अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और उसके सहयोगियों की फ़ौजी मौजूदगी के ख़त्म हो जाने और उस पर तालिबान के कब्जे को लेकर पूरी दुनिया में और भारत में भी काफ़ी उत्तेजना है। लेकिन क्या उतनी ही संवेदना भी है? यह प्रश्न अफ़ग़ानिस्तान के आज के हालात पर अपनी राय देने के पहले ख़ुद से पूछना चाहिए। और बात करने का कौन सा तरीक़ा हम अपनाते हैं, यह भी महत्त्वपूर्ण है।
तालिबान को मानवाधिकार मूल्यों पर ही पाबंद करना होगा
- वक़्त-बेवक़्त
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- 23 Aug, 2021

हम जो न तो राज्य हैं, न विशेषज्ञ, हम तालिबान को जनतांत्रिक, मानव अधिकार के उसूलों की कसौटी पर ही परखेंगे। उसमें सबसे ऊपर है व्यक्ति की हर तरह की आज़ादी। हम तो एक अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्य की तरह तालिबान को मानवाधिकार के मूल्यों के आधार पर पाबंद करते रहेंगे।
एक श्रेणी विशेषज्ञों की है। वे इस घटनाक्रम को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रख कर समझने की कोशिश कर रहे हैं। विश्लेषण हमेशा लाभप्रद होता है। उससे यह समझने में मदद मिलती है कि क्यों 20 साल तक दुनिया के सबसे ताक़तवर जनतंत्र की सरपरस्ती के बावजूद उसकी थूनी के हटते ही उसके द्वारा गढ़ा गया जनतंत्र एक हफ़्ता भी नहीं टिक सका। जनतंत्र के मॉडल में क्या दोष था, कैसे अमेरिका और उसके सहयोगियों ने अफ़ग़ानिस्तान में एक भ्रष्ट तंत्र को जड़ जमाने में मदद की, इस पर ख़ुद अमेरिका में ही बहुत कुछ लिखा गया है। पूरे अफ़ग़ानिस्तान में और ख़ासकर काबुल में सरकारी अफ़ग़ानियों की एक आबादी फली फूली जिससे बाक़ी अफ़ग़ानी अलगाव महसूस करते हैं। अमेरिका और इंग्लैंड अपने 'बहादुर अफ़ग़ानी मित्रों' की फ़िक्र कर रहे हैं, सारे अफ़ग़ानियों की नहीं, यह उनके बयानों से साफ़ है। 20 साल में इस तरह अफ़ग़ानी समाज को कई हिस्सों में बाँट दिया गया है, उसे एक करने की जगह।