एक और हफ्ता गुज़र गया। पौ फटने की वेला है। कोयल की कूक सुन पा रहा हूँ। गिलहरी की बेचैन चूँ-चूँ। कई महीनों में पहली बार एम्बुलेंस के सायरन की आवाज़ों से अबाधित। तो क्या हम दुःस्वप्न के दूसरे छोर पर हैं?
इस संक्रमण ने बहुत महँगी सीख दी, क्या लोग याद रख पाएँगे?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 7 Jun, 2021

कहा भी जाता है कि आपदा में ही किसी के चरित्र की पहचान या परख होती है। स्वतः सहायता या सेवा का भाव किसमें है और किसे उसके लिए बहुत कोशिश करनी पड़ती है फिर भी वह सेवा की प्रदर्शनी होकर ही रह जाती है? जब केंद्र सरकार ने अपनी पीठ मोड़ ली तो समाज से कौन ख़ुद ब ख़ुद सामने आए?
दिल्ली, मुंबई, पटना, लखनऊ, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरु, शहर जैसे अब राहत की साँस ले पा रहे हैं। लेकिन हमें गाँवों की ख़बर अभी भी पूरी तरह नहीं है। बिहार में खगड़िया के एक गाँव से मेरे युवा मित्र नील माधव बताते हैं कि अब जाकर लोग कुछ समझ पाए हैं कोरोना महामारी की गंभीरता को। लेकिन शादी-ब्याह, मुंडन का सिलसिला जारी है। लोग भोज भात को जमा होते हैं। दो-चार को ‘सर्दी-बुखार’ होता है। मौतें होती हैं। फिर श्राद्ध का भोज होता है। फिर दो चार को सर्दी-बुखार होता है। और फिर मौतें होती हैं। यह मृत्यु का दुष्चक्र है।