एक विश्वविद्यालय की ख़बर सुर्ख़ियों में है, दूसरा ख़बर बन नहीं सका। हालाँकि यह दूसरा है जिसे देखकर हमें फ़िक्र होनी चाहिए। मैं बात जादवपुर विश्वविद्यालय के साथ बिहार के गया स्थित दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय की कर रहा हूँ।
विश्वविद्यालयों में सियासत और मुर्दा चुप्पी, ज़्यादा ख़तरनाक क्या?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 23 Sep, 2019

सोचिए, एक ऐसे परिसर के बारे में जिसमें छात्रों को ही सभागार में प्रवेश न मिले और वे ख़ामोश रह जाएँ! आज्ञाकारियों की तरह दूसरे कमरे में स्क्रीन के आगे जा बैठें! जहाँ एक अध्यापक बाक़ायदा धर्मगुरु का पादुका पूजन कर रहा हो, जहाँ कुलपति उसके आगे साष्टांग दंडवत हो जाए! एक तरफ़ जादवपुर विश्वविद्यालय में छात्रों की बेचैनी है और दूसरी ओर दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में घंटा और आरती की ध्वनियाँ और छात्र और अध्यापक समुदाय की मुर्दा चुप्पी!
जादवपुर विश्वविद्यालय में केंद्रीय सरकार के एक मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नेता, बंगाल में पहले गायक के तौर पर प्रसिद्ध बाबुल सुप्रियो के ख़िलाफ़ छात्रों के विरोध-प्रदर्शन और उसके बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा की गई हिंसा, ख़ुद बाबुल के अभद्र व्यवहार और राज्यपाल के वहाँ पहुँच जाने और ख़ुद हस्तक्षेप की ख़बरें हम तक पहुँची हैं।
इस पर बहस है कि छात्रों को बाबुल का विरोध करना चाहिए था या नहीं, भले ही वह हिंसक न रहा हो! मेरे विचार से यह मुनासिब न था। बाबुल के दल के विचार देश के लिए घातक हैं लेकिन शायद विश्वविद्यालय में उसके प्रवक्ता के विरुद्ध रोष प्रदर्शन से उस विचार का प्रसार रुकता नहीं। दूसरे, बाबुल के बोलने या किसी कार्यक्रम में भाग लेने के अधिकार को बाधित नहीं किया जा सकता। छात्र कह रहे हैं कि उन्होंने बाबुल के लिए बाक़ायदा रास्ता बनाया था और बदमजगी, अपशब्द और हिंसा बाबुल की ओर से शुरू हुई। लेकिन यह शायद विरोध कर रहे छात्रों को भूलना नहीं चाहिए कि बाबुल का दल हमेशा हिंसा के अवसर की ताक में रहता है और इसलिए इस मौक़े पर हिंसा का अनुमान सहज था। सिद्धांत रूप से बाबुल का विरोध उचित न था अगर इस बाद के कारण को छोड़ भी दें।