गुजरात में मोरबी के झूलते पुल का टूटना और 141 से ज्यादा लोगों का डूबकर मर जाना क्या ईश्वर की इच्छा थी? इस हादसे के बाद गुजरात और भारत में जो खामोशी है, उससे कुछ ऐसा ही लगता है कि हमने इसे ईश्वरीय प्रकोप मान लिया है जिसके आगे इंसान बेबस था। जैसे कोई भूकंप हो या तूफ़ान जिस पर आदमी का कोई बस नहीं।लेकिन पहले हम भाषा ठीक कर लें। मोरबी में जो हुआ उसे सामूहिक हत्या कहना अधिक मुनासिब है। और इसके अपराधी भी जाने हुए हैं।
मोरबी पुल तो एक रूपक है!
- वक़्त-बेवक़्त
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- 7 Nov, 2022

सत्ता को जवाबदेह बनाने के काम में आधुनिक समाजों के जन संचार माध्यम भूमिका निभाते हैं। मोरबी के हादसे के बाद उन्होंने जो किया वह घिनौना ही कहा जा सकता है। कई टीवी चैनलों ने इसके लिए जनता को जिम्मेदार ठहरा दिया। उनके मुताबिक हिला हिलाकर लोगों ने पुल तोड़ दिया।
लोग पूछ सकते हैं कि आख़िर यह हत्या कैसे है। कुछ लोगों के मुताबिक़ पुल पर उसकी सँभालने की ताक़त से ज़्यादा लोग थे। पुल उनका वजन बर्दाश्त न कर सका। टूट गया और उस पर खड़े लोग पुल के साथ ही नदी में गिर गए। उसमें डूबने की वजह से उनकी मौत हुई। इसे हत्या कहना क्या नाटकीय अतिशयोक्ति नहीं है?
लेकिन हम सिर्फ़ पुल टूटने के क्षण तक ख़ुद को सीमित न रखें। पुल तो टूटने का इंतज़ार कर रहा था। वह उस दिन न टूटता तो किसी और दिन उसका टूटना तय था। वह इसलिए नहीं टूटा कि उस पर ज़्यादा लोग थे। वह इसलिए टूटा कि उसकी मरम्मत के नाम पर सिर्फ़ रंग रोगन से काम चला लिया गया था। उसके तार भी नहीं बदले गए थे। उन्हें सिर्फ़ रंग दिया गया था।