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हेमंत सोरेन
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अब सारी शिक्षा संस्थाओं को छात्रों और शिक्षकों के लिये ध्यान सत्र आयोजित करने हैं। लेकिन ध्यान कैसे करना है, यह वे ख़ुद तय नहीं कर सकते। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने ध्यान करने और करवाने का फ़रमान जारी करते हुए स्पष्ट किया है कि श्रीश्री रविशंकर की संस्था द आर्ट ऑफ़ लिविंग द्वारा ध्यान का जो तरीक़ा विकसित किया गया है, उसका पालन किया जाए। उनके प्रशिक्षकों से अध्यापकों और छात्रों को प्रशिक्षण दिलवाया जाए।
आयोग को संदेह है कि विश्वविद्यालय कहीं उसके काग़ज़ को दबा न दें, इसलिए वह निश्चित करना चाहता है कि 'ध्यान समन्वयक' नियुक्त करने की सूचना वेब साइट पर दी जाए। यह “आज़ादी के अमृत महोत्सव” वर्ष में ‘घर-घर ध्यान’ अभियान का हिस्सा है।
अब इस तरह के आदेश से कोई हैरान नहीं होता। कोई नहीं पूछता कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का यह काम नहीं है। विश्वविद्यालय में किस प्रकार के कार्यक्रम हों, किन विषयों पर गोष्ठियाँ हों, इसका निर्देश देने का काम आयोग का नहीं है। उसके क़ानून के मुताबिक़ उसका काम उच्च शिक्षा को प्रोत्साहित करना, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में समन्वय करना और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करना है।
विश्वविद्यालय क्या पढ़ाएँ, अपने पाठ्यक्रम कैसे बनाएँ, छात्रों का दाख़िला कैसे लें, शिक्षकों की भर्ती कैसे करें, यह सब कुछ विश्वविद्यालयों को ख़ुद करना है। किस प्रकार की गोष्ठियाँ, सेमिनार, सांस्कृतिक कार्यक्रम वे या उनके विभाग करें, यह भी उन्हें तय करना है। इन सारे मामलों में वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं।
आयोग इनमें हस्तक्षेप नहीं करेगा, यह कहने की ज़रूरत नहीं क्योंकि हर विश्वविद्यालय अपने क़ानून के नियमों से संचालित होता है और आयोग इन कामों के लिए नहीं स्थापित किया गया था। अगर विश्वविद्यालयों के क़ानूनों को पढ़ें तो यह भी साफ़ है कि सरकार भी उनके काम में दखल नहीं दे सकती।
सरकार ने यह पाया कि छात्रों और शिक्षकों में राष्ट्रवाद की कमी पायी जाती है। राष्ट्र प्रेम और वीरता का संबंध तो जाना ही हुआ है। सेना से बेहतर और कौन है राष्ट्र प्रेम जानता हो? सेना के प्रति आदर पैदा करने लिए विश्वविद्यालयों में वीरता दीवारों की स्थापना का आदेश दिया गया। इन दीवारों पर परमवीर चक्र जैसे पदकों से सम्मानित लोगों की तस्वीरें होनी चाहिए। राष्ट्र प्रेम के लिए वह भी काफ़ी नहीं था। इसलिए संघीय सरकार ने हर विश्वविद्यालय को परिसरों में स्थायी रूप से तिरंगा झंडा लगाने का हुक्म दिया। तिरंगा दूर से भी सबको दीखे और उससे निकलकर राष्ट्रवाद की तरंगें हर किसी में प्रवेश कर सकें इसलिए उसे 207 मीटर ऊँचा होना चाहिए।
सारे कार्यक्रमों की तस्वीरें खींचकर या वीडियो बनाकर आयोग और मंत्रालय को भेजे जाने थे। सरकार हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रचार कर रही है और चाहती है कि विश्वविद्यालय भी इस विचारधारा के प्रचारक के रूप में काम करें। रविशंकर के “ध्यान अभियान” के ठीक पहले आयोग ने ही सरकार के इस आदेश को शिक्षा संस्थाओं तक पहुँचाया कि वे संविधान दिवस के अवसर पर “भारत: लोकतंत्र की जननी” विषय पर सेमिनार या अन्य कार्यक्रम करें। यह विचार विमर्श किया जाए, यही कहना काफ़ी नहीं था। इसलिए आयोग ने एक नोट भी साथ भेजा जो भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने तैयार किया है। सबको उस नोट के निर्देशों के अनुसार ही विचार करना है। उसमें समझाया गया है कि भारत दुनिया का सबसे प्राचीन जनतंत्र है।
यह भी कि खाप पंचायतों में लोकतांत्रिक परंपरा देखी जा सकती है। आदर्श राजा की भी एक कल्पना है। लोकतंत्र की जड़ें वैदिक काल हैं। और यह भी धरती पर भारत का अस्तित्व अनादिकाल से है। इसलिए भारत की महानता में कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
इतिहास परिषद के इस नोट की काफ़ी आलोचना की जा रही है। कई लेख लिखे जा चुके हैं। क्या यह संभव है कि इन आलोचनात्मक लेखों में जो विचार व्यक्त किए गए हैं वे उन गोष्ठियों में भी ज़ाहिर किए जा सकें? आयोग का निर्देश है कि नोट के अनुसार ही चर्चा होनी है। तो किसी वाद विवाद संवाद का सवाल ही नहीं पैदा होता।
फिर जैसा हमने कहा, इसे विचार विमर्श कहने की जगह प्रचार कहना अधिक उचित होगा। किसी विचार का प्रचार करना विश्वविद्यालय का काम नहीं। उसका काम प्रत्येक विचार की परीक्षा करना है। उसकी आलोचनात्मक पड़ताल करना है। कितना ही बड़ा दार्शनिक हो या चिंतक, विश्वविद्यालय में वह आलोचना का विषय है।
अध्यापक का काम छात्रों को किसी विचारक, या विचारधारा में विश्वास करने की शिक्षा देने का नहीं है। महानता के हर दावे की कक्षाओं, गोष्ठियों, शोध पत्रों में जाँच की जाती है, की जानी चाहिए। विश्वविद्यालय का काम विद्यार्थियों में आलोचनात्मक क्षमता का विकास है। इसलिए वे एक ही विषय पर भिन्न मतों या दृष्टियों से विद्यार्थियों को परिचित कराते हैं। उनका दायित्व विद्यार्थियों को बौद्धिक उपकरण प्रदान करने का है, या उन पद्धतियों से वाक़िफ़ कराने का है जिनके सहारे वे प्रत्येक अवधारणा या विचार की जाँच कर सकें।
अध्यापक का अपना मत हो सकता है लेकिन वह आधिकारिक मत नहीं जिससे विद्यार्थी असहमत न हो सकें।
लेकिन अभी तो आयोग विश्वविद्यालय को यह कह रहा है कि वह सरकारी विचार के लिए सहमति पैदा करने, एकमत बनाने का काम इन कार्यक्रमों के माध्यम से करे। किसी विसंवादी स्वर की यहाँ कोई जगह नहीं है।
यह विश्वविद्यालय के स्वभाव के ठीक विपरीत है। इस बात को छोड़ भी दें तो यह सब जो अभी विश्वविद्यालय से करवाया जा रहा है, वह आम तौर पर स्कूलों तक सीमित था। झंडा फहराना, सरकारी आदेश से राष्ट्रीय दिवस या विशेष दिवसों को मनाया जाना: विश्वविद्यालय से यह उम्मीद नहीं की जाती थी। उच्च शिक्षा का अर्थ ही है आज़ादी। सांस्थानिक नियंत्रण अध्यापक और छात्र पर नाम मात्र को होता था। शैक्षणिक मामलों में कोई केंद्रीय निर्देश शायद ही जारी किया जाता रहा है। यानी कोई एक साँचा नहीं जिसमें सबको ढालने का काम कक्षाओं, अध्यापकों का है।
स्कूलों पर राजकीय नियंत्रण के ख़िलाफ़ भी अरसे से बात की जा रही है। यह सरकार उच्च शिक्षा संस्थानों पर भी स्कूलों की तरह शिकंजा कसने के लिए अपनी ताक़त का इस्तेमाल कर रही है।
कई मित्र इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद आदेशों को नज़रअंदाज़ करने को कहते हैं। कुछ कहते हैं कि राष्ट्रीय ध्वज लगाने में क्या बुराई है या स्वच्छता तो अच्छी चीज़ है या राष्ट्रीय एकता की भावना का प्रसार तो होना चाहिए। उसी प्रकार योग शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा है और ध्यान मानसिक स्वास्थ्य के लिए। फिर अगर सरकार या आयोग इनके लिए कहते हैं तो ऐतराज़ क्यों?
ऊपर से यह सब निर्दोष जान पड़ता है। लेकिन इन्हें व्यापक संदर्भ में समझने की ज़रूरत है। ऐसे आदेश इसलिए लगातार दिए जाते हैं जिससे विश्वविद्यालय का आशय समाज की निगाह में बदल जाए। समाज की कल्पना में वह विचार केंद्र की जगह प्रचार का माध्यम बनकर रह जाए। ऐसे कार्यक्रमों को दूसरी गतिविधियों के साथ रखकर समझने की आवश्यकता है। जैसे नई शिक्षा नीति में भारतीयता का गुणगान। प्रत्येक विषय के पाठ्यक्रम में भारतीय ज्ञान परंपरा को शामिल करने का आग्रह। राष्ट्रवाद पर अतिरिक्त बल।
उच्च शिक्षा संस्थान अब दिमाग़ों के भारतीयकरण के कारख़ाने बन गए हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह हिंदुत्ववादी भारतीयता है। कुछ वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षक मुझसे मिलने आए। वे अध्यापकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेने आए थे।
ऐसे कार्यक्रमों में यह उम्मीद की जाती है कि विभिन्न ज्ञान अनुशासनों में जो नया शोध हो रहा है या नया ज्ञान पैदा हो रहा है, उस पर चर्चा होगी। लेकिन उन 15 और 21 दिनों के कार्यक्रमों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों के छोटे बड़े पदाधिकारी और प्रचारकों को भाषण देने के लिए बुलाया गया। एक दिन तो एक प्रचारक ने सारे प्रतिभागियों से खड़े होकर “चीनी माल तलाक़ तलाक़ तलाक़” के नारे लगाने को कहा। “मृत्यु हो तो अखंड भारत में” का प्रण भी सामूहिक रूप करने के लिए अध्यापकों को बाध्य किया गया। अब ऐसे कार्यक्रम इतने आम हो गए हैं कि तीन चार साल पहले इनकी जो आलोचना होती थी, वह भी शांत हो गई है।
विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का ख़याल अब किसी दूसरी दुनिया का विचार जान पड़ता है। कुलपति, डीन और विभागाध्यक्ष आदेश की प्रतीक्षा न करके ख़ुद ऐसे कार्यक्रम आयोजित करते हैं जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में उनके नंबर बढ़ जाएँ। जो छात्र अभी अध्यापक पद के उम्मीदवार हैं, बढ़ चढ़कर ऐसे कार्यक्रमों में भाग लेते या इनका आयोजन करते हैं ताकि वे आरएसएस के वफ़ादार साबित हों। और उनकी बहाली हो सके।
इन सबका नतीजा यह है कि शिक्षा, ज्ञान, शोध आदि का बोध ही समाज दिमाग़ से ग़ायब हो रहा है। विश्वविद्यालय राष्ट्रवादी संस्था नहीं हो सकता, उसे ज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का हिस्सा होना है, अपनी जगह वहाँ बनानी है, यह बात लोग भूलते जा रहे हैं। अगर हमारे विश्वविद्यालय इस प्रकार एक विचारधारा के प्रवक्ता बन जाएँगे तो दूसरे देशों से छात्र यहाँ क्यों आएँगे? उसी प्रकार अगर यहाँ शोध पर विचारधारात्मक नियंत्रण होगा तो भी बाहर के लोग क्यों हमसे रिश्ता रखेंगे?
यह पूरे समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए कि भारत में भी अब चीन या स्टालिन के सोवियत संघ की तरह दिमाग़ों का सरकारीकरण किया जा रहा है। लेकिन वैसी किसी फिक्र का कोई निशान नहीं।
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