आज की दुनिया ऐसी है कि युद्ध कहीं भी हो, उसमें भले आपका-हमारा मुल्क लड़ न रहा हो, एक या दूसरी तरह आप उसमें शामिल रहते हैं। उसका असर हम पर पड़ता ही है। प्रत्यक्ष या परोक्ष। यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद भारत ने तटस्थता का रुख अपनाया।
भारत के हितैषी विशेषज्ञों ने इसे कुशल रणनीति बताकर इसकी प्रशंसा की। रूस हमारा पारम्परिक मित्र रहा है। रूस ही जंग के लिए हमें साजो सामान बेचता रहा है। हमें लड़ाकू जहाज़ों,आदि के लिए कलपुर्जे की ज़रूरत होती है, जो वही दे सकता है।
इसलिए इस वक्त हम यह कहकर कि वह हमलावर है, कि यह जंग नाजायज़ है, यह अपराध है, उसे नाराज़ नहीं कर सकते। यह हमारे रणनीतिकारों का मत है।
चीन ने एक दूसरी वजह से युद्ध का विरोध नहीं किया। भारत और चीन में तनातनी है। लेकिन इस मामले में दोनों एक हैं। रणनीतिकारों ने पूछा कि आखिर पश्चिमी देश या अमेरिका इस प्रसंग में भारत से क्यों युद्ध के विरोध की अपेक्षा कर रहे हैं, जब खुद उन्होंने चीन द्वारा भारत की सीमा के अतिक्रमण की आलोचना नहीं की है। इसपर अमेरिका की तरफ से कहा गया कि खुद भारत के नेता नहीं चाहते थे कि किसी द्विपक्षीय वक्तव्य में चीन की आलोचना हो या उसके अतिक्रमण पर चिंता भी जाहिर की जाए। जब यह सरकार अपनी जनता को लगातार कह रही थी कि चीन ने हमारे साथ कुछ नहीं किया है तब वह ऐसा कोई अन्तरराष्ट्रीय वक्तव्य कैसे स्वीकार कर सकती थी? अब सरकार समर्थक यह कह रहे हैं लेकिन सरकार अभी भी चुप है।
बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो अमेरिका और यूरोप के रूस विरोधी रुख को पाखण्ड बता रहे हैं। वे कहते हैं कि बिना नाटो के विस्तारवाद पर बात किए और बिना रूस की असुरक्षा को समझे हम इस युद्ध पर कोई चर्चा नहीं कर सकते।
तटस्थता का मौन
भारत की स्थिति पूरी दुनिया में कितनी कमजोर हो चुकी है, वह किसी अंतरराष्ट्रीय मसले में हस्तक्षेप की हालत में नहीं है, यह इस प्रसंग में और भी उजागर हो गया है। वह कमजोर देशों का मित्र नहीं रह गया है। यह पिछले 8 साल में जाहिर हो गया है। यह उस प्रधानमंत्री के नेतृत्व में जिसका शौक विदेश यात्रा का ही है और दूसरे देश के नेताओं से गले मिलने का। वह निर्णयकारी नहीं है। उसमें किसी को प्रभावित करने की क्षमता भी नहीं है। इसलिए उसने तटस्थता का मौन धारण कर लिया है।
इस मौन ने लेकिन हमें युद्ध से हमें बचाया नहीं। मालूम हुआ कि रूसी हमले के शिकार भारतीय भी हो रहे हैं। वे हजारों छात्र जो यूक्रेन पढ़ने गए थे, इस हमले में फँस गए और उन्हें सुरक्षित निकालने में सरकार नाकामयाब रही। रूस से दोस्ती के बावजूद वह नहीं जान पाई कि हमला अवश्यंभावी है। वह अपने नागरिकों को निश्चयपूर्वक नहीं बता पाई कि वे खतरे में हैं। और उसके बाद यह सरकार मौके से भाग खड़ी हुई। जैसा उसने संकट के हर क्षण में किया है।
लाचारी का रोना
यह कहकर कि संकट में बेचारी सरकार कर ही क्या सकती है। कोरोना संक्रमण के समय उसने जैसे हाथ झाड़ लिया, वह चाहे मजदूरों पर आया संकट हो या बाद में ऑक्सीजन की कमी का मामला हो। हर बार उसने कहा कि इतना संकट है, सरकार फँसी हुई है। उससे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह सामान्य काम करे।
सरकार समर्थकों के तर्क
अदालतों ने भी उसकी लाचारी मान ली, हमने भी। और अब वह यूक्रेन में लाचार है। उसके पैरोकार यह तर्क दे रहे हैं कि ये छात्र कोई सरकार से पूछकर नहीं गए थे। उन्हें भारतीय करदाता के पैसे पर वापस लाना सरकार की बाध्यता नहीं है। नैतिक जिम्मा भले माना जाए, उसे बाध्य नहीं किया जा सकता। वैसे ही जैसे वे कोरोना के समय तर्क दे रहे थे कि क्या सरकार हरेक का जिम्मा लिए बैठी है? इतना बड़ा संकट है, सरकार के पास इतना काम है, क्या वह हर किसी के लिए दवा और ऑक्सीजन का इंतजाम करे!
तर्कों की तलाश
पिछले 8 सालों में भारत के नागरिक अपने विरुद्ध और सरकार के पक्ष में तर्कों की तलाश करते रहे हैं। उनके हिसाब से सरकार किसी और बड़े काम के लिए है। लेकिन सरकार का तो मतलब यही है कि वह लोगों के लिए तब साधन मुहैय्या कराए जब वे खुद ऐसा करने में समर्थ न हों। आखिर उसके पास सारे संसाधन हैं। उसके पास सारे उपकरण हैं। अगर वह मुश्किल के समय ही जुआ पटक देती है और लोगों पर आरोप लगाने लगती है कि वे उसके लिए कठिनाई पैदा कर रहे हैं, तो वह सरकार नहीं है।
भारतीय जनता पार्टी की नरेंद्र मोदी नीत भारत सरकार का रिकॉर्ड यही है। वह ऐसा इसलिए कर पा रही है क्योंकि उसने अपने मतदाताओं को भरोसा दिला रखा है कि वह एक महान ऐतिहासिक मिशन में लगी है। उसे इन छोटे छोटे सवालों में न उलझाया जाए।
वह भारत का खोया गौरव वापस लाने के अभियान में जुटी है। वह इतिहास को ठीक कर रही है। जब एक नेता या उसका दल इतिहास के अन्याय के खिलाफ युद्ध कर रहा हो तो उससे रोज़मर्रा के मामूली काम करने को कहना कितनी हिमाकत की बात है!
असाधारण सरकार?
नरेंद्र मोदी नीत भाजपा सरकार ने अपने मतदाताओं को यह भरम दिला रखा है और वे इसमें विश्वास करते हैं कि वह उन्हें भारत पर वास्तविक अधिकार दिलाने के यज्ञ में व्यस्त है। इसलिए उसे बाकी सरकारों की तरह की साधारण सरकार न माना जाए। उससे वे माँगें न की जाएँ जो मनमोहन सिंह की सरकार से की जा सकती थीं। ऐसा करना इस सरकार का और इसके नेता का अपमान है।
अपने लिए यह छूट इस नेता ने अपने लोगों को एक ताकत का भ्रम देकर ली है। यह ताकत उन्हें पहले हासिल न थी और इन 8 सालों में दी गई है। वह ताकत है, मुसलमानों और ईसाइयों को बेइज्जत करने की, उन पर हिंसा करने की। इसमें एक फर्जी जंग का मज़ा है। सामनेवाले के हाथ बँधे हों तो उसपर वार करने को वीरता कहना एक कायर का गुण है।
मुसलमानों और ईसाइयों को बेबस करके मोदी और भाजपा समर्थकों को उनपर हमला करने का जो सुख दिया जा रहा है उसके बदले वे अपने नागरिक अधिकार सरकार को सुपुर्द करने को तैयार हैं। इसी वजह से शायद यूक्रेन में अपने बच्चों को मौत के मुँह में लाचार छोड़ देनेवाली सरकार पर उनका क्रोध कहीं दीख नहीं रहा। लोग रो रहे हैं, गिड़गिड़ा रहे हैं लेकिन सरकार को पाबन्द करते नहीं सुनाई पड़ते।
इसी वजह से इस संकट की घड़ी में यह नेता कपड़े बदल-बदलकर कभी डमरू बजा रहा है, कभी पान खा रहा है, कभी रेलवे स्टेशन का निरीक्षण कर रहा है। वह प्रवचन दे रहा है। हम उसकी ढिठाई पर निहाल हैं। बाहर के लोग इस भारत को और इन भारतीयों को हैरान देख रहे हैं।
भारत से युद्ध विरोध का कोई नारा नहीं, आवाज़ है तो बस 'हमारे बच्चों को बचा लो' की। यह किसका भारत है और कैसा भारत है?
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