स्वतंत्रता का दिन है। लेकिन आज भाव स्वतंत्रता का नहीं। न उल्लास का है। चारों तरफ़ से दबाए जाने का है। स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम में अनिवार्य उपस्थिति का आदेश, अपने घर पर तिरंगा लगाकर उसकी फ़ोटो भेजने का आदेश, ज़बरन सबको सरकारी तिरंगा ख़रीदने का हुक्म। बिना पूछे सरकारी कर्मचारियों की तनख़्वाह से तिरंगा शुल्क काट लेना। जो घर तिरंगा न लगाए उसकी तस्वीर खींचने के लिए पड़ोसियों को उकसाना। एक निगाह का अहसास जो आपके राष्ट्रवाद को ताड़ रही है।
ये प्रश्न करें कि कहीं हम आज़ादी तो खोते नहीं जा रहे हैं?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 15 Aug, 2022

तिरंगा झंडा इस समय संघीय सरकार के हर अन्याय पर पर्दा डालने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। उसे ढकने के लिए। हमारा कर्तव्य इस पर्दे को हटाने का है। क्या आज के दिन हम कश्मीर में बिना किसी प्रक्रिया के बर्खास्त कर दिए गए कश्मीरी राज्य कर्मियों के लिए इंसाफ़ की बात कर सकते हैं?
असल भाव ज़बरदस्ती का है। यह हिंसा के अलावा कुछ नहीं। और यह तिरंगे की आड़ में की जा रही है। ताकि लोग न इसे समझ पाएँ और न इसका विरोध कर पाएँ। लेकिन यह तो गाँधी ने कहा था, जिनका नाम शायद आज सबसे ज़्यादा लिया जाए कि गीता उन्हें प्रिय है लेकिन अगर कोई उनकी कनपटी पर बंदूक़ रखकर गीता पढ़ने को कहे तो वे ऐसा करने से इंकार कर देंगे।
जब सरकार आपको आपका प्रिय काम करने के लिए आदेश देने लगे तो पहला कर्तव्य उससे इंकार करने का है। आप स्वेच्छा का सरकारीकरण या राज्यीकरण अगर होने देते हैं और सोचते हैं कि यह तो मेरी ख़ुद की मर्ज़ी है, तो आप वास्तव में ख़ुद को धोखा दे रहे होते हैं।