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प्रेमचंद को हिंदुओं में सहिष्णु नेताओं की कमी क्यों दिखलाई पड़ी थी?

मुंशी प्रेमचंद का जन्म 1880 में 31 जुलाई को वाराणसी के पास लमही गांव में हुआ था। जानिए, राष्ट्रीय आंदोलन में मुसलिमों की भूमिका के बारे में प्रेमचंद की क्या राय थी। प्रो. अपूर्वानंद ने दो साल पहले टिप्पणी लिखी थी। 
अपूर्वानंद

प्रेमचंद जयंती हिंदी भाषी कहे जानेवाले इलाक़ों में आज भी तुलसी जयंती के बाद सबसे लोकप्रिय सांस्कृतिक अवसर है। हालाँकि यह मालूम होता है कि कम से कम बिहार में अब तुलसी जयंती का रिवाज घट रहा है। हमारी किशोरावस्था तक तुलसी जयंती स्कूल-स्कूल में मनाई जाती थी। निबंध, भाषण के अलावा मानस अंत्याक्षरी प्रतियोगिताएँ होती थीं। अपने बड़े भाई के साथ मैंने कई वर्षों तक सीवान के अलग-अलग स्कूलों में ऐसे आयोजनों में भागीदारी करके मानस, कवितावली, दोहावली के अलग-अलग प्रकार के, यानी गुटका से लेकर बृहद संस्करणों की बीसियों प्रतियाँ इकट्ठा कर ली थीं। यह एक बड़ा सांस्कृतिक अवसर हुआ था और सावन का महीना इसके लिए निश्चित था। इस्लामिया स्कूल से लेकर डी ए वी स्कूल तक इसका इंतज़ार रहता था। क्या यह संयोग है या तर्क संगत ही है कि जैसे-जैसे बाबरी मस्जिद की जगह को राम की जन्मभूमि कहकर उसे हथियाने का अभियान तेज हुआ वैसे-वैसे तुलसी जयंती में सामाजिक रुचि घटती गई?

युवा शोधार्थी अमन कुमार राम कथा की जन व्याप्ति पर शोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि 50 साल से कम उम्र के लोगों में राम चरित मानस से परिचय पहले के मुक़ाबले बहुत कम पाया जाता है।

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तुलसी के बाद प्रेमचंद अभी भी ऐसे एक लेखक हैं जिन्हें 31 जुलाई को, यानी उनकी जयंती के रोज़ स्कूल, कॉलेज और बाहर भी याद करनेवाले तक़रीबन हर शहर, क़स्बे, गाँव में मिल जाते हैं। हिंदी पढ़नेवालों को उनकी कोई न कोई कहानी याद है, किसी न किसी पात्र से उनकी आत्मीयता है, किसी न किसी में उन्हें अपनी, अपने आस पास के किसी की या किसी परिस्थिति की छाया दीख जाती है। प्रेमचंद को पढ़कर बहुतों का जीवन में यक़ीन बहाल होता है। बहुत कम लेखक ऐसे होते हैं जो इतनी दूर तक और इतने रूपों में अपने पाठकों का साथ देते हैं।

प्रेमचंद में उनके पाठकों की दिलचस्पी रस्मी नहीं है और इसकी वजह यही हो सकती है कि ख़ुद प्रेमचंद की ज़िंदगी में और लोगों में सच्ची और गहरी दिलचस्पी है। वे विचारों के नहीं, इंसानों और जीवन के लेखक हैं। उनके प्रिय जैनेंद्र को मौक़ा मिलता तो वे ‘गोदान’ की भीड़ कुछ कम कर देते, उसका लस्टम पस्टमपन दूर कर देते। लेकिन प्रेमचंद तो मात्र होरी की त्रासदी दिखलाने के लिए ‘गोदान’ का इतना विराट आयोजन नहीं कर रहे थे। बिना झुनिया, सिलिया, मातादीन, भोला, सहुआइन, मिर्ज़ा, पंडित ओंकारनाथ के ज़िंदगी का मेला कैसे सजता? जीवन सिर्फ़ ‘ज़रूरी’ और ‘उपयोगी’ का ही तो व्यापार नहीं है!

वैसे ही ईदगाह सिर्फ़ हामिद नामक एक गरीब बच्चे की अपनी दादी से लगाव और उसके चलते बचपन की क़ुर्बानी की कहानी नहीं है। वह बच्चों के खिलौनों से लगाव की कहानी भी है। वरना भिश्ती, सिपाही, वकील के विनोदपूर्ण वर्णन में प्रेमचंद यों ही वक्त क्यों ज़ाया करते! क्यों हामिद इन सबको एक एक कर अपने हाथ लेता!

प्रेमचंद चतुर और क्रूर ग्रामीण समाज के बीच जूझ रहे लोगों के जीवन संघर्ष की कथा लिखते हैं लेकिन यह सब कुछ जीवन में आशा जगाने के मक़सद से। प्रेमचंद जीवन की प्यास जगाते हैं।

प्रेमचंद की कहानियाँ और उपन्यास काफ़ी हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी पाठक उन्हें याद रखें। लेकिन आज के वक़्त विचारक प्रेमचंद को याद रखने की और ज़रूरत है। यह इसलिए कि प्रेमचंद से न्याय का पक्ष चुनने में कभी ग़लती नहीं होती।

उन्हें इसे लेकर भी कभी संकोच और उलझन नहीं हुई कि उन्हें एकपक्षी कहा जा सकता है। दूसरे, सामाजिक जीवन कैसा हो, इसके बारे में भी प्रेमचंद के विचार आज के भारत को राह दिखाते हैं।

आज से 90 साल पहले प्रेमचंद ने ‘नवयुग’ शीर्षक लेख लिखा। मार्च, 1931 में प्रकाशित यह लेख कानपुर में हुए हत्याकांड के बाद लिखा गया था। उसके पहले काशी में हिंसा हो चुकी थी। यह हिंदू -मुसलमान हिंसा का एक और दौर था। राष्ट्रीय आंदोलन में हिंदुओं और मुसलमानों की भागीदारी कैसी हो, किस तरीक़े से मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन में साथ लेकर चला जाए, इस सवाल पर प्रेमचंद ने एकाधिक बार लिखा।

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

हिंसा के इस दौर के बाद, जिसमें मुसलमानों की भूमिका में शक न था, प्रेमचंद ने इस स्थिति के लिए उन्हें पूरी तरह ज़िम्मेदार नहीं ठहराया। उन्होंने इसके लिए राष्ट्रीय नेताओं को क़सूरवार ठहराया कि उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन को शुरू करने के पहले मुसलमानों की उसमें शिरकत के लिए उनसे क़ायदे से बात न की। इस हिंसा से यही मालूम होता है कि, “मुस्लिम भाइयों को अपने साथ न ले चलने में हमने भूल की। …बग़ैर आपस में समझौता किए हुए सत्याग्रह आंदोलन का सूत्रपात कर देना हमारे मुस्लिम भाइयों को अप्रिय ही नहीं लगा, उसमें कुछ संदेह भी पैदा किया।”

सत्याग्रह के उद्देश्य का ठीक होना भर ही इसकी दलील नहीं कि हर कोई उसमें शामिल हो ही जाए। क्या उसे तय करने में मुसलमानों की भागीदारी को ज़रूरी माना गया? प्रेमचंद ने लिखा कि सत्याग्रह के सही उद्देश्य और बाद में आंदोलन की सफलता से भी यह बात सही नहीं हो जाती कि मुसलमानों को आंदोलन के निर्णय के समय शामिल नहीं किया गया। आख़िर उसका फ़ैसला तो उनके बिना ही लिया गया न? फिर वे उससे लगाव क्योंकर महसूस करें?

प्रेमचंद ने लिखा, “इधर राष्ट्रीय आंदोलन की आशातीत सफलता ने बहुत सम्भव है, हमें अनम्र बना दिया हो, हम यह समझने लगे हों कि मुसलमानों की सहायता के बग़ैर भी हम बहुत कुछ कर सकते हैं।” प्रेमचंद इस प्रवृत्ति को घातक मानते हैं। आगे लिखते हैं, “

…हम कहने से बाज नहीं रह सकते कि कांग्रेस ने मुसलमानों को अपना सहायक बनाने की ओर उतनी कोशिश नहीं की जितनी करनी चाहिए थी। वह हिंदू सहायता प्राप्त करके ही संतुष्ट रह गई।


प्रेमचंद के लेख का एक अंश

आगे प्रेमचंद जो लिखते हैं, वह सिर्फ़ राष्ट्रीय आंदोलन के संदर्भ में ही सही नहीं, वह सामूहिक जीवन और निर्णय की पद्धति का निदर्शन है: “भारत में हिंदू बाईस करोड़ हैं। बाईस करोड़ अगर कोई काम करने का निश्चय कर लें तो उन्हें कौन रोक सकता है? हिंदुओं में इसी मनोवृत्ति ने प्रधानता प्राप्त कर ली।”

अपनी संख्या के दंभ में समाज के एक महत्त्वपूर्ण अंग की उपेक्षा सभ्यता नहीं है। कानपुर में दंगा शुरू होने का एक कारण था मुसलमानों पर दूकान बंद करने के लिए दबाव डालना : “हम तो यहाँ तक कहेंगे कि किसी पर दूकान बंद करने के लिए दबाव डालना और समाज के एक मुख्य अंग का सहयोग प्राप्त किए, पिकेटिंग करना भी वांछनीय न था।”

जो सिद्धांत प्रेमचंद राष्ट्रीय आंदोलन के लिए स्थिर कर रहे थे, वह स्वाधीन भारत के लिए भी उतना ही आवश्यक है। क्या यहाँ कोई भी क़ानून या क़ायदा ऐसा बनाना मुनासिब है जिसमें आबादी के 20% मुसलमानों का कोई ख़याल न किया जाए?

क्या यह कहकर कि बहुसंख्या की रज़ामंदी है, अल्पसंख्यक मत को नज़रंदाज़ कर दिया जाएगा? पिछले दिनों जिस तरह के क़ानून बनाए गए हैं, यहाँ तक कि अदालतों ने भी जो फ़ैसले सुनाए हैं, उनमें यह विचार बिल्कुल नहीं किया गया है कि उनके बारे में मुसलमान क्या सोचते हैं।

प्रेमचंद ही वह लेख लिख सकते थे जिसका शीर्षक है, ‘मनुष्यता का अकाल’। इसमें फिर बिना लाग लपेट के वे कहते हैं, “हिंदू क़ौम कभी अपनी राजनीतिक उदारता के लिए मशहूर नहीं रही।” जब वे यह लेख लिख रहे थे, शुद्धि और संगठन का ज़ोर था। प्रेमचंद कांग्रेस की आलोचना करते हैं कि उसके नेता व्यक्तिगत रूप से इनमें भाग लेते रहे हैं। वे मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं की भी आलोचना करते हैं कि उनमें शुद्धि और संगठन के विरोध का साहस नहीं है: “…जिनसे ज़्यादा नैतिक साहस से काम लेने की आशा की जा सकती थी, मगर इन सभी लोगों ने एक रोज़ अपने विरोध और आशंका को व्यक्त करके दूसरे रोज़ उसका खंडन कर दिया और डंके की चोट पर यह कहा कि शुद्धि और संगठन के बारे में हमने जो ख़याल ज़ाहिर किया था वह ग़लतफ़हमियों पर आधारित था। जब ऐसे-ऐसे लोग दबाव में आ जाएँ तो फिर इंसाफ़ की उम्मीद किससे की जाए।”

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प्रेमचंद इंसाफ़ का रास्ता लेते हैं। इस मामले में उनमें और गाँधी में अद्भुत साम्य है, “गौकशी के मामले में हिंदुओं ने शुरू से अब तक अन्यायपूर्ण ढंग अख़्तियार किया है। हमको अधिकार है कि जिस जानवर को चाहें पवित्र समझें लेकिन यह उम्मीद रखना कि दूसरे धर्म को माननेवाले उसे वैसा ही पवित्र समझें, ख़ामख़ाह दूसरों से सर टकराना है। गाय सारी दुनिया में खाई जाती है, इसके लिए क्या आप सारी दुनिया को गर्दन मार देने के क़ाबिल समझेंगे?”

आगे उनका लहजा और सख़्त हो जाता है, “अगर हिंदुओं को अभी यह जानना बाक़ी है कि इंसान किसी हैवान से कहीं ज़्यादा पवित्र प्राणी है, चाहे वह गोपाल की गाय हो या ईसा का गधा, तो उन्होंने अभी सभ्यता की वर्णमाला भी नहीं समझी।”

गाय को लेकर हिंदुओं के शोरगुल को पाखंड बतलाते हुए भी प्रेमचंद को झिझक नहीं है: 

गोरक्षा के सारे हो हल्ले के बावजूद हिंदुओं ने गोरक्षा का ऐसा कोई सामूहिक प्रयत्न नहीं किया जिससे उनके दावे का व्यावहारिक प्रमाण मिल सकता। गौरक्षिणी सभाएँ क़ायम करके धार्मिक झगड़े पैदा करना गो रक्षा नहीं है।


प्रेमचंद के लेख का एक अंश

तबलीग और शुद्धि को प्रेमचंद एक नहीं मानते। एक का उद्देश्य धर्म प्रचार है लेकिन दूसरा संख्या भय पैदा करनेवाला प्रतिक्रियावादी कदम है। शुद्धि का उद्देश्य धार्मिक नहीं, राजनीतिक है। इसलिए प्रेमचंद यह मानने को तैयार नहीं कि हिंदू ख़तरे में हैं। हिंदू संगठन की ज़रूरत नहीं।

इसी लेख में वे स्पष्टता से लिखते हैं, “हिंदू और मुसलमान न कभी दूध और चीनी थे, न होंगे और न होने चाहिए। दोनों की अलग-अलग सूरतें बनी रहनी चाहिए और बनी रहेंगी। ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की है कि उनके नेताओं में परस्पर सहिष्णुता और उत्सर्ग की भावना हो।”

90 साल पहले प्रेमचंद को हिंदुओं में सहिष्णु नेताओं की कमी दिखलाई पड़ रही थी। नेता अधिक ऐसे थे जो “अपने संप्रदाय के लोगों की दृष्टि में लोकप्रिय बनने के लिए उनकी भावनाओं को उकसाते रहते हैं…। हमारा नेता ऐसा होना चाहिए जो गंभीरता से समस्याओं पर विचार करे। मगर होता यह है कि उसकी जगह शोर मचानेवालों के हिस्से में आ जाती है जो अपनी ज़ोरदार आवाज़ से जनता की गंदी भावनाओं को उभाड़कर उन पर अपना अधिकार जमा लिया करते हैं।”

अगर हम प्रेमचंद को आज याद करना चाहते हैं तो हमें भी इतने ही बेलाग तरीक़े से कहना ही होगा कि वे कौन नेता हैं जो जनता की गंदी भावनाओं को भड़का कर उनपर अपना अधिकार जमा रहे हैं।

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