ख़बर देखी कि मध्य प्रदेश कांग्रेस पार्टी के दफ़्तर में भोपाल पुलिस पहुँची क्योंकि उसे ख़बर मिली थी कि पार्टी के कार्यकर्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख को राष्ट्र ध्वज भेंट करने जानेवाले हैं। उन्हें यह असुविधा न हो, इसके लिए वह कांग्रेस पार्टी के सदस्यों को रोकने के ख़याल से वहाँ पहुँची।
कांग्रेस के सदस्य घोषणा करके सिर्फ़ तिरंगा झंडे के साथ आरएसएस के कार्यालय जानेवाले थे, किसी हथियार के साथ उन पर हमला करने नहीं। अगर मोहन भागवत उनसे वह तिरंगा ग्रहण करते तो छवियों के आज के संसार में यह एक चर्चा के लायक छवि बनती।
क्या यह दृश्य सौहार्द का होता? या इसकी व्यंजना से घबराकर ही पुलिस ने कांग्रेसी सदस्यों को रोका? वह व्यंजना कई दिशाओं में जा सकती थी।
क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से यह माँग करना उचित है कि वह राष्ट्र ध्वज से अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करे? जो बार बार यह कह रहे हैं और ऐसा अब तक न करने के लिए उस पर आक्रमण कर रहे हैं, उन्हें विचार करने की आवश्यकता है कि क्या ऐसा करना उचित है?
हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य
भारत के राष्ट्र ध्वज का जो राष्ट्र है, वह धर्मनिरपेक्ष है। लेकिन आरएसएस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के सिद्धांत में यक़ीन नहीं करता। उसका लक्ष्य हिंदू राष्ट्र है। उसने अपनी कल्पना में हिंदू राष्ट्र का प्रतीक भगवा ध्वज को बनाया है। स्वाभाविक है कि उसके लिए भगवा ध्वज सर्वोपरि है। घर घर तिरंगा के नारों के बीच कुछ महीना पहले कर्नाटक में भाजपा के एक मंत्री के बयान को भूल न जाइए । उन्होंने अपनी जनता को विश्वास दिलाया कि आज या कल भगवा ध्वज ही भारत का राष्ट्र ध्वज होगा।
भगवा ध्वज अभी आरएसएस का ध्वज है। कल वह पूरे भारत का होगा, इसी इच्छा के साथ रोज़ाना भगना ध्वज वंदना के साथ शाखाएँ लगाई जाती हैं। इसी ध्वज के सामने वार्षिक गुरु दक्षिणा भी अर्पित की जाती है। इसे त्यागने का मतलब है संघ का, वह जिस रूप में अभी है समाप्त हो जाना। वह उसके अस्तित्व तर्क से जुड़ा है। तिरंगा इस राष्ट्रवाद के विरुद्ध धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के तर्क का प्रतीक है। क्या दोनों साथ रह सकते हैं? क्या हमें ऐसा करने के लिए संघ को बाध्य करना चाहिए?
जिस संगठन की सारी गतिविधियाँ भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को ख़त्म कर देने के हिसाब से तय की जाती हैं, उसे तिरंगा अपनाने को कहना या बाध्य करना कितना उचित है?
लेकिन क्या धार्मिक संगठनों, मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों को भी हम राष्ट्र ध्वज फहराने के लिए कहेंगे? क्योंकि धर्म तो राष्ट्रीय सीमाओं से परे होते हैं बावजूद इसके कि आरएसएस के समर्थक हिंदुओं ने हिंदूपन को भारतीयता तक सीमित कर दिया है। उनके अनुसार हिंदू भाव और भारत भाव समानार्थी हैं।
लेकिन धर्म की व्याप्ति तो ब्रह्मांडीय है। राष्ट्र तक उसे क्यों सीमित करना? जो भी ऐसा करते हैं, उनका उद्देश्य धार्मिक नहीं, सांसारिक होता है, यह समझना कठिन नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए भी हिंदू मात्र सांसारिक और संख्यात्मक अवधारणा है। हिंदूपन नहीं, हिंदू संख्या अधिक महत्त्वपूर्ण है।
यह कम दिलचस्प नहीं है कि जो आरएसएस हर किसी को अपनी शेष पहचान राष्ट्र में विलीन कर देने को कहता है, वह राष्ट्र जो हिंदू है; वह भारतीय अमेरिकी को सिर्फ़ अमेरिकी नहीं कहना चाहता। भारतीय या हिंदू विशेषण अनिवार्य है। उससे अपने क्षेत्र विस्तार का बोध होता है। यह एक प्रकार का विस्तारवाद है। इस पर भी सोचना ज़रूरी है कि जो लोग भारतीय के आगे मात्र हिंदू विशेषण के अलावा किसी और विशेषण से आप पर संदेह करने लगते हैं, उनसे अमेरिका या यूरोप में ऐसी माँग तो नहीं की जाती। दक्षिण एशियाई अमेरिकी, अफ्रीकी अमेरिकी, पाकिस्तानी अमेरिकी कहने के कारण क्या किसी के अमेरिकी होने पर संदेह किया गया है?
आरएसएस को लेकर कोई भ्रम नहीं उत्पन्न करना चाहिए। अभी भी अनेक हिंदू हैं जिनके लिए तिरंगा सहिष्णुता, खुलेपन, उदारता, विविधता के भावों के साथ जुड़ा हुआ है। वे आरएसएस से सहमत नहीं। उन्हें किसी तरह भ्रम में नहीं डालना चाहिए कि संघ तिरंगा के विचार से किसी रूप में सहमत है और इसलिए उसे स्वीकार किया जा सकता है।
इससे अलग, आज के उत्तेजनापूर्ण क्षण में हमें भारतीय जनता पार्टी की तरह का व्यवहार नहीं करना चाहिए। तिरंगा किसी को उघाड़ने, ख़ुद को श्रेष्ठ ठहराने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। किसी को लज्जित करने के लिए, नीचा दिखलाने के लिए तिरंगे का इस्तेमाल ख़ुद शर्म की बात है।
तिरंगा आज जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा, अल्पसंख्यक, ख़ासकर मुसलमानों और ईसाइयों के अधिकारों के लिए संघर्ष का प्रतीक बन सकता है या नहीं? यह प्रश्न हमें ख़ुद से करना है। तभी उसका कोई अर्थ है। और अगर वह इस संघर्ष का झंडा है तो फिर हम, किसी भी मक़सद के लिए, आरएसएस से कैसे कह सकते हैं कि वह इसे स्वीकार करे? फ़र्ज़ कीजिए, अपने स्वभाव के अनुसार वह ऐसा कर ले क्योंकि वह रणनीतिक रूप से कुछ भी कर सकता है तो जो यह जिद कर रहे हैं, वे क्या मान जाएँगे कि वह तिरंगा के मूल्यों को भी मानता है?
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