आनंद तेलतुंबडे को बंबई उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने जमानत दे दी है। दूसरी तरफ़ गौतम नवलखा को तालोज़ा जेल से निकाल कर उनके मकान में गिरफ़्तार रखने का आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने दिया है। जिस तर्क से आनंद को जमानत दी गई है, गौतम को भी ज़मानत मिलनी चाहिए। लेकिन उनकी उम्र और सेहत को देखते हुए अदालत ने उनपर रहम भर दिखलाने की इजाज़त ख़ुद को दी है।
बंबई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति गडकरी और जाधव की पीठ का यह फ़ैसला बहुत अहम है क्योंकि इसी पीठ ने अभी हाल में ज्योति जगताप और हैनी बाबू को इसी मामले में जमानत देने से इंकार कर दिया था।
दोनों प्रसंगों में अदालत ने अभियोग-पक्ष के आरोपों की जाँच करने में दो तरीक़े या दो अलग-अलग रवैयों का परिचय दिया है। आनंद को ज़मानत न दिए जाने की अभियोग पक्ष या भारतीय राज्य की दलील को अदालत ने ठुकरा दिया। इसके लिए उसने उनपर लगाए गए आरोपों की जाँच करके पाया कि अभियोग पक्ष उन्हें साबित करने के लिए न तो पर्याप्त सुबूत दे पा रहा है, न ही उसके तर्कों में कोई दम है।
भीमा कोरेगाँव
आगे बात करने के पहले हम याद कर लें कि आनंद, गौतम, हैनी बाबू, ज्योति जगताप क्यों जेल में हैं। महाराष्ट्र में पुणे के क़रीब भीमा कोरेगाँव में 1 जनवरी, 2018 को हज़ारों दलित इकट्ठा हुए थे। वे दो सौ साल पहले इसी जगह पर पेशवाओं के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ी फ़ौज के महार दस्ते की जीत का सालाना जश्न मनाने एकत्र हुए थे। एक शाम पहले शनिवार पाड़ा में ‘येलगार परिषद’ नाम से एक सभा का आयोजन किया गया था। उस सभा में कई लोगों ने भाषण दिए थे और गीत भी गाए गए थे। उनमें सरकार की आलोचना होनी ही थी।
इसके बाद भीमा कोरेगाँव के आयोजन में भाग लेनेवाले लोगों पर हमला किया गया। एक व्यक्ति की जान चली गई और अनेक घायल हुए। इस हिंसा के लिए भीड़ को उकसाने के आरोपी दो स्थानीय और प्रभावशाली हिंदुत्ववादी नेता थे, संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे। उनके नाम से पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई गई। लेकिन उनपर आज तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है। इसके बाद दलितों ने महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किए।
‘येलगार परिषद’ के खिलाफ जाँच
पुलिस ने हिंसा की जाँच में कोई रुचि नहीं दिखलाई। उल्टे उसने ‘येलगार परिषद’ के ख़िलाफ़ जाँच शुरू कर दी। इल्ज़ाम यह था कि ‘येलगार परिषद’ की सभा में उत्तेजक, सरकार विरोधी और समाज में विभेद पैदा करने वाले भाषण दिए गए, गीत गाए गए। इन्हीं की वजह से हिंसा भड़की। यह अजीब तर्क था। अगर भाषणों या गानों से उत्तेजित होकर दलितों ने हिंसा की होती तो भी इस आरोप पर विचार किया जा सकता था। लेकिन हिंसा तो दलितों पर की गई थी। तो क्या पुलिस यह कहना चाहती है कि इन भाषणों और गानों को सुनकर हिंदुत्ववादी उत्तेजित हो गए और उन्होंने उसकी वजह से हिंसा की?
यानी ख़ुद दलित ही अपने ऊपर हिंसा के लिए ज़िम्मेवार ठहरे? जैसे अक्सर औरतों को कहा जाता है कि उन्होंने पुरुषों को अपने कपड़ों, हाव भाव से अपने ऊपर हिंसा के लिए उकसाया?
“व्यापक माओवादी साज़िश”
पुलिस यहीं नहीं रुकी। येलगार परिषद के आयोजन को हिंसा के पीछे के षड्यंत्र का एक हिस्सा मानकर उसने अपनी तथाकथित जाँच शुरू की। उस जाँच के दायरे को वह फैलाती चली गई और एक “व्यापक माओवादी साज़िश” का उसने पर्दाफाश किया। पुलिस के मुताबिक़ यह साज़िश राष्ट्रव्यापी थी। इसके इरादे भयानक थे। यह सरकार को आतंकित करना चाहती थी, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री की हत्या तक का इरादा षड्यंत्रकर्ताओं का था, पुलिस ने अपनी “खोजबीन” से यह रहस्योद्घाटन किया।
अर्बन नक्सल
इस ‘साज़िश के दिमाग़ों’ की खोज करते हुए उसने उन्हें गिरफ़्तार करना शुरू किया जिन्हें माओवादी या आजकल की सरकारी ज़ुबान में अर्बन नक्सल कहा जाता है। हम सरकार की भाषा पर प्रायः सवाल नहीं उठाते। इसलिए मीडिया के बड़े हिस्से ने स्वीकार कर लिया कि आदिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले फादर स्टैन स्वामी, सुधा भारद्वाज, अंग्रेज़ी के अध्यापक हैनी बाबू, दलित विद्वान आनंद तेलतुंबडे, कलाकार ज्योति जगताप, कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता वरवरा राव, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा समेत गिरफ़्तार हुए 16 लोग अर्बन नक्सल हैं।
रोना विल्सन से ‘बरामद’ पत्र
पुणे पुलिस ने जनता को बताना शुरू किया कि ये सारे लोग प्रधानमंत्री की हत्या के बारे में भी सोच रहे थे। इसके प्रमाण के रूप में दिल्ली के कार्यकर्ता रोना विल्सन के कंप्यूटर से ‘बरामद’ एक ऐसे पत्र को पेश किया गया जिसपर लिखनेवाले के दस्तखत नहीं थे और जिसे पढ़कर कोई सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी समझ सकता था कि पुलिस ने यह नकली सुबूत गढ़ा है। इसी पत्र के सहारे आनंद को गिरफ़्तार किया गया।
आनंद पर पुलिस का इल्ज़ाम यह है कि वे माओवादियों के बड़े बौद्धिक हैं, येलगार परिषद के पीछे उनका दिमाग़ था, वे माओवादी दल के बड़े नेता मिलिंद तेलतुंबडे से मिलकर साज़िश रच रहे थे। माओवादी दल उन्हें पैसे देकर विदेशों में सेमिनार आदि में भेजता था, जहाँ से ख़तरनाक पाठ्य सामग्री लाकर वे माओवादियों को दिया करते थे।
पुलिस ने आनंद पर ये आरोप लगाते हुए कहा कि वे आतंकवादी गतिविधि में लिप्त थे। उनके ख़िलाफ़ सबसे सख़्त आतंकवाद विरोधी क़ानून यूएपीए की सबसे कड़ी धाराओं का इस्तेमाल किया गया। इसका अर्थ यह था कि उन्हें किसी तरह जमानत नहीं मिल सकती थी।
यूएपीए आतंकवादी हिंसा का मुक़ाबला करने के नाम पर इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए इसमें बाक़ी अपराधों से भिन्न रवैया अख़्तियार किया जाता है। अभियुक्त पूरी तरह लाचार होता है। अदालत को इसकी मनाही है कि वह जमानत के मौक़े पर पुलिस के दावों की पुख़्तगी की जाँच करे। यानी वह जो कह रही है, उसे ही अदालत को मान लेना है। इसका मतलब यही हुआ कि अभियुक्त मुक़दमे के पूरा हो जाने तक जिसमें दसियों बरस लग सकते हैं, सिर्फ़ आरोपों के आधार पर जेल में बंद रहने को मजबूर है।
बंबई उच्च न्यायालय की इस पीठ ने अलग रुख़ लिया। उसने आनंद पर पुलिस के आरोपों की बारीकी से जाँच की। उसने कहा कि चूँकि इल्ज़ाम दहशतगर्दी के हैं, ज़रूरी है कि वे हर तरह की जाँच पर खरे उतरें। जब क़ानून इतना सख़्त हो कि बिना आरोप के साबित हुए अभियुक्त सालों जेल में रहने को अभिशप्त हो तो उनकी सच्चाई की जाँच भी उतनी ही सख़्त होनी चाहिए। आख़िर सवाल व्यक्ति की स्वतंत्रता का है। उसी की रक्षा के लिए राज्य की सारी संस्थाओं को काम करना है। उस आज़ादी के साथ बिना किसी ठोस कारण के समझौता नहीं किया सकता।
सुबूत कहां हैं?
आनंद माओवादी नेता मिलिंद के भाई हैं लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि वे ख़ुद माओवादी हैं। अगर पुलिस की यह बात मान भी ली जाए कि वे माओवादी दल से जुड़े हैं, हालाँकि पुलिस इसके लिए भी कोई प्रमाण पेश नहीं कर पाई है, तब भी यह सुबूत नहीं है कि वे किसी हिंसक कार्रवाई में शामिल थे। मिलिंद से उनकी मुलाक़ातों का भी कोई सबूत पेश नहीं किया गया। माओवादी दल उन्हें पैसे देता था, इसका भी कोई प्रमाण नहीं।
रोना विल्सन के कंप्यूटर से जिस अहस्ताक्षरित पत्र को पेश किया गया जिसमें किसी आनंद का उल्लेख है, वह आनंद के कंप्यूटर पर नहीं है। फिर यह पत्र, अगर उसे असली मान लिया जाए, तो उन्हें ही लिखा गया, इसका क्या प्रमाण? आनंद कई हो सकते हैं।
उमर खालिद का मामला
इस पीठ ने पुलिस द्वारा प्रस्तावित धारणाओं को पुष्ट करने से इंकार कर दिया। उसने वह नहीं किया जो उमर ख़ालिद की जमानत की अर्ज़ी ख़ारिज करने के लिए दिल्ली की अदालत ने किया था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि उमर ख़ालिद ने इंक़लाब या क्रांतिकारी जैसे भयानक शब्दों का प्रयोग किया जिनसे खून ख़राबे की बू आती है। पुलिस से सौ कदम आगे बढ़कर अदालत ने ख़ुद ही उमर को बिना किसी प्रमाण के एक ख़ूँख़ार शख़्स की तरह पेश किया। यानी ख़ुद अदालत ही उमर पर आरोप लगाने लगी।
दिल्ली पुलिस के पास कोई प्रमाण नहीं कि दिल्ली की हिंसा के लिए उमर किसी तरह ज़िम्मेवार हैं। लेकिन अदालत ने पुलिस से सुबूत माँगने की जगह ख़ुद ही सुबूत सुझाना शुरू कर दिया। मात्र इंक़लाबी इस्तक़बाल या क्रांतिकारी अभिवादन कहना ही साबित करता है कि उमर का इरादा रक्तपात का था। इसके बाद उमर के पास दलील ही क्या बच जाती है?
बंबई की अदालत ने ऐसा नहीं किया। उसे पुलिस की मदद करने के लिए कोई काल्पनिक कहानी गढ़ने में रुचि नहीं थी। हालाँकि जैसा हमने पहले लिखा, इसी अदालत ने कुछ दिन पहले ज्योति जगताप को जमानत देने से इंकार करने के लिए दिल्ली अदालत जैसा ही रुख़ अपनाया। ज्योति ने अपने गानों में सरकार पर व्यंग्य किया था, सरकार की नीतियों की आलोचना की थी, यह उनके दिमाग़ के आतंकवादी होने का पर्याप्त सबूत था!
अध्यापक हैनी बाबू के ख़िलाफ़ भी उसी तरह कोई सुबूत नहीं हैं जैसे आनंद के ख़िलाफ़ कुछ नहीं है। लेकिन उन दोनों की ज़मानत की अर्ज़ी ठुकरा दी गई।
इसका अर्थ यही है कि हमारी अदालतें इस अतिराष्ट्रवादी समय में व्यक्ति की स्वतंत्रता की जगह राज्य के रुतबे की हिफ़ाज़त करने को कहीं अधिक फ़िक्रमंद हैं। वह संविधान नहीं, सरकार की सुरक्षा को अपना दायित्व समझ बैठी हैं। इसलिए आनंद को जमानत देते वक्त उसने यूएपीए के इस्तेमाल के पुलिस दावे की जाँच के लिए जो सख़्त कसौटी बनाई है, वह अपवाद बनकर न रह जाए, इसकी उम्मीद ही की जा सकती है।
जमानत के बावजूद आनंद जेल में हैं। क्योंकि राज्य इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय जाना चाहता है। उसे यहाँ उम्मीद है क्योंकि डॉक्टर साईबाबा को बंबई की अदालत द्वारा बरी कर दिए जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने फुर्ती से उस आदेश पर रोक लगा दी थी। ऐसा ही वह आनंद की जमानत के मामले में करेगी, ऐसा राज्य मानकर चल रहा है।
तो इस हफ़्ते हमें एक बार फिर यह मालूम होगा कि हमारी सबसे ऊँची अदालत की निगाह में आज व्यक्ति की स्वतंत्रता की क़ीमत कितनी है।
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