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प्रेमंचद साहित्य में सवर्णों द्वारा आर्थिक शोषण

आज मुंशी प्रेमचंद की जयंती है। आज से दो साल पहले 2020 में उनकी 140वीं जयंती पर प्रोफेसर अपूर्वानंद ने सत्य हिन्दी के लिए विशेष टिप्पणी लिखी थी। पढ़िए अपूर्वानंद की कलम से...
अपूर्वानंद
जीवन, भारतीय और विशेषकर हिंदू जीवन कतिपय संस्कारों के क्रम और उनकी योजना से बँधा है। उनका विधान करने का अधिकार ब्राह्मणों को ही है। ब्राह्मण की अनुशंसा के बिना मानो आपका जीवन वैध ही नहीं है। कह सकते हैं कि यह बात पुरानी हो गई।
अब ब्राह्मणों का वह वर्चस्व और नियंत्रण हिंदू जीवन पर नहीं रहा। उनकी समाज में न तो विशिष्ट स्थिति ही है और न ही विशेषाधिकार शेष रहा है। फिर भी अभी भी यह क्रांतिकारी माना जाता है कि आप जन्म, विवाह और मृत्यु जैसे अवसरों पर या उनके बाद भी उनकी उपेक्षा कर दें। 
साहित्य से ख़ास

सांस्कृतिक सच्चाई

पितरों की आत्मा बिना ब्राह्मणों के पासपोर्ट और सिगनल के स्वर्ग नहीं जा सकती और न उन्हें मुक्ति मिल सकती है। ज्योतिबा फुले, पेरियार, बाबा साहब आंबेडकर,  मोहनदास करमचंद गाँधी के बावजूद भारत की सांस्कृतिक सच्चाई यही है।   

माना जाता है कि जनतंत्र में ब्राह्मणों का महत्त्व जनसंख्या में उनके प्रतिशत को देखते हुए अब काफी घट गया है। यह लेकिन इस बात की व्याख्या नहीं कर पाता कि अन्य जाति समूहों के नेता आज भी क्यों ब्राह्मण देवता के प्रसाद के आकांक्षी हैं!
केरल के प्रिय राजा बालि के मुकाबले उन्हें छलपूर्वक राज्य वंचित करके निर्वासित करनेवाले (ब्राह्मण अवतार) वामन को श्रद्धेय बनाने का अभियान एक दुस्साहस है। उत्तर भारतीय राजनीतिक नेताओं के द्वारा ओणम के अवसर की जाने वाली इस धृष्टता पर केरल निवासियों ने अपना क्षोभ जताया है। फिर भी वह जारी है। इसे किस प्रकार समझा जाए?

ब्राह्मणों के सांस्कृतिक वर्चस्व की गंभीरता को प्रेमचंद बखूबी समझते थे। जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रसंगों में ब्राह्मण की केंद्रीयता के अतिरिक्त दैनंदिन जीवन में दान-दक्षिणा वह ज़रिया था, जिससे ब्राह्मण साधारण गृहस्थ को आध्यात्मिक प्रसाद देता था।
पूजा पाठ में भी उसकी अनिवार्यता ने भी देवी- देवताओं तक पहुँच को उसकी अनुमति का बंदी बना दिया। पवित्रता की परिभाषा भी ब्राह्मण ही कर सकता था।

शास्त्र-व्यवसायी और शास्त्राभिमानी: प्रेमचंद की निगाह में ब्राह्मण यही थे। एक साधारण धार्मिक हिंदू मात्र धर्मभीरु नहीं है, वह ब्राह्मणभीरु भी है। ब्राह्मण का कोप उसके लिए शाप है।
‘सवा सेर गेहूँ’  इस ब्राह्मणभीरुता के चंगुल में फँसे आम हिंदू जीवन की कथा है। कुरमी किसान शंकर और होरी की नियति में शायद ही कोई अंतर है। कहानी की शुरुआत में वे शंकर के परिचय के समय जिस भाषा का प्रयोग वे कर रहे हैं,  वह साधु-महात्मा के आते ही बदल जाती है। अतिथि, निवृत्तिमार्ग, त्याग, पदार्पण, सांसारिकता की शरण की तरफ आपका ध्यान जाना चाहिए:  

'किसी गाँव में शंकर नाम का एक कुरमी किसान रहता था। सीधा-सादा ग़रीब आदमी था, अपने काम-से-काम, न किसी के लेने में, न किसी के देने में। छक्का-पंजा न जानता था, छल-प्रपंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिन्ता न थी, ठगविद्या न जानता था, भोजन मिला, खा लिया, न मिला, चबेने पर काट दी, चबैना भी न मिला, तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा। किन्तु जब कोई अतिथि द्वार पर आ जाता था तो उसे इस निवृत्तिमार्ग का त्याग करना पड़ता था। विशेषकर जब साधु-महात्मा पदार्पण करते थे, तो उसे अनिवार्यत: सांसारिकता की शरण लेनी पड़ती थी। खुद भूखा सो सकता था, पर साधु को कैसे भूखा सुलाता, भगवान् के भक्त जो ठहरे!'

और ऐसे ही साधु का पदार्पण एक दिन होता है। उनका अधिकार सम्पूर्ण जगत् पर है। आपकी इच्छा, अनिच्छा से स्वतंत्र वे आपके द्वार अनामंत्रित आ जाएँ तो इसे सौभाग्य मानकर उनकी सेवा करना करना आपका दायित्व है,

'एक दिन संध्या समय एक महात्मा ने आकर उसके द्वार पर डेरा जमाया। तेजस्वी मूर्ति थी, पीताम्बर गले में, जटा सिर पर, पीतल का कमंडल हाथ में,  खड़ाऊँ पैर में, ऐनक आँखों पर, सम्पूर्ण वेष उन महात्माओं का-सा था जो रईसों के प्रासादों में तपस्या, हवागाड़ियों पर देवस्थानों की परिक्रमा और योग-सिध्दि प्राप्त करने के लिए रुचिकर भोजन करते हैं।'

शंकर के घर में जौ का आटा था, लेकिन

 

'प्राचीनकाल में जौ का चाहे जो कुछ महत्त्व रहा हो, पर वर्तमान युग में जौ का भोजन सिद्ध पुरुषों के लिए दुष्पाच्य होता है।' 

मनुष्य और देवता 

गेहूँ का आटा कहीं से उधार लेने का निश्चय किया, लेकिन 

'गाँव में सब मनुष्य-ही-मनुष्य थे, देवता एक भी न था, अतएव देवताओं का खाद्य पदार्थ कैसे मिलता।'

गेहूँ का आटा मिला। विप्र महाराज के अलावा और कहाँ मिलता! शंकर ने उनसे सवा सेर गेहूँ उधार लिया। साधु महाराज की सेवा करके वह अपने लिए पुण्य बटोर रहा था। फिर विप्र महाराज यह गेहूँ उसे मुफ्त क्यों देते? पुण्य एकत्र करना औरों के लिए आवश्यक होगा। ब्राह्मण का तो देह धरना ही पुण्य लाभ कर लेना है। अपने लिए ही नहीं, संसारभर के लिए।

यह कहानी सादे तरीके से शंकर की नियति का वर्णन करती है जो दोनों की मर्यादा का पालन करने के कारण विप्र महाराज का पुश्तैनी ग़ुलाम हो जाता है।
'शंकर ने दिल में कहा, सवा सेर गेहूँँ इन्हें क्या लौटाऊँ, पंसेरी बदले कुछ ज़्यादा खलिहानी दे दूँगा, यह भी समझ जायँगे, मैं भी समझ जाऊँगा। चैत में जब विप्रजी पहुँचे तो उन्हें डेढ़ पंसेरी के लगभग गेहूँ दे दिया और अपने को उऋण समझकर उसकी कोई चरचा न की। विप्रजी ने फिर कभी न माँगा। सरल शंकर को क्या मालूम था कि यह सवा सेर गेहूँ चुकाने के लिए मुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा।'

विप्र ने न पूछा कि क्यों अधिक खलिहानी देते हो! यह उदारता नहीं है, आगे मालूम होगा। शंकर का भाई इस बीच अलग हो जाता है।
'उसका छोटा भाई मंगल उससे अलग हो गया था। एक साथ रहकर दोनों किसान थे, अलग होकर मजूर हो गये थे। शंकर ने चाहा कि द्वेष की आग भड़कने न पाये, किन्तु परिस्थिति ने उसे विवश कर दिया। जिस दिन अलग-अलग चूल्हे जले, वह फूट-फूटकर रोया।' 
‘अलग्योझा’ प्रेमचंद की एक और कहानी का नाम है, लेकिन वह जितना भावनात्मक चोट करता है उससे कम आर्थिक नहीं। ‘गोदान’ में होरी भी इसे झेलता है और उसका भाई भी। 

'पाँच बीघे के आधे रह गये, एक बैल रह गया, खेती क्या खाक होती ! अन्त को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खेती केवल मर्यादा-रक्षा का साधन-मात्र रह गयी, जीविका का भार मजूरी पर आ पड़ा।
सात साल गुजर गये। विप्रजी विप्र से महाजन हुए, शंकर किसान से मजूर हो गया।'
शंकर तबाह होनेवाला है, लेकिन जितना इस बँटवारे के कारण, उससे अधिक विप्र की चतुराई से:

'सात वर्ष बीत गये, एक दिन शंकर मजूरी करके लौटा, तो राह में विप्रजी ने टोककर कहा, 'शंकर, कल आकर के अपने बीज-बेंग का हिसाब कर ले। तेरे यहाँ साढ़े पाँच मन गेहूँ कबके बाकी पड़े हुए हैं और तू देने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्या ?’

शंकर ने चकित होकर कहा, ‘मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए थे जो साढ़े पाँच मन हो गये? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ किसी का छटाँक-भर न अनाज है, न एक पैसा उधार।’

विप्र - ‘इसी नीयत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुड़ता।’

यह कहकर विप्रजी ने उस सवा सेर गेहूँ का ज़िक्र किया, जो आज के सात वर्ष पहले शंकर को दिये थे। शंकर सुनकर अवाक् रह गया। ...जब पोथी-पत्रा देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ-न-कुछ 'दक्षिणा' ले ही जाते थे। इतना स्वार्थ ! सवा सेर अनाज को अंडे की भाँति सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल जायगा। इतने दिनों में एक बार भी कह देते तो मैं गेहूँ तौलकर दे देता, क्या इसी नीयत से चुप साध बैठे रहे? बोला,  ‘महाराज, नाम लेकर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानों में सेर-सेर, दो-दो सेर दिया है। अब आप आज साढ़े पाँच मन माँगते हैं, मैं कहाँ से दूँगा?’'

धर्म और जीवन में फाँक

शंकर के यहाँ धर्म और जीवन में फाँक नहीं है, लेकिन विप्र महोदय घालमेल नहीं करते। धर्म अलग है, संसार अलग है:

'विप्र – ‘लेखा जौ-जौ, बखसीस सौ-सौ, तुमने जो कुछ दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहे एक की जगह चार पसेरी दे दो। तुम्हारे नाम बही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है; जिससे चाहे हिसाब लगवा लो। दे दो तो तुम्हारा नाम छेक दूँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा।’

शंकर – ‘पाँडे, क्यों एक ग़रीब को सताते हो, मेरे खाने का ठिकाना नहीं, इतना गेहूँ किसके घर से लाऊँगा?’ 

विप्र – ‘ज़िसके घर से चाहे लाओ, मैं छटाँक-भर भी न छोडूँगा, यहाँ न दोगे, भगवान् के घर तो दोगे।’'

कुछ लोगों का मानना है कि ‘सद्गति’ कहानी में भी प्रेमचंद ने अतिरंजना की है और ब्राह्मण जाति को बुरा दिखलाने के लिए पंडित घासीराम और उनकी पत्नी को इतना क्रूर चित्रित किया है कि उनके दरवाजे दुखी चमार लकड़ी फाड़ते फाड़ते मर जाता है।
उसी तरह वे यह आरोप भी लगा सकते हैं कि इस कहानी में प्रेमचंद उसी ब्राह्मणद्वेष से पीड़ित हैं जो विप्र के मन में सहानुभूति और दया का लेश मात्र नहीं है।
ब्राह्मण तार्किक है, शंकर नहीं है। वह आस्था और उस आस्था से जुड़ी मर्यादा का दास है। कर्ज लेकर मरने से बड़ा पाप नहीं,

'किन्तु शंकर इतना तार्किक,  इतना व्यवहार-चतुर न था। एक तो ऋण वह भी ब्राह्मण का। बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा, इस खयाल ही से उसे रोमांच हो गया। बोला, ‘महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूँगा, ईश्वर के यहाँ क्यों दूँ, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ? मगर यह कोई नियाव नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण हो के तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता। मैं तो दे दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान के यहाँ जवाब देना पड़ेगा।’

विप्र – ‘वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बन्धु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं;  देवता ब्राह्मण हैं,  जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो ?’

शंकर – ‘मेरे पास रक्खा तो है नहीं, किसी से माँग-जॉचकर लाऊँगा तभी न दूँगा !’

विप्र – ‘मैं यह न मानूँगा। सात साल हो गये, अब एक दिन का भी मुलाहिजा न करूँगा। गेहूँ नहीं दे सकते, तो दस्तावेज लिख दो।’

शंकर – ‘मुझे तो देना है, चाहे गेहूँ लो चाहे दस्तावेज लिखाओ; किस हिसाब से दाम रक्खोगे?’

विप्र – ‘बाज़ार-भाव पाँच सेर का है, तुम्हें सवा पाँच सेर का काट दूँगा।’

शंकर— ‘ज़ब दे ही रहा हूँ तो बाज़ार-भाव काटूँगा, पाव-भर छुड़ाकर क्यों दोषी बनूँ।'

हिसाब लगाया तो गेहूँ के दाम 60) हुए। 60) का दस्तावेज लिखा गया, 3) सैकड़े सूद। साल-भर में न देने पर सूद की दर ढाई रुपये) सैकड़े। आठ आने) का स्टाम्प, चार आने) दस्तावेज की तहरीर शंकर को ऊपर से देनी पड़ी।'

जीवन तपस्या 

गाँव के एक मामूली हैसियत के किसान का जीवन क्या है, काम और काम के अलावा। छोटा-सा व्यसन भी विलासिता है। शकंर पहले ही कठिन जीवन जी रहा था, अब तो वह जीवन तपस्या में बदल गया, 

'मीयाद के पहले रुपये अदा करने का उसने व्रत-सा कर लिया। दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था, चबैने पर बसर होती थी, अब वह भी बंद हुआ। केवल लड़के के लिए रात को रोटियाँ रख दी जातीं! पैसे रोज का तंबाकू पी जाता था, यही एक व्यसन था जिसका वह कभी न त्याग कर सका था। अब वह व्यसन भी इस कठिन व्रत की भेंट हो गया। उसने चिलम पटक दी, हुक़्क़ा तोड़ दिया और तमाखू की हाँड़ी चूर-चूर कर डाली। कपड़े पहले भी त्याग की चरम सीमा तक पहुँच चुके थे, अब वह प्रकृति की न्यूनतम रेखाओं में आबद्ध हो गये। शिशिर की अस्थिबेधक शीत को उसने आग तापकर काट दिया।

इस ध्रुव संकल्प का फल आशा से बढ़कर निकला। साल के अन्त में उसके पास 60) रु। जमा हो गये। उसने समझा पंडितजी को इतने रुपये दे दूँगा और कहूँगा महाराज, बाकी रुपये भी जल्द ही आपके सामने हाजिर करूँगा। 15) रु। की तो और बात है, क्या पंडितजी इतना भी न मानेंगे! उसने रुपये लिये और ले जाकर पंडितजी के चरण-कमलों पर अर्पण कर दिये। पंडितजी ने विस्मित होकर पूछा, 'क़िसी से उधार लिये क्या?'

शंकर – ‘नहीं महाराज,  आपके असीस से अबकी मजूरी अच्छी मिली।’

विप्र – ‘लेकिन यह तो 60) रु। ही हैं!’

शंकर -- 'हाँ महाराज, इतने अभी ले लीजिए, बाकी मैं दो-तीन महीने में दे दूँगा, मुझे उरिन कर दीजिए।’

विप्र – ‘उरिन तो जभी होगे जबकि मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे 15) रु। और लाओ।’

शंकर – ‘महाराज, इतनी दया करो; अब साँझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है, गाँव में हूँ तो कभी-न-कभी दे ही दूँगा।’

विप्र –‘मैं यह रोग नहीं पालता, न बहुत बातें करना जानता हूँ। अगर मेरे पूरे रुपये न मिलेंगे तो आज से 3) रु। सैकड़े का ब्याज लगेगा। अपने रुपये चाहे अपने घर में रक्खो, चाहे मेरे यहाँ छोड़ जाओ।

शंकर – ‘अच्छा जितना लाया हूँ उतना रख लीजिए। मैं जाता हूँ, कहीं से 15) रु। और लाने की फ़िक्र करता हूँ।’'

शंकर मर्यादा से बँधा है, वही मर्यादा जिसके रखवाले विप्र महोदय हैं। वे लेकिन दया नामक रोग नहीं पालते। वे भी अपनी मर्यादा से बाध्य हैं। शंकर बाकी 15 रूपए कहीं से लेकर विप्र को देना चाहता है, 

'शंकर ने सारा गाँव छान मारा, मगर किसी ने रुपये न दिये, इसलिए नहीं कि उसका विश्वास न था, या किसी के पास रुपये न थे, बल्कि इसलिए कि पंडितजी के शिकार को छेड़ने की किसी की हिम्मत न थी।'

‘पूस की रात’ में खेत नष्ट हो जाने आर किसान प्रसन्न हो उठता है, मानो मुक्ति मिल गई। ‘कफ़न’ में उस परिश्रम को बाप-बेटे हिकारत से देखते हैं जो कुछ दे नहीं सकती। क्योंकि जो परिश्रम नहीं करता, वह तो फलता फूलता जाता है, मेहनत पर जीनेवाला क्षीण होता जाता है। 

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निर्ममता और उदासीनता

विप्र की निर्ममता और गाँववालों की उदासीनता शंकर को तोड़ देती है, 

'क्रिया के पश्चात् प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। शंकर साल-भर तक तपस्या करने पर भी जब ऋण से मुक्त होने में सफल न हो सका तो उसका संयम निराशा के रूप में परिणत हो गया। उसने समझ लिया कि जब इतना कष्ट सहने पर भी साल-भर में 60) रु। से अधिक न जमा कर सका, तो अब और कौन सा उपाय है जिसके द्वारा इसके दूने रुपये जमा हों। जब सिर पर ऋण का बोझ ही लादना है तो क्या मन-भर का और क्या सवा मन का। उसका उत्साह क्षीण हो गया, मिहनत से घृणा हो गयी। आशा उत्साह की जननी है, आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है। शंकर आशाहीन होकर उदासीन हो गया। वह ज़रूरतें जिनको उसने साल-भर तक टाल रखा था, अब द्वार पर खड़ी होने वाली भिखारिणी न थीं, बल्कि छाती पर सवार होने वाली पिशाचनियाँ थीं, जो अपनी भेंट लिये बिना जान नहीं छोड़तीं। कपड़ों में चकत्तियों के लगने की भी एक सीमा होती है। अब शंकर को चिट्ठा मिलता तो वह रुपये जमा न करता, कभी कपड़े लाता, कभी खाने की कोई वस्तु। जहाँ पहले तमाखू ही पिया करता था, वहाँ अब गाँजे और चरस का चस्का भी लगा। उसे अब रुपये अदा करने की कोई चिन्ता न थी मानो उसके ऊपर किसी का एक पैसा भी नहीं आता। पहले जूड़ी चढ़ी होती थी, पर वह काम करने अवश्य जाता था, अब काम पर न जाने के लिए बहाना खोजा करता।'

वह होनी को टाल रहा है, लेकिन वह ताक लगाए बैठी है। वह क्या, ये तो विप्रजी हैं जो उसी पर घात लगाए हुए हैं !

'इस भाँति तीन वर्ष निकल गये। विप्रजी महाराज ने एक बार भी तकाजा न किया। वह चतुर शिकारी की भाँति अचूक निशाना लगाना चाहते थे। पहले से शिकार को चौंकाना उनकी नीति के विरुद्ध था। एक दिन पंडितजी ने शंकर को बुलाकर हिसाब दिखाया। 60) रु। जो जमा थे वह मिनहा करने पर अब भी शंकर के जिम्मे 120) रु निकले।' 

शंकर – ‘इतने रुपये तो उसी जन्म में दूँगा, इस जन्म में नहीं हो सकते।’

विप्र – ‘मैं इसी जन्म में लूँगा। मूल न सही, सूद तो देना ही पड़ेगा।’

शंकर – ‘एक बैल है, वह ले लीजिए और मेरे पास रक्खा क्या है।’

विप्र – ‘मुझे बैल-बधिया लेकर क्या करना है। मुझे देने को तुम्हारे पास बहुत कुछ है।’

शंकर – ‘और क्या है महाराज ? '

विप्र – ‘क़ुछ है, तुम तो हो। आखिर तुम भी कहीं मजूरी करने जाते ही हो, मुझे भी खेती के लिए मजूर रखना ही पड़ता है। सूद में तुम हमारे यहाँ काम किया करो, जब सुभीता हो मूल को दे देना। सच तो यों है कि अब तुम किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकते जब तक मेरे रुपये नहीं चुका दो। तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं है, इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतबार पर छोड़ दूँ। कौन इसका जिम्मा लेगा कि तुम मुझे महीने-महीने सूद देते जाओगे। और कहीं कमाकर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे सकते, तो मूल की कौन कहे ?’

शंकर – ‘महाराज, सूद में तो काम करूँगा और खाऊँगा क्या?’

विप्र – ‘तुम्हारी घरवाली है,  लड़के हैं,  क्या वे हाथ-पाँव कटाके बैठेंगे। रहा मैं, तुम्हें आधा सेर जौ रोज कलेवा के लिए दे दिया करूँगा। ओढ़ने को साल में एक कम्बल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया करूँगा, और क्या चाहिए। यह सच है कि और लोग तुम्हें छ: आने देते हैं, लेकिन मुझे ऐसी गरज नहीं है, मैं तो तुम्हें रुपये भरने के लिए रखता हूँ।’'

प्रेमचंद ने इन दोनों के संवाद में कोई नाटकीयता नहीं रखी है। विप्र जो कह रहे हैं, वह इतनी सहजता से मानो यही स्वाभाविक है, इससे अलग कुछ हो भी नहीं सकता।

'शंकर ने कुछ देर तक गहरी चिन्ता में पड़े रहने के बाद कहा, ‘महाराज यह तो जन्म-भर की ग़ुलामी हुई।’

विप्र – ‘ग़ुलामी समझो, चाहे मजूरी समझो। मैं अपने रुपये भराये बिना तुमको कभी न छोडूँगा। तुम भागोगे तो तुम्हारा लड़का भरेगा। हाँ, जब कोई न रहेगा तब की बात दूसरी है।''

हलफनामा 

कहानी अपने अंतिम चरण में है। जैसे तीखी चिलचिलाती हुई धूप में सब कुछ साफ़-साफ़ दीखता है। वह जलता भी जाता है साथ-साथ:  

'इस निर्णय की कहीं अपील न थी। मजूर की जमानत कौन करता, कहीं शरण न थी, भागकर कहाँ जाता, दूसरे दिन से उसने विप्रजी के यहाँ काम करना शुरू कर दिया। सवा सेर गेहूँ की बदौलत उम्र-भर के लिए ग़ुलामी की बेड़ी पैरों में डालनी पड़ी। उस अभागे को अब अगर किसी विचार से संतोष होता था तो यह था कि वह मेरे पूर्व जन्म का संस्कार है। स्त्री को वे काम करने पड़ते थे, जो उसने कभी न किये थे, बच्चे दानों को तरसते थे, लेकिन शंकर चुपचाप देखने के सिवा और कुछ न कर सकता था। वह गेहूँ के दाने किसी देवता के शाप की भाँति यावज्जीवन उसके सिर से न उतरे।

शंकर ने विप्रजी के यहाँ 20 वर्ष तक ग़ुलामी करने के बाद इस दुस्सार संसार से प्रस्थान किया। 120) अभी तक उसके सिर पर सवार थे। पंडितजी ने उस ग़रीब को ईश्वर के दरबार में कष्ट देना उचित न समझा, इतने अन्यायी, इतने निर्दयी न थे। उसके जवान बेटे की गरदन पकड़ी। आज तक वह विप्रजी के यहाँ काम करता है। उसका उद्धार कब होगा; होगा भी या नहीं, ईश्वर ही जाने।'

आपने ध्यान दिया होगा इस कहानी में विप्र महाराज का नाम नहीं। मानो उनकी वही संज्ञा है, जातिवाचक ही व्यक्तिवाचक भी है। एक का गुण ही दूसरे का है!

प्रेमचंद कहानी का अंत आम तौर पर उस प्रकार नहीं करते, जैसे इस कहानी का उन्होंने किया है। प्रेमचंद को क्यों इसका विश्वास नहीं है कि उनके पाठक इसे सत्य नहीं मानेंगे। क्यों उन्हें आखिर में अलग से हलफनामा देना पड़ रहा है :

'पाठक ! इस वृत्तांत को कपोल-कल्पित न समझिए। यह सत्य घटना है। ऐसे शंकरों और ऐसे विप्रों से दुनिया ख़ाली नहीं है।'
ऐसे शंकर और ऐसे विप्र! एक के बिना दूसरा नहीं! जब शंकर बदलेगा तब विप्र को भी बदलना होगा। लेकिन उसमें अभी काफी वक्त है।    

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