कवि अशोक वाजपेयी ने दिल्ली ने आयोजित होने वाले एक साहित्य उत्सव में भाग लेने से इंकार कर दिया क्योंकि आयोजकों ने उन्हें इशारा किया था कि बेहतर हो अगर उनकी कविताएँ राजनीतिक न हों और उनमें इस सरकार की आलोचना न हो।अशोकजी कौन सी कविता पढ़ते और वह सीधे इस सरकार की आलोचना होती या नहीं, कहना मुश्किल है क्योंकि कवि एक तरह की कविताएँ ही नहीं लिखता। संभव है , उसकी अन्यत्र सार्वजनिक मुखरता से नितांत भिन्न स्वभाव उसकी रचनाओं का हो। प्रेम, प्रकृति, मानवीय संबंधों की गुत्थियाँ और ख़ुद इंसान के मन की उथल पुथल: यह सब कुछ है जो कविताओं का विषय हो सकताहै। राजनीतिक रूप से सक्रिय कवि संभव है, अत्यंत अंतर्मुखी कविताएँ लिखे।आप अचरज में पड़ जाएँ कि क्या दोनों एक ही व्यक्ति हैं?
हम यह भी जानते हैं कि कविता सिर्फ़ उसके विषय में नहीं। बल्कि कवि का एक दायित्व यह भी है कि जब यह ख़तरा पैदा हो जाए कि राजनीति जीवन के सारे प्रसंगों को आक्रांत कर लेगी तो उन्हें जीवित रखने का काम वह करे। जैसे कार्ल मार्क्स ने बतलाया कि मनुष्य मात्र आर्थिक प्राणी नहीं है और पूँजीवाद से उसके मनुष्यत्व को ही बचाया जाना है , वैसे ही कहा जा सकता है कि मनुष्य मात्र राजनीतिक प्राणी नहीं है। राजनीति उसे निगल न ले, उसकी मनुष्यता को पूरी तरह हड़प न कर ले, कवि की एक चिंता यह भी है। संभव है, वह राजनीति से प्रतिशोध लेने के लिए अपनी कविता से उसे पूरी तरह बहिष्कृत ही कर दे।
यह मुमकिन था कि साहित्य से बाहर की दुनिया में आजकल बहुसंख्यकवादी भारतीय जनता पार्टी की सरकार के ख़िलाफ़ अपने रुख़ के कारण जाने जाने वाले अशोक वाजपेयी की कविता सुनकर उनका विरोध करने आए हुड़दंगी (अगर वे आते तो) और ख़ुफ़िया पुलिस के लोग निराश हो जाते।लेकिन आयोजक भी तो राजनीतिक प्राणी ही ठहरे।आयोजन वे साहित्य का कर रहे हों लेकिन इससे वे कवि के पूरेपन को समझ पाएँगे, ज़रूरी नहीं। कविता पढ़ने से ज़्यादा वे शायद कवियों के वक्तव्य पढ़ते हों। संभव है इसी कारण आशंकित होकर उनमें से किसी ने सावधानी के तौर पर अशोक जी को कुछ ऐसी कविता पढ़ने का संकेत किया हो जो उनके सार्वजनिक वक्तव्यों जैसी न हो।
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यह इशारा एक विनम्र सेंसर था और अशोकजी इसे ताड़ गए। सेंसरशिप को मान लेना रचनाकार के स्वभाव के ख़िलाफ़ है। उचित ही उन्होंने आयोजन में हिस्सा लेने से मना कर दिया। यह बात उन्होंने अपने तक नहीं रखी, यह भी ठीक किया। लेकिन आयोजकों ने अशोक जी को लगभग झूठा ठहराया। यह कहकर कि उनसे सिर्फ़ विषय पूछा गया था ताकि परिचय में उसका उल्लेख किया जा सके। जिस अवस्था में अशोक जी हैं, उन्हें यह करने की कोई आवश्यकता नहीं। वे पर्याप्त प्रसिद्ध हैं और खबर में बने रहने की व्याकुलता के कारण इस प्रकार के वक्तव्य दें, यह सोचना ही हास्यास्पद है।
समाज को यह जानना ज़रूरी है कि जो ख़ुद को अभिव्यक्ति कहकर जो गौरवान्वित करता है, वह वास्तव में अभिव्यक्ति का निषेध है। वह कहीं अधिक ख़तरनाक है पूरी चुप्पी से। इस कारण कि यह भ्रम बना रहता है कि समाज में बोलने की आज़ादी है जबकि वह आज़ादी से अधिक कुछ न बोलने की बाध्यता है। कुछ वक्त पहले की बात है, हमने अमर्त्य सेन से एक संवाद का आयोजन प्रस्तावित किया। विषय था ‘ पॉपुलिज़्म का उभार’। इसे दिल्ली के एक प्रतिष्ठित संस्थान में आयोजित करने का इरादा था। संस्थान के प्रतिनिधि ने यह जानना चाहा कि वे सरकार की आलोचना तो नहीं करेंगे!
कहा गया कि विश्व में जो ‘पॉपुलिज़्म’ बढ़ रहा है,उसके बारे में सेन साहब व्यापक दृष्टि से बोल सकते हैं।उन्हें ख़ुद को भारत तक क्यों सीमित रखना! कहने की ज़रूरत नहीं कि संवाद कहीं और किया गया। यह ख़याल कि सेन साहब को यह कहा भी सकता है, ख़ासी हिमाक़त की बात थी। उतनी ही हिमाक़त की बात थी अशोक वाजपेयी को इशारा करना कि इस सत्ता की आलोचना वाली कविताओं से परहेज़ करें।
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यह सोचा ही जा सका,इससे समझ में आता है कि भारत में माना जाने लगा है कि समझदार लोग अपनी हदें पहचान ही लेंगे। वे अपने अलावा अपने मेजबान की सीमा का भी लिहाज़ करेंगे, यह उम्मीद की जाती है। अभिव्यक्ति अब सीमित अभिव्यक्ति है! कई लोगों को इस प्रकार का इशारा करने की आवश्यकता भी नहीं। वेख़ुद ही वक़्त की नज़ाकत समझते हुए क्या बोलना मुनासिब है, यह तय कर लेते हैं।
समाज को बतलाया जाना आवश्यक है कि उसे क्या नहीं सुनने, पढ़ने या देखने दिया जा रहा है। जो सुनने, देखने या बोलने नहीं दिया जा रहा है, वही सुनना, देखना, बोलना उस समय ज़रूरी है।2008 में दिल्ली में ‘इंडिया आर्ट समिट’ का आयोजन शुरू हुआ।इस दावे के साथ कि यह भारत की कला का प्रतिनिधि मंच है।लेकिन आयोजकों ने मक़बूल फ़िदा हुसेन के चित्र प्रदर्शित करने से मना कर दिया। इसलिए कि इसे लेकर हिंदुत्ववादियों ने धमकी दी थी। आयोजकों ने कहा कि जब तक सुरक्षा की गारंटी न हो, वे हुसेन की कलाकृतियों को प्रदर्शित करने का ख़तरा मोल नहीं सकते।
लेकिन कला मेला हुसेन के बिना हुआ। आयोजक यह नहीं कह पाए कि बिना हुसेन के हम यह कला मेला नहीं करेंगे।आयोजकों के साथ बाक़ी कलाकारों ने भी अफ़सोस किया।लेकिन भारत में कला है, वह सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शित की जा सकती है, यह दिखलाने से वे ख़ुद को रोक नहीं पाए। कला हुसेन के बिना भी भारत में संभव है। भारत में कला का आनंद लिया जा सकता है आप भले हुसेन को न देख पाएँ, यही तो साबित हुआ।
एक अभिव्यक्ति है जो सुरक्षित है जबकि दूसरी निर्वासित। क्या पहली क़िस्म की अभिव्यक्ति की सुरक्षा उसके लिए लज्जा का विषय नहीं होना चाहिए? वैसे ही जैसे बर्तोल्त ब्रेख़्त ने लिखा था कि मारे गए लोग बच गए लोगों से पूछते हैं कि हम मारे गए लेकिन तुम बचे रह गए! यह बचा रह जाना ही शर्म की बात है।
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ख़ुदकुशी नहीं की जा सकती, जब क़त्लेआम हो रहा हो तो ख़ुद को क़ातिल के हवाले नहीं किया जा सकता। लेकिन जो मनुष्यों के संदर्भ में ठीक है, वही अभिव्यक्तियों पर भी लागू होता है? जब एक कवि कविता न पढ़ सके तब दूसरों का कविता पढ़ना क्या ख़ुद उनका अपना अपमान नहीं? जिस प्रदर्शनी में एक कलाकार बाहर कर दिया जाए उसमें बाक़ी का शामिल होना क्या है?
लेखक आशुतोष भारद्वाज ने हाल में नागपुर के साहित्य उत्सव के बारे में बतलाया कि उसमें तीन सुविधाजनक लेखकों को आयोजकों ने आने से मना कर दिया। उन्होंने भी आयोजकों की‘मजबूरी’समझी और इसे सार्वजनिक मुद्दा नहीं बनाया। लेकिन जिन्होंने आयोजकों पर दबाव डाला था कि वे इन लेखकों को नहीं बुलाएँ, उन्हें आयोजक यह नहीं कह पाए कि फिर हम आयोजन ही रद्द कर देते हैं। वे अपने श्रोताओं को भी नहीं कह पाए कि इन लेखकों के बिना वे साहित्य उत्सव नहीं कर सकते। उन्होंने यह भी नहीं बतलाया कि कुछ घोषित नाम क्यों नहीं आए। इस तरह उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भ्रम बनाए रखा जबकि सेंसरशिप ने उनके उत्सव को विकृत कर दिया था।
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जिसे बहिष्कृत किया जा रहा हो, वही उस क्षण सबसे महत्त्वपूर्ण है,अनिवार्य है। उसका होना ही उस वक्त होना है। उसके अलावा बाक़ी सब होने का भुलावा है। अशोक वाजपेयी ने कविता के भ्रम का सुख श्रोताओं को देने से इंकार करके ठीक ही किया।
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