भाषा फिर से चर्चा में है। यह किसी समाज और देश के स्वास्थ्य की निशानी हो सकती है अगर वह सचमुच भाषा के मुद्दों पर बात कर रहा हो। मसलन किसी भाषा में अभिवादन के क्या नियम हैं, क्यों हरियाणवी सुनकर मैथिली भाषी पहली बार सदमे में चले जाते हैं और क्यों उनकी प्रतिक्रिया से हरियाणवी हैरान रह जाते हैं! मुझे शाहपुर जाट के अपने मकान मालिक के साथ अपनी पत्नी पूर्वा का एक संवाद याद है। पानी ख़त्म हो गया था। जैसा दिल्ली के ऐसे इलाक़ों में क़ायदा है, मकान मालिक मानते हैं कि किरायेदारों ने ही पानी बहा दिया होगा। सो, हमारे मकान मालिक आए और उन्होंने पूर्वा को अपने ख़ास अन्दाज़ में कहा, “पानी ख़त्म! अब थूक से नहाना!” पूर्वा के कान इस क़िस्म के संवाद के आदी न थे। आँखों में अपमान के मारे पानी भर आया। अब भले आदमी, हमारे मकान मालिक के घबराने की बारी थी। वह माफ़ी माँगने लगे, “हम तो ऐसे ही बोलते हैं। आपकी बेइज्ज़ती का कोई इरादा नहीं!” लेकिन आँसुओं को सूखने में वक़्त लगा।
डीयू में मैथिली? राजनीति में इस्तेमाल की चीज़ रह गई है भाषा
- वक़्त-बेवक़्त
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- 7 Oct, 2019

अभी मेरे एक युवा मित्र ने एक ख़बर भेजी कि दिल्ली विश्वविद्यालय मैथिली के अध्ययन के बारे में गंभीरता से विचार कर रहा है। उद्देश्य स्थानीय संस्कृति को बढ़ावा देना है। यह मैथिली के साहित्य में या उसकी भाषायी विचित्रता में रुचि रखनेवालों को संबोधित नहीं है, उस जनसंख्या को है जो ख़ुद को प्राथमिक रूप से मैथिल मानती है।
बिहार में ही छपरा की भोजपुरी को ज़नाना कहकर आरा के भोजपुरीवाले अपनी मूँछ पर ताव देते हैं। बिना यह सोचे कि उनके यहाँ वही भोजपुरी औरतें भी बोलती हैं। बेगुसरायवालों से मुलायमियत की उम्मीद बस उम्मीद है, ऐसा मैथिलीवाले कहते हैं जिनकी यह समझ है कि मैथिली तो स्वभाव से ही मीठी है। मैथिली में झगड़ा या गाली गलौज भी मैत्री का आमंत्रण मालूम होता है।