दिनेश त्रिवेदी, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) में सबसे बड़े और चमकदार चेहरा थे। कुछ ही समय पहले टीएमसी ने औपचारिक तौर पर पार्टी के हिंदी सेल का गठन किया था और त्रिवेदी को उसका अध्यक्ष बनाया था।
2019 के लोकसभा चुनावों में 18 सीटों पर बीजेपी की जीत में हिंदी भाषी लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस चुनाव के बाद तृणमूल कांग्रेस ने हिंदी भाषी मतदाताओं के विशेष महत्व को समझा था और उनको दोबारा अपने पाले में लाने की कोशिश शुरू की थी। त्रिवेदी के इस्तीफ़ा से तृणमूल के इस अभियान को झटका लगना स्वाभाविक है।
हार से हिल गए थे त्रिवेदी!
बंगाल की राजनीति की जानकारी रखने वाले लोगों का कहना है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद ही त्रिवेदी का पार्टी से भरोसा हिल गया था। बैरकपुर लोकसभा क्षेत्र में त्रिवेदी को अर्जुन सिंह ने हराया था, जो पहले तृणमूल कांग्रेस में ही थे। लोकसभा चुनावों से पहले अर्जुन सिंह बीजेपी में चले गए थे।
दिनेश त्रिवेदी की हार का एक बड़ा कारण यह माना गया कि हिंदी भाषी वोटरों ने उनको समर्थन नहीं दिया और बीजेपी के साथ चले गए। पार्टी ने त्रिवेदी को हिंदी सेल का अध्यक्ष बनाकर और राज्यसभा में भेजकर अपने हिंदी आधार को बचाने की कोशिश की।
राजनीति के जानकार बताते हैं कि लोकसभा चुनाव हारने के बाद से ही त्रिवेदी बीजेपी के कुछ नेताओं के संपर्क में थे। लेकिन तब त्रिवेदी को राज्यसभा का तोहफ़ा देकर पार्टी ने उन्हें मना लिया था।
प्रशांत किशोर से नाराज़ थे त्रिवेदी
हाल के दिनों में जब पार्टी ने प्रशांत किशोर को चुनाव अभियान के संचालन से जोड़ा तब त्रिवेदी और कुछ और नेता पार्टी से नाराज़ हो गए।
त्रिवेदी महसूस कर रहे थे कि पार्टी पर प्रशांत किशोर का नियंत्रण हो गया है। पार्टी प्रमुख ममता बनर्जी का दूसरे नेताओं से संपर्क कम हो गया है। त्रिवेदी ने राज्यसभा से इस्तीफ़ा देने के बाद प्रशांत किशोर का नाम लिए बिना अपने इस दर्द को संवाददाताओं से साझा किया।
हिंदी भाषी वोटरों का असर
पश्चिम बंगाल के औद्योगिक क्षेत्रों में हिंदी भाषी मतदाताओं का अच्छा ख़ासा असर है। बंगाल में रहने वाले आधा से ज़्यादा हिंदी भाषी लोग बिहार से गए हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, छत्तीस गढ़, झारखंड और राजस्थान से भी बड़ी संख्या में प्रवासी कई पीढ़ियों से बंगाल में बसे हुए हैं।
हावड़ा, हुगली, 24 परगना, दुर्गापुर और सिलीगुड़ी के औद्योगिक क्षेत्रों में इनकी ख़ासी आबादी है। आसनसोल और रानीगंज के कोयला खदान क्षेत्र में भी इनकी अच्छी संख्या है। एक अनुमान है कि विधानसभा की क़रीब 105 सीटों पर हिंदी भाषियों का असर है।
हिंदी भाषी वोटर नए नहीं बंगाल के लिए
कोलकाता और बड़े शहरों में राजस्थान के मारवाड़ी बड़ी संख्या में हैं। ये व्यापार में हैं, इसलिए काफ़ी समृद्ध भी हैं।
हिंदी भाषियों ने ब्रिटिश राज की शुरुआत से ही रोज़गार की तलाश में बंगाल जाना शुरू किया और वहीं बस गए। लेकिन इनका संपर्क अपने मूल राज्य से ख़त्म नहीं हुआ। इसलिए जब इनके मूल निवास वाले राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार वग़ैरह में बीजेपी का दबदबा बढ़ा तो इनका लगाव भी बीजेपी की तरफ़ बढ़ा।
हिंदी भाषी मतदाता साठ के दशक तक कांग्रेस के साथ थे। फिर सीपीआईएम और वाम मोर्चा की तरफ़ झुके, लेकिन तृणमूल का दबदबा बढ़ते ही उसके साथ हो गए। अब उनका झुकाव बीजेपी की तरफ़ दिखाई दे रहा है। दिनेश त्रिवेदी के पार्टी छोड़ने से तृणमूल के नुक़सान और बीजेपी के फ़ायदे की भविष्यवाणी की जा रही है।
त्रिवेदी के आरोप में कितना दम है?
त्रिवेदी से पहले एक और हिंदी भाषी नेता और ममता सरकार में मंत्री लक्ष्मी रतन शुक्ला सरकार और पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। शुक्ला पूर्व क्रिकेटर हैं और ममता सरकार में युवा और खेल मामलों के मंत्री थे। शुक्ला ने राजनीति को ही अलविदा कहने का फ़ैसला किया।
ममता सरकार में दबंग मंत्री शुभेंदु अधिकारी, मुकुल राय और राजीव बनर्जी समेत क़रीब 40 वरिष्ठ नेता और विधायक तृणमूल छोड़ चुके हैं। ज़्यादातर बीजेपी में शामिल हुए हैं।
दिनेश त्रिवेदी के इस्तीफ़े से एक बात तो साफ़ हो गयी है कि ममता बनर्जी अपना दबदबा क़ायम रखने में कामयाब नहीं हैं। अपनी पार्टी के नेताओं से उनका संपर्क कम हुआ है।
लेकिन त्रिवेदी जो आरोप लगा रहे हैं, वो भी पूरी तरह सच नहीं लगता है।
त्रिवेदी ने अप्रत्यक्ष रूप से प्रशांत किशोर पर जो आरोप लगाया, उसमें भी ज़्यादा दम दिखाई नहीं दे रहा है। प्रशांत एक चुनाव रणनीतिकार के तौर पर काम कर रहे हैं और चुनाव के बाद उनकी भूमिका ख़त्म हो जाएगी। तृणमूल नेताओं की नाराज़गी के और भी कारण बताए जा रहे हैं।
एक कारण तो यह बताया जा रहा है कि पार्टी में ममता के भतीजा अभिषेक बनर्जी का दख़ल बढ़ रहा है, जिसे कई नेता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। फिर भ्रष्टाचार के आरोपों में फ़ंसे कई नेताओं को केंद्र सरकार की एजेंसियों का डर सता रहा है।
पार्टी नई, कैडर वही
पश्चिम बंगाल की राजनीति में दलबदल का एक विचित्र ट्रेंड दिखाई देता है। कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने 1972 से 1977 के बीच नक्सलियों के दमन के नाम पर बंगाल के युवकों पर जम कर ज़ुल्म किया। इसकी प्रतिक्रिया में बड़ी संख्या में नक्सलबाड़ी समर्थक युवकों के साथ कांग्रेसी और निष्पक्ष युवक सीपीएम और वाम मोर्चा में शामिल हो गए। इनके दम पर वाम मोर्चा ने क़रीब 35 सालों तक बंगाल पर राज किया।
वाम मोर्चा ने बटाईदार खेत मज़दूरों- किसानों को ज़मीन का मालिकाना जैसा हक़ देकर गावों में अपना आधार मजबूत कर लिया था। नंदी ग्राम संघर्ष के बाद जब ममता बनर्जी एक जुझारू नेता के रूप में उभरीं तब सीपीएम और वाम मोर्चा के इसी कैडर का एक बड़ा हिस्सा तृणमूल कांग्रेस में खिसक गया।
अब जब ममता का जादू उतार पर दिखाई दे रहा है तो तृणमूल का कैडर बीजीपी की तरफ़ खिसक रहा है। इससे बीजेपी का पुराना कैडर नाराज़ है। बीजेपी अच्छी तरह जानती है कि अपने पुराने कैडर के बूते पर बंगाल में सेंध नहीं लगा सकती है, इसलिए पुराने कार्यकर्ताओं की परवाह किए बग़ैर तृणमूल के कैडर और नेताओं को अपनी तरफ़ खींचने में जुट गयी है।
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