष से पीड़ित हैं जो विप्र के मन में सहानुभूति और दया का लेश मात्र नहीं है।
'किन्तु शंकर इतना तार्किक, इतना व्यवहार-चतुर न था। एक तो ऋण वह भी ब्राह्मण का। बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा, इस खयाल ही से उसे रोमांच हो गया। बोला, ‘महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूँगा, ईश्वर के यहाँ क्यों दूँ, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ? मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण हो के तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता। मैं तो दे दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान के यहाँ जवाब देना पड़ेगा।’
विप्र – ‘वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं; देवता ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो ?’
शंकर – ‘मेरे पास रक्खा तो है नहीं, किसी से माँग-जॉचकर लाऊँगा तभी न दूँगा !’
विप्र – ‘मैं यह न मानूँगा। सात साल हो गये, अब एक दिन का भी मुलाहिजा न करूँगा। गेहूँ नहीं दे सकते, तो दस्तावेज लिख दो।’
शंकर – ‘मुझे तो देना है, चाहे गेहूँ लो चाहे दस्तावेज लिखाओ; किस हिसाब से दाम रक्खोगे?’
विप्र – ‘बाज़ार-भाव पाँच सेर का है, तुम्हें सवा पाँच सेर का काट दूँगा।’
शंकर— ‘ज़ब दे ही रहा हूँ तो बाज़ार-भाव काटूँगा, पाव-भर छुड़ाकर क्यों दोषी बनूँ।'
हिसाब लगाया तो गेहूँ के दाम 60) हुए। 60) का दस्तावेज लिखा गया, 3) सैकड़े सूद। साल-भर में न देने पर सूद की दर ढाई रुपये) सैकड़े। आठ आने) का स्टाम्प, चार आने) दस्तावेज की तहरीर शंकर को ऊपर से देनी पड़ी।'
जीवन तपस्या
गाँव के एक मामूली हैसियत के किसान का जीवन क्या है, काम और काम के अलावा। छोटा-सा व्यसन भी विलासिता है। शकंर पहले ही कठिन जीवन जी रहा था, अब तो वह जीवन तपस्या में बदल गया,'मीयाद के पहले रुपये अदा करने का उसने व्रत-सा कर लिया। दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था, चबैने पर बसर होती थी, अब वह भी बंद हुआ। केवल लड़के के लिए रात को रोटियाँ रख दी जातीं! पैसे रोज का तंबाकू पी जाता था, यही एक व्यसन था जिसका वह कभी न त्याग कर सका था। अब वह व्यसन भी इस कठिन व्रत की भेंट हो गया। उसने चिलम पटक दी, हुक़्क़ा तोड़ दिया और तमाखू की हाँड़ी चूर-चूर कर डाली। कपड़े पहले भी त्याग की चरम सीमा तक पहुँच चुके थे, अब वह प्रकृति की न्यूनतम रेखाओं में आबद्ध हो गये। शिशिर की अस्थिबेधक शीत को उसने आग तापकर काट दिया।
इस ध्रुव संकल्प का फल आशा से बढ़कर निकला। साल के अन्त में उसके पास 60) रु। जमा हो गये। उसने समझा पंडितजी को इतने रुपये दे दूँगा और कहूँगा महाराज, बाकी रुपये भी जल्द ही आपके सामने हाजिर करूँगा। 15) रु। की तो और बात है, क्या पंडितजी इतना भी न मानेंगे! उसने रुपये लिये और ले जाकर पंडितजी के चरण-कमलों पर अर्पण कर दिये। पंडितजी ने विस्मित होकर पूछा, 'क़िसी से उधार लिये क्या?'
शंकर – ‘नहीं महाराज, आपके असीस से अबकी मजूरी अच्छी मिली।’
विप्र – ‘लेकिन यह तो 60) रु। ही हैं!’
शंकर -- 'हाँ महाराज, इतने अभी ले लीजिए, बाकी मैं दो-तीन महीने में दे दूँगा, मुझे उरिन कर दीजिए।’
विप्र – ‘उरिन तो जभी होगे जबकि मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे 15) रु। और लाओ।’
शंकर – ‘महाराज, इतनी दया करो; अब साँझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है, गाँव में हूँ तो कभी-न-कभी दे ही दूँगा।’
विप्र –‘मैं यह रोग नहीं पालता, न बहुत बातें करना जानता हूँ। अगर मेरे पूरे रुपये न मिलेंगे तो आज से 3) रु। सैकड़े का ब्याज लगेगा। अपने रुपये चाहे अपने घर में रक्खो, चाहे मेरे यहाँ छोड़ जाओ।
शंकर – ‘अच्छा जितना लाया हूँ उतना रख लीजिए। मैं जाता हूँ, कहीं से 15) रु। और लाने की फ़िक्र करता हूँ।’'
निर्ममता और उदासीनता
विप्र की निर्ममता और गाँववालों की उदासीनता शंकर को तोड़ देती है,'इस भाँति तीन वर्ष निकल गये। विप्रजी महाराज ने एक बार भी तकाजा न किया। वह चतुर शिकारी की भाँति अचूक निशाना लगाना चाहते थे। पहले से शिकार को चौंकाना उनकी नीति के विरुद्ध था। एक दिन पंडितजी ने शंकर को बुलाकर हिसाब दिखाया। 60) रु। जो जमा थे वह मिनहा करने पर अब भी शंकर के जिम्मे 120) रु निकले।'
शंकर – ‘इतने रुपये तो उसी जन्म में दूँगा, इस जन्म में नहीं हो सकते।’
विप्र – ‘मैं इसी जन्म में लूँगा। मूल न सही, सूद तो देना ही पड़ेगा।’
शंकर – ‘एक बैल है, वह ले लीजिए और मेरे पास रक्खा क्या है।’
विप्र – ‘मुझे बैल-बधिया लेकर क्या करना है। मुझे देने को तुम्हारे पास बहुत कुछ है।’
शंकर – ‘और क्या है महाराज ? '
विप्र – ‘क़ुछ है, तुम तो हो। आखिर तुम भी कहीं मजूरी करने जाते ही हो, मुझे भी खेती के लिए मजूर रखना ही पड़ता है। सूद में तुम हमारे यहाँ काम किया करो, जब सुभीता हो मूल को दे देना। सच तो यों है कि अब तुम किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकते जब तक मेरे रुपये नहीं चुका दो। तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं है, इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतबार पर छोड़ दूँ। कौन इसका जिम्मा लेगा कि तुम मुझे महीने-महीने सूद देते जाओगे। और कहीं कमाकर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे सकते, तो मूल की कौन कहे ?’
शंकर – ‘महाराज, सूद में तो काम करूँगा और खाऊँगा क्या?’
विप्र – ‘तुम्हारी घरवाली है, लड़के हैं, क्या वे हाथ-पाँव कटाके बैठेंगे। रहा मैं, तुम्हें आधा सेर जौ रोज कलेवा के लिए दे दिया करूँगा। ओढ़ने को साल में एक कम्बल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया करूँगा, और क्या चाहिए। यह सच है कि और लोग तुम्हें छ: आने देते हैं, लेकिन मुझे ऐसी गरज नहीं है, मैं तो तुम्हें रुपये भरने के लिए रखता हूँ।’'
प्रेमचंद ने इन दोनों के संवाद में कोई नाटकीयता नहीं रखी है। विप्र जो कह रहे हैं, वह इतनी सहजता से मानो यही स्वाभाविक है, इससे अलग कुछ हो भी नहीं सकता।
'शंकर ने कुछ देर तक गहरी चिन्ता में पड़े रहने के बाद कहा, ‘महाराज यह तो जन्म-भर की ग़ुलामी हुई।’
विप्र – ‘ग़ुलामी समझो, चाहे मजूरी समझो। मैं अपने रुपये भराये बिना तुमको कभी न छोडूँगा। तुम भागोगे तो तुम्हारा लड़का भरेगा। हाँ, जब कोई न रहेगा तब की बात दूसरी है।''
हलफनामा
कहानी अपने अंतिम चरण में है। जैसे तीखी चिलचिलाती हुई धूप में सब कुछ साफ़-साफ़ दीखता है। वह जलता भी जाता है साथ-साथ:'इस निर्णय की कहीं अपील न थी। मजूर की जमानत कौन करता, कहीं शरण न थी, भागकर कहाँ जाता, दूसरे दिन से उसने विप्रजी के यहाँ काम करना शुरू कर दिया। सवा सेर गेहूँ की बदौलत उम्र-भर के लिए ग़ुलामी की बेड़ी पैरों में डालनी पड़ी। उस अभागे को अब अगर किसी विचार से संतोष होता था तो यह था कि वह मेरे पूर्व जन्म का संस्कार है। स्त्री को वे काम करने पड़ते थे, जो उसने कभी न किये थे, बच्चे दानों को तरसते थे, लेकिन शंकर चुपचाप देखने के सिवा और कुछ न कर सकता था। वह गेहूँ के दाने किसी देवता के शाप की भाँति यावज्जीवन उसके सिर से न उतरे।
शंकर ने विप्रजी के यहाँ 20 वर्ष तक ग़ुलामी करने के बाद इस दुस्सार संसार से प्रस्थान किया। 120) अभी तक उसके सिर पर सवार थे। पंडितजी ने उस ग़रीब को ईश्वर के दरबार में कष्ट देना उचित न समझा, इतने अन्यायी, इतने निर्दयी न थे। उसके जवान बेटे की गरदन पकड़ी। आज तक वह विप्रजी के यहाँ काम करता है। उसका उद्धार कब होगा; होगा भी या नहीं, ईश्वर ही जाने।'
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