एक तरफ़ छात्रों की गिरफ़्तारियों की ख़बर दिल्ली, अलीगढ़ और इलाहाबाद से आ रही है और दूसरी तरफ़ विश्वविद्यालय अपना सबसे सामान्य और अनिवार्य धर्म निभाने पर तुला हुआ है, यानी परीक्षा कार्य सम्पन्न करने का धर्म। बिना परीक्षा के शिक्षा की कल्पना कैसे की जा सकती है? हर सत्र के अंत में सांस्थानिक तौर पर जानना होता है कि जिस ज्ञान की योजना छात्र के लिए विश्वविद्यालय ने की थी उसका कितना संचय उसने किया है।
छात्र जेल में डाले जा रहे हैं तो विश्वविद्यालयों को ऑनलाइन इम्तहान की चिंता क्यों?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 1 Jun, 2020

इस महामारी और उसकी आशंका के सहारे परिसरों को वीरान किया जा सकता है और छात्रों को उनकी स्क्रीन के हवाले करके और किसी भी साथ संग से वंचित किया जा सकता है। विश्वविद्यालय का अगर कोई अर्थ है तो वह इस साथ संग और नज़दीकियों में है जो परिसरों में बनती हैं।
जो प्रत्येक समुदाय के लिए महाआपदा काल है, उसमें शिक्षण संस्थाएँ ऐसे बर्ताव कर रही हैं मानो उनके लिए यह शिक्षण पद्धति में नवाचार और प्रयोग का सुनहरा अवसर है। वे भाँति-भाँति के ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल कर रही हैं। एक प्रकार की उत्तेजना विश्वविद्यालय तंत्र में दिखलाई पड़ रही है। वह अतिशय सक्रिय हो उठा है। उसे हर अध्यापक से हर कक्षा का हिसाब चाहिए। वह भी इसलिए कि सरकार यह आँकड़ा इकट्ठा कर रही है। रोज़ाना परिपत्र जारी किए जा रहे हैं। क्या पढ़ाया गया, कितने छात्र शामिल हुए, क्या पाठ्य सामग्री छात्रों को दी गई, सबका हिसाब अध्यापकों को देना है। यह हिसाब मंत्रालय में जमा क्यों किया जाना है, यह प्रश्न किसी ने करना ज़रूरी नहीं समझा।