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छात्र जेल में डाले जा रहे हैं तो विश्वविद्यालयों को ऑनलाइन इम्तहान की चिंता क्यों?

इस महामारी और उसकी आशंका के सहारे परिसरों को वीरान किया जा सकता है और छात्रों को उनकी स्क्रीन के हवाले करके और किसी भी साथ संग से वंचित किया जा सकता है। विश्वविद्यालय का अगर कोई अर्थ है तो वह इस साथ संग और नज़दीकियों में है जो परिसरों में बनती हैं। 
अपूर्वानंद

एक तरफ़ छात्रों की गिरफ़्तारियों की ख़बर दिल्ली, अलीगढ़ और इलाहाबाद से आ रही है और दूसरी तरफ़ विश्वविद्यालय अपना सबसे सामान्य और अनिवार्य धर्म निभाने पर तुला हुआ है, यानी परीक्षा कार्य सम्पन्न करने का धर्म। बिना परीक्षा के शिक्षा की कल्पना कैसे की जा सकती है? हर सत्र के अंत में सांस्थानिक तौर पर जानना होता है कि जिस ज्ञान की योजना छात्र के लिए विश्वविद्यालय ने की थी उसका कितना संचय उसने किया है।

जो प्रत्येक समुदाय के लिए महाआपदा काल है, उसमें शिक्षण संस्थाएँ ऐसे बर्ताव कर रही हैं मानो उनके लिए यह शिक्षण पद्धति में नवाचार और प्रयोग का सुनहरा अवसर है। वे भाँति-भाँति के ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल कर रही हैं। एक प्रकार की उत्तेजना विश्वविद्यालय तंत्र में दिखलाई पड़ रही है। वह अतिशय सक्रिय हो उठा है। उसे हर अध्यापक से हर कक्षा का हिसाब चाहिए। वह भी इसलिए कि सरकार यह आँकड़ा इकट्ठा कर रही है। रोज़ाना परिपत्र जारी किए जा रहे हैं। क्या पढ़ाया गया, कितने छात्र शामिल हुए, क्या पाठ्य सामग्री छात्रों को दी गई, सबका हिसाब अध्यापकों को देना है। यह हिसाब मंत्रालय में जमा क्यों किया जाना है, यह प्रश्न किसी ने करना ज़रूरी नहीं समझा।

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

इस क्रम में एक चीज़ जो और भी ध्वस्त हुई है, वह है विश्वविद्यालय की  स्वायत्तता। मसलन, वह न तो मंत्रालय को और न विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को कह पा रहा है कि शिक्षण कार्य कैसे करें, कक्षा संचालन कैसे करें, यह हमारा मामला है और आप इसमें दख़लंदाज़ी न करें। लेकिन यह सोचना भी इन बेचारे हो चुके संस्थानों से दुस्साहस की अपेक्षा करना है। आयोग भी काफ़ी पहले, और वह इसी सरकार के चलते नहीं, मंत्रालय का एक डाकखाना भर बन कर रह गया है। और विश्वविद्यालय तो भूल ही चुके हैं कि वे सरकारी संस्थान नहीं हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय ने जिस तरह मंत्रालय के आदेश पर अपना चार साला स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम वापस लिया, वह इसका एक उदाहरण भर था कि विश्वविद्यालय किस तरह अपनी गरिमा भूल बैठे हैं और कितने दयनीय हो चुके हैं। फिर भी इस बात को याद रखना चाहिए कि औपचारिक रूप से अभी भी विश्वविद्यालय अपने रोज़मर्रा के काम आयोग के निर्देश पर करने को बाध्य नहीं हैं।

ऑनलाइन शिक्षण की परिणति ऑनलाइन परीक्षण में ही हो सकती थी। एक बार जब अध्यापकों ने पहली चीज़ मान ली तो दूसरी से बचना उनके लिए मुश्किल होगा। ऑनलाइन कक्षा की बात जब हम कर रहे थे तब भी हमें मालूम था कि इसमें छात्रों का एक बड़ा हिस्सा शामिल नहीं हो पाएगा। फिर भी इन कक्षाओं को संचालित करने का अर्थ था कि हम जानबूझ कर इन छात्रों को कक्षाओं से वंचित कर रहे हैं। कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि सामान्य दिनों में भी कई छात्र कक्षा से अनुपस्थित रहते हैं। लेकिन दोनों दो स्थितियाँ हैं। अभी तो यह जानते हुए किया गया कि इन कक्षाओं में वे छात्र अपनी आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण शामिल हो ही नहीं पाएँगे। यह उनके अधिकार का सीधा उल्लंघन था लेकिन यह विचारणीय भी नहीं माना गया।

अध्यापकों और छात्रों ने, जो इन ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल हुए, इससे जुड़ी परेशानियाँ बताईं। उन सबको नज़रंदाज़ करते हुए इसे जारी रखा गया मानो कोई बाधा ही नहीं है और ये परेशानियाँ मामूली हैं। मान लिया गया कि कक्षाएँ हो गईं और अब बस परीक्षा ली जानी है।

इसे अर्धसत्य या साफ़ असत्य के अलावा और कुछ कहा नहीं जा सकता। या सीधे-सीधे धोखाधड़ी। अध्यापक, छात्र और प्रशासन सबको मालूम है कि वे एक सामूहिक मिथ्या आचरण में हिस्सा ले रहे हैं। लेकिन यह भी हमारे लिए कोई नई बात नहीं। जिस किसी को भी ‘नैक’ के दौर की याद है, वह जानता है कि सांस्थानिक तौर पर मनगढ़न्त आँकड़े और विवरण कॉलेज या विश्वविद्यालय को श्रेष्ठ साबित करने के लिए दिए गए। वह एक सामूहिक अभिनय था जिसमें हर पात्र को मालूम था कि वह सत्य का अभिनय कर रहा है। चूँकि इसका अभ्यास हम कर चुके हैं, ऑनलाइन शिक्षण के मामले में भी इसका विस्तार करते हुए कोई संकोच नहीं हुआ। 

दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापकों के बहुमत से विरोध के बावजूद प्रशासन ने इम्तहान की तारीख़ों की घोषणा कर दी है हालाँकि वह आज के प्रशासन के हर निर्णय की तरह तदर्थ है। अध्यापक और छात्र दोनों को नहीं पता कि क्या होने वाला है। 

यही बहस महाराष्ट्र में चल रही है। विडंबना ही है कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कहा है कि परीक्षा की इतनी उतावली भी ठीक नहीं। पिछले सत्रों में तो इम्तहान हुए ही हैं। उनके अंकों के औसत के आधार पर छात्रों को अंक दिए जा सकते हैं और इस बार के लिए अगर वे चाहें तो सामान्य अवस्था की बहाली पर उन्हें दुबारा परीक्षा देने का अवसर दिया जा सकता है। लेकिन वहाँ कुलपतिगण परेशान हैं कि परीक्षा नहीं होने पर विश्वविद्यालय की गरिमा का क्या होगा! ऑनलाइन शिक्षण को लेकर पूरी दुनिया में आज से कोई 10 साल पहले से बहस चल रही है। इस महामारी के दौरान कक्षाओं के चलते रहने का भ्रम पैदा करना फिर उसी राष्ट्रीय झूठ में शामिल होना है जो अभी सरकारी तौर पर हर इलाक़े में बोला जा रहा है।

ऑनलाइन कक्षाएँ ही क्या शिक्षा का भविष्य है? इसपर अभी तयशुदा तौर पर कुछ कहना कठिन है। सरकारों के लिए यह मुँहमाँगी मुराद है। ख़र्चा कम करने के लिए और सामूहिकता से पैदा होनेवाले तरह-तरह के सर दर्द से बचने के लिए यह सबसे मुफ़ीद है।

छात्रों का कक्षा में मिलने से अधिक ख़तरनाक परिसर में मिलना जुलना है। कई साल पहले सैम पित्रोदा ने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक दीक्षांत समारोह में यही कहा था कि अब सब कुछ ऑनलाइन होना चाहिए और ज़रूरी नहीं कि हर देश में हर विश्वविद्यालय में हर विषय में अध्यापक हों। एक विषय में अगर कहीं पाँच अच्छे अध्यापक हैं तो फिर उनकी कक्षाएँ ऑनलाइन पूरी दुनिया में प्रसारित की जा सकती हैं। इससे शिक्षक पर होनेवाला अनावश्यक व्यय बचेगा।

परिसर वीरान किए जाएँगे?

उससे भी ज़्यादा, इस महामारी और उसकी आशंका के सहारे परिसरों को वीरान किया जा सकता है और छात्रों को उनकी स्क्रीन के हवाले करके और किसी भी साथ संग से वंचित किया जा सकता है। विश्वविद्यालय का अगर कोई अर्थ है तो वह इस साथ संग और नज़दीकियों में है जो परिसरों में बनती हैं। ये नई नज़दीकियाँ हमें उन्हें पहचानने में मदद करती हैं जिनके प्रति हमारे मन में तरह-तरह की धारणाएँ हैं। यह हमारे व्यक्तित्व का विस्तार है। दूसरे, विश्वविद्यालय बराबरी और इंसाफ़ के मूल्यों के प्रति भी आग्रह पैदा करते हैं। वे कवियों की तरह ही संवेदनाओं की नई संरचनाएँ गढ़ते हैं।

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आश्चर्य नहीं कि पिछले साल जब मुसलमान नागरिकता संशोधन क़ानून में न्यस्त भेदभाव के ख़िलाफ़ विरोध कर रहे थे तो उनका साथ छात्रों ने दिया। वे अपने हिंदूपन के साथ लेकिन उसका विस्तार करते हुए मुसलमानों की बराबरी की माँग को समझ पाए। अब उसकी सज़ा उनको दी जा रही है। परिसरों के विधाता चुप हैं। उन्होंने परिसर बंद कर दिया जब मज़दूरों को उनकी ज़रूरत थी। न तो राष्ट्रीय सेवा योजना और न नैशनल कैडेट कोर इस महामारी में अपनी भूमिका निभा सके। जब समाज को उनकी ज़रूरत थी, वे डर गए। लेकिन विश्वविद्यालयों की इस उदासीनता के बावजूद छात्र ख़ुद सड़क पर उतरे, हर जगह देखे गए। समाज से उन्होंने इंसानी और इंसाफ़ का रिश्ता बनाया। यह ऑनलाइन नहीं हो सकता था।

जो छात्र अभी महामारी में अपने हमवतनों की मदद कर रहे हैं, उनमें से कई जेल में डाले जा रहे हैं। और हम ऑनलाइन इम्तहान की बहस में उलझे हुए हैं।

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