किसान आंदोलन के 22वें दिन 5 बड़ी घटनाएँ हुईं- सुप्रीम कोर्ट का किसान आंदोलन को क़ानूनी बताना, केंद्र सरकार से कृषि क़ानूनों को स्थगित करने की संभावना पूछना, मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का दिल्ली विधानसभा के भीतर कृषि क़ानूनों को फाड़ डालना, कृषि मंत्री की ओर से किसानों के लिए 8 पन्नों का संदेश और धरना देते किसानों की मौत का सिलसिला जारी रहना। इनमें से हर एक घटना महत्वपूर्ण है और कृषि क़ानून व किसान आंदोलन पर सैद्धांतिक और सियासी टकराव का प्रतीक भी। यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट भी अपनी टिप्पणियों और हस्तक्षेप के साथ इस टकराव के बवंडर में डूबता-उतराता नज़र आ रहा है। मगर, किसान आंदोलन को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की प्रतिक्रिया सनसनीखेज है।
प्रदेश की विधानसभा में केंद्र सरकार का बनाया हुआ क़ानून फाड़ा जाए और यह काम ख़ुद सूबे के मुख्यमंत्री करें तो यह महज एक प्रतिक्रिया भर नहीं रह जाती है। केजरीवाल का यह क़दम आने वाले समय में उस सीरीज़ का पहला क़दम हो सकता है जिसमें केंद्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे के बनाए क़ानून को फाड़ डालने के लिए इसी तरह से होड़ किया करेंगी। अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी के प्रमुख भी हैं और दिल्ली के मुख्यमंत्री भी। मगर, दिल्ली विधानसभा के भीतर निस्संदेह वह केवल और केवल मुख्यमंत्री हैं। इसलिए केजरीवाल की कार्यवाही को एक मुख्यमंत्री की कार्यवाही के तौर पर देखा जाएगा न कि आम आदमी पार्टी के प्रमुख के तौर पर।
क्या किसी मुख्यमंत्री को केंद्र सरकार के बनाए क़ानूनों को फाड़ डालने का हक़ दिया जा सकता है? अगर ऐसा किया गया तो केंद्र और राज्य सरकारें या फिर परस्पर राज्य सरकारें भी एक-दूसरे के साथ अक्सर संघर्ष में उलझेंगी। सीएम अरविंद केजरीवाल का व्यवहार निश्चित रूप से संवैधानिक नहीं है। यह और भी ग़लत हो जाता है जब यह बात पता चलती है कि अरविंद केजरीवाल सरकार तीन क़ानूनों में एक को नोटिफ़ाई कर चुकी हो और ऐसा करने वाली अगुआ राज्य रही हो दिल्ली।
केंद्र सरकार के तीनों कृषि क़ानून को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाए- इसके पक्ष में तर्कों की कमी नहीं है। मगर, यह रद्दी की टोकरी किसी प्रदेश की विधानसभा नहीं हो सकती। जिस बेकरी में यह क़ानून पकी है उसी बेकरी में इस क़ानून को नष्ट भी किया जा सकता है।
यह बेकरी है लोकसभा और राज्यसभा। यह भी सच है कि तीनों कृषि क़ानूनों को पारित करते वक़्त तय मर्यादाओं की धज्जियाँ उड़ गयी थीं। राज्यसभा में मत विभाजन की माँग को अनसुनी करते हुए उपसभापति हरिवंश ने जिस तरह से ध्वनिमत से इन क़ानूनों को हरी झंडी दिलायी थी वह इतिहास के काले पन्नों में दर्ज हो चुका है। मगर, यह भी सच है कि इन तीनों क़ानूनों में से एक को अधिसूचित करने में दिल्ली सरकार ने सबसे ज़्यादा हड़बड़ी दिखलायी थी।
विपक्ष पर हमलावर हैं नरेंद्र सिंह तोमर
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 8 पन्नों की चिट्ठी में कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे राजनीतिक दलों के ‘बदलते रुख’ को भी सामने रखा है और आंदोलन को देशविरोधी ताक़तों के समर्थन की भी बात कही है। उन्होंने तमाम आशंकाओं को खारिज किया है लेकिन यह नहीं बताया है कि इन क़ानूनों से किसानों को क्या और किस तरीक़े से फ़ायदा होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी कैबिनेट के सहयोगियों समेत पूरी बीजेपी कृषि मंत्री के 8 पन्नों वाले बयान को ट्वीट कर रही है। सवाल यह है कि विरोधियों के विरोधाभास को सामने लाने से क्या ख़ुद बीजेपी सरकार का विरोधाभास ख़त्म हो जाएगा?
किसानों की लड़ाई किस बात को लेकर है? क्यों किसान लगातार ठिठुरती ठंड में जान दे रहे हैं? क्या यह बीजेपी सरकार के मुताबिक़ केवल भ्रम है? यह कैसा भ्रम है कि मौत जैसी सच्चाई इस भ्रम से गुंथी हुई है और आंदोलन का अमिट हिस्सा बन चुकी है? आख़िर क्यों खेल, साहित्य, सेना और दूसरे तबक़े की नामचीन हस्तियाँ लगातार अपना अवार्ड लौटा रही हैं?
किसानों को आंदोलन का हक़- सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर आंदोलनकारी किसानों को बड़ी राहत दी है कि उन्हें आंदोलन करने का अधिकार है। केंद्र सरकार से इन क़ानूनों को स्थगित करने की सलाह भी किसानों की उस माँग के क़रीब है जिसमें वे इन क़ानूनों को वापस लेने की ज़िद पर अड़े हैं। अब केंद्र सरकार के पास अवसर है कि वह सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद आंदोलन ख़त्म कराने की ज़िम्मेदारी को पूरा करने के इस मौक़े का फ़ायदा उठाए। मगर, केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की किसानों के नाम ताज़ातरीन चिट्ठी से ऐसा नहीं लगता।
एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रखने की बात तो केंद्र सरकार कर रही है लेकिन कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में किसानों से एमएसपी से कम पर खरीद ना कर सकें क़ारोबारी, इस पर कोई भरोसा देने को सरकार तैयार नहीं है।
कमज़ोर किसानों की बाहें क़ारोबारियों द्वारा मरोड़ दिए जाने की स्थिति की कल्पना करने तक का अवसर वर्तमान सरकार के पास नहीं है।
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में ज़मीन छिन जाने का ख़तरा नहीं!
कृषि मंत्री ने सही कहा है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग उपज को लेकर है न कि ज़मीन को लेकर। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि किसानों के हाथों से ज़मीन छिन जाने का ख़तरा नहीं है? जब एमसएसपी की गारंटी के बिना खेती लाभकारी नहीं रह जाएगी तो किसानों के पास ज़मीन बेचने के सिवा चारा क्या रह जाएगा? और, किसानों की ज़मीन का खरीदार कोई दूसरा किसान नहीं होगा, बल्कि यही क़ारोबारी होंगे- क्या इस आशंका को नकार सकती है सरकार? आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत आने वाली फ़सलों को इससे बाहर करने की पहल समेत बाक़ी मुद्दों पर भी संशय ख़त्म करने वाले बयान केंद्र सरकार की ओर से नहीं दिए जा रहे हैं।
निस्संदेह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्रीय क़ानूनों को फाड़ने की जो पहल की है उसका राजनीतिक फ़ायदा उनको मिलेगा। हर उस जगह पर मिलेगा, जहाँ किसानों का आंदोलन शबाब पर है। सियासी फ़ायदा अरविंद केजरीवाल को इसलिए भी मिलेगा क्योंकि बाक़ी किसी विपक्षी दल ने इतनी आक्रामकता के साथ कृषि क़ानूनों का विरोध करने की जहमत नहीं उठायी है।
अरविंद केजरीवाल को पूरा हक़ है कि वे अपनी पार्टी की ओर से इन कृषि क़ानूनों का विरोध करें। लेकिन, उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर दिल्ली विधानसभा में केंद्र सरकार के क़ानून को फाड़ने का कोई हक़ नहीं है। यह संघीय व्यवस्था की भावना के ख़िलाफ़ है। किसानों के हितों की रक्षा हो और किसानों के लिए बनाए जा रहे क़ानूनों में किसानों के हितों को प्राथमिकता मिले, इसके लिए संघर्ष करना राजनीतिक दलों का दायित्व है। यह दायित्व इन क़ानूनों के विरोध में जनमत तैयार करने में दिखना चाहिए, राजनीतिक मंचों पर नज़र आना चाहिए न कि विधानसभा में संसद में पारित क़ानून का विरोध किया जाना चाहिए? यक़ीनन कृषि क़ानूनों को रद्दी की टोकरी में फेंकने के लिए विधानसभा को डस्टबिन बनाने की केजरीवाल की कोशिश सराहनीय नहीं है।
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