10वें दौर की वार्ता में किसानों के लिए केंद्र सरकार का यह प्रस्ताव हैरान करने वाला था कि विवादास्पद तीन कृषि क़ानूनों को एक से डेढ़ साल के लिए स्थगित कर दिया जाएगा। 11वें दौर की बातचीत से पहले इस प्रस्ताव को ठुकराने का मतलब है ‘अड़ियल’ कहलाना और स्वीकारने का मतलब है कुर्बानियों से युक्त आंदोलनकारियों के अरमानों पर कुठाराघात। किसानों की संयुक्त संघर्ष समिति ने केंद्र सरकार के ‘नरम’ रुख पर गरम रुख अपनाने का फ़ैसला किया और केंद्र के प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया।
‘नरमी’ दिखा रही सरकार के प्रस्ताव की रणनीति दरअसल बहुत गरम है। इस रणनीति का संबंध सीधे तौर पर विधानसभा चुनावों से है। अगले एक से डेढ़ साल में जिन प्रांतों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उनमें शामिल हैं पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल, पुद्दुचेरी, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश और गुजरात। इन 11 राज्यों में से 7 में बीजेपी की सरकार है। बीजेपी को लगता है कि अगर तीनों कृषि क़ानून डेढ़ साल तक स्थगित रहते हैं तो इन चुनावों में किसानों की नाराज़गी जैसी स्थिति नहीं झेलनी पड़ेगी।
बीजेपी की राजनीतिक सेहत पंजाब, हरियाणा के बाद सबसे ज़्यादा उत्तर प्रदेश में बिगड़ने वाली है। ख़ासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की इस आंदोलन में व्यापक भागीदारी है। ऐसे में एक-डेढ़ साल तक कृषि क़ानूनों को स्थगित करने की रणनीति के लिए लाभ का प्राथमिक स्रोत यूपी ही जान पड़ता है। यूपी में 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं। इस चुनाव से पहले या चुनाव के दौरान बीजेपी को नाराज़ किसान नहीं चाहिए।
यूपी किसी दल को दिल्ली की गद्दी पर बिठा भी सकता है और उतार भी सकता है। इस वक़्त यहाँ डबल इंजन की सरकार है। किसानों की भागीदारी यूपी से काफ़ी अधिक है। समूचा पश्चिमी यूपी इस किसान आंदोलन से अपना जुड़ाव महसूस करता है।
ऐसे में किसान आंदोलन के लंबा खिंचने का असर यूपी चुनाव पर पड़ेगा, यह तय है। इस नुक़सान से बचने के लिए ही तीनों कृषि क़ानूनों को स्थगित करने की सोच सामने आयी। केंद्र सरकार की ‘नरमी’ के पीछे असली वजह यही है।
जो लोग समझते हैं कि केंद्र सरकार का रुख किसान आंदोलन के लिए वाक़ई नरम हो चुका है उनके लिए ग़ौर करने लायक तीन बातें हैं-
- एक, सत्ताधारी बीजेपी के नेता, मंत्री और पदाधिकारियों के बयान किसान आंदोलन और नेतृत्व के लिए तल्ख बने हुए हैं।
- दूसरा, आंदोलन के दौरान लगातार किसानों की हो रही मौत को लेकर केंद्र सरकार की संवेदना बिल्कुल जागती नहीं दिख रही है।
- तीसरा, आंदोलनकारियों को दिल्ली में घुसने देने को लेकर केंद्र के सख़्त रवैये में बदलाव नहीं आया है।
केंद्र सरकार किसी भी सूरत में कृषि क़ानूनों को वापस लेना नहीं चाहती भले ही संशोधनों की वजह से पूरा क़ानून ही क्यों न बदल जाए। अगर केंद्र सरकार का रुख क़ानून बदलने वाला होता तो आंदोलनकारियों के लिए इतनी तल्खी नहीं होती।
कृषि क़ानूनों को रोकना समाधान नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने क़ानूनों के स्थगन की पहल इसलिए की ताकि आंदोलन का हल निकल सके। हल का मतलब क्या आंदोलन को स्थगित करना हो सकता है? आंदोलन का हल तो इसके ख़त्म होने में है और ख़त्म तभी होगा जब मांगें पूरी हों। सिर्फ़ माँगों पर विचार करने के लिए कृषि क़ानून और किसान आंदोलन दोनों के स्थगन की उम्मीद आंदोलन और आंदोलनकारियों के साथ ज़्यादती होगी।
किसान अपने आंदोलन को स्थगित करने को तैयार नहीं हैं। क़ानून रद्द हुए बगैर घर नहीं लौटने का नारा बना हुआ है। सवाल यह है कि लंबे समय तक कृषि क़ानून को क्यों स्थगित रखा जाए? क्यों नहीं सरकार सुप्रीम कोर्ट के बताए टाइम फ्रेम में ही आंदोलन का समाधान निकालने की कोशिश करती है? सुप्रीम कोर्ट की समिति अपना काम करे और केंद्र सरकार अपना। कृषि क़ानूनों को केंद्र सरकार ने बनाया है और वही इसे वापस ले सकती है या फिर नये क़ानून लेकर आ सकती है।
सुप्रीम कोर्ट अधिक से अधिक इन क़ानूनों की समीक्षा कर सकता है और उस आधार पर ज़रूरी समझे तो रद्द भी कर सकता है। मगर, नये क़ानून तो सरकार को ही बनाने होंगे।
किसानों को केंद्र सरकार से नया कृषि क़ानून चाहिए और इसलिए वह आंदोलन पर विश्वास कर रही है। उधर, गणतंत्र दिवस के मौक़े पर ट्रैक्टर रैली की योजना से बेचैन केंद्र सरकार इस बला को टालने में जुटी है क्योंकि स्थिति बिगड़ी तो केंद्र के लिए मुश्किलें खड़ी होने वाली हैं।
आख़िर तीनों कृषि क़ानूनों को एक या डेढ़ साल तक स्थगित रखने के प्रस्ताव के पीछे क्या मंशा हो सकती है! कृषि क़ानूनों पर सहमति बनाने की प्राथमिकता और ज़रूरत को यह प्रस्ताव स्वीकार करता नहीं दिखता जो किसानों की पहली मांग है। इस बात की भी गारंटी नहीं है कि जब डेढ़ साल बाद तीनों कृषि क़ानून लागू किए जाएँगे तो उनमें किसानों की आशंकाएँ ख़त्म की जा चुकी होंगी। इसका मतलब यह हुआ कि ‘नरम’ रुख दिखाकर अगर केंद्र सरकार को वक़्त मिलता है और इससे आंदोलन की धार कुंद होती है, बीजेपी इसे ही अपनी राजनीतिक सेहत के लिए सर्वोत्तम मान रही है। लेकिन क्या यह ख़तरनाक प्रवृत्ति नहीं है?
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