loader

बहुसंख्यकवाद के ख़तरे पर पड़ोसी देश सख़्त, भारत उदासीन क्यों? 

पाकिस्तान और बांग्लादेश में सरकार, राजकीय संस्थानों और अदालतों का रवैया कम से कम हिंसा के मामले में समझौता विहीन है। लेकिन भारत में ऐसा होना अपवाद है। न सिर्फ पुलिस और प्रशासन बल्कि अदालत भी अगर ऐसी हिंसा के पक्ष में नहीं तो उदासीन ज़रूर दिखलाई पड़ती है।
अपूर्वानंद

कुछ रोज़ पहले बांग्लादेश की एक अदालत ने सत्ताधारी अवामी लीग पार्टी के छात्र संगठन छात्र लीग से संबद्ध 20 छात्रों को मौत की सज़ा सुनाई और 5 अन्य को उम्र कैद की। इन पर 2019 में एक छात्र को पीट-पीट कर मार डालने का आरोप था। उस छात्र ने अवामी लीग सरकार के भारत के साथ जल समझौते के फैसले की आलोचना करते हुए एक 'पोस्ट' लिखी थी। 

यह सज़ा ढाका की तीव्र गति से मुकदमा देखने वाली अदालत ने सुनाई और न्यायाधीश ने कहा कि इन अभियुक्तों को सबसे बड़ी सज़ा दी गई है ताकि ऐसा नृशंस अपराध आगे दुहराया न जा सके।  

"अगर अपराध की गंभीरता का तकाजा हो तो हमें इन्साफ की तलवार को पूरे ज़ोर से और आखिर तक इस्तेमाल करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए", निर्णय सुनाते हुए न्यायाधीश अबू ज़फ़र मोहम्मद करीउज़्ज़मा ने कहा। 

ताज़ा ख़बरें

यह बहुत बड़ी सज़ा है। बांग्लादेश में इसे लेकर जाहिरा तौर पर बहस चल रही है। एक अध्यापक ने अल जज़ीरा से कहा कि ये सब बांग्लादेश की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी ऑफ़ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी के प्रतिभाशाली छात्र थे और अभी युवा थे। आखिर हमें सोचना चाहिए कि वह कौन सी चीज़ है जिसने इन्हें ऐसे खूँखार हत्यारों में बदल दिया। 

इसके अलावा यह बहस फिर से ताज़ा हो गई है कि किस तरह परिसरों में शासक दल के छात्र संगठन की हिंसा की घटनाएँ बढ़ती ही गई हैं। क्या यह सज़ा इस पर रोक लगा पाएगी, जैसी यूनिवर्सिटी के प्रवक्ता ने आशा की है? 

क्या मौत की सज़ा दी ही जानी चाहिए और क्या यह अपराध के मेल में है? 1 की हत्या के बदले क्या यह राज्य के द्वारा अपनी लाज बचाने को, ताकि मूल कारण पर ध्यान न जाए, 20 की हत्या जायज़ है? क्या शासक दल और समाज इन 20 को हत्यारों में बदल देने वाली संस्कृति में अपनी भूमिका की जाँच करेगा? 

मृत्यु दंड की सजा पर सवाल

मौत की सज़ा को क्या किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार किया जाना चाहिए? इसे लेकर कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि मृत्यु दंड की कोई जगह नहीं होनी चाहिए और वह राजकीय हिंसा का सबसे ठंडा तरीका है। वह न्याय का शॉर्ट कट भी है। वह हमें उस अपराध की व्यापकता के बारे में सोचने से भी रोक देता है। और वह ऐसे अपराध को कभी कम नहीं करता।   

इस सज़ा पर भारत में क्यों नहीं चर्चा हुई? भारत के दूसरे पड़ोसी पाकिस्तान में भी पिछले दिनों पीट-पीट कर मार डालने के एक वाकये ने पूरे उपमहाद्वीप को हिला दिया। 

Hindu Majoritarianism in India and its consequences - Satya Hindi

ईशनिंदा के आरोप में हत्या 

सियालकोट में एक कारखाने के मजदूरों ने उसके मैनेजर प्रियंथा कुमारा को पीट-पीट कर और फिर जलाकर मार डाला। इनकी संख्या सैकड़ों में थी। मैनेजर पर ईशनिंदा का इल्जाम लगाया गया और फिर उसकी हत्या कर दी गई। प्रियंथा पर आरोप था कि उसने अतिवादी संगठन तहरीके लब्बैक पाकिस्तान के एक पोस्टर को फाड़  दिया था जिसपर कुरआन की आयतें लिखी थीं। इसे दूषण या ईशनिंदा माना गया। 

हत्या अपने आप में भयानक थी लेकिन इस बात ने कि मारा गया व्यक्ति श्रीलंका का था, इस हत्याकांड की गंभीरता को और बढ़ा दिया। सरकार ने इसके बाद फौरन सैकड़ों गिरफ्तारियाँ कीं और प्रधानमंत्री से लेकर पुलिस अधिकारियों तक ने इस अपराध के अभियुक्तों को सबसे सख्त सज़ा देने का इरादा जाहिर किया। पूरे पाकिस्तान में इसकी चारों तरफ तीखी निंदा हुई। 

इस घटना ने पाकिस्तान में ईशनिंदा संबंधी कानून पर बहस फिर तेज कर दी है। अगर आप पर कोई ईशनिंदा का इल्जाम लगा दे तो आपको खुदा भी नहीं  बचा सकता। इस कानून को अदालत के पहले भीड़ ही लागू कर देती है। 

आसिया बीबी का मामला 

इस तरह की यह सबसे ताज़ा घटना है लेकिन नई नहीं है। आसिया नौरीन वाले मामले की हम सबको याद है। उस ईसाई औरत पर यही आरोप लगाकर उसे मौत की सज़ा सुना दी गई थी। आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने सज़ा रद्द की और एक लंबी खींच तान के बाद वह देश छोड़कर कनाडा जा सकी। 

आसिया बीबी की हिमायत करने के कारण बड़े राजनेता, गवर्नर सलमान तासीर की एक पुलिस कर्मी ने हत्या कर दी। हत्यारे मुमताज कादरी को लेकिन मौत की सज़ा दी गई और उसे फांसी हुई। अदालत से बरी होने के बाद भी आसिया पाकिस्तान में सुरक्षित नहीं रह सकती थीं।  

हत्यारा बना शहीद 

कादरी को लेकिन शहीद घोषित किया गया और इसलामाबाद में उसकी कब्र की जगह को एक तीर्थस्थल में तब्दील कर दिया गया है। लोग उसे एक पवित्र स्थल मानते हैं और वहाँ की मिट्टी साथ ले जाते हैं। 

मुमताज क़ादरी जोकि एक कातिल है, इस तरह पाकिस्तान की एक बड़ी आबादी के लिए पीर, औलिया, संत या शहीद है। पाकिस्तान में यह एक गहराती बीमारी का लक्षण भर है।

हालाँकि पाकिस्तान सरकार ने इस मामले में सख्ती दिखलाई है लेकिन तहरीके लब्बैक पाकिस्तान के साथ उसकी नरमी खतरनाक है। इसके साथ स्कूली पाठ्यक्रम का इसलामीकरण भी संकीर्णता को ही बढ़ावा देता है। 

हिंदुओं पर हमले के ख़िलाफ़ आवाज़

बांग्लादेश में दो महीने पहले हिंदुओं पर इसी ईशनिंदा या कुरआन की बेहुरमती का आरोप लगाकर हमले किए गए और दुर्गापूजा के पंडालों को ध्वस्त किया गया।

Hindu Majoritarianism in India and its consequences - Satya Hindi
 लेकिन बांग्लादेश की पुलिस ने बिना हिचकिचाए अभियुक्तों की धर पकड़ की और उनपर मुक़दमे दायर किए गए। सैकड़ों लोग गिरफ़्तार किए गए हैं। इस सामूहिक हिंसा की शासन दल और सारे विपक्षी दलों ने तीखी निंदा की। 

राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने हिंदुओं के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए प्रदर्शन किए। यानी अल्पसंख्यक हिंदुओं को वहाँ के बहुसंख्यक मुसलमानों की तरफ से भरोसा दिलाया गया। और यह मात्र प्रतीकात्मक न था।   

फिर भी, इस सख्त कदम और बांग्लादेश के समाज की तरफ से इस हिंसा के विरोध के बावजूद इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि उस देश में ऐसी प्रवृत्ति ताकतवर हो रही है जो इसलाम की हिफाजत के नाम पर अल्पसंख्यकों और धर्मनिरपेक्ष लोगों के साथ मनमानी हिंसा कर सकती है।

इन सबके साथ भारत का जिक्र कैसे किया जाए? भारत में मुसलमानों और ईसाईयों पर हिंसा की खबर अब खबर भी नहीं रह गई है। ये घटनाएँ इतनी हैं कि उनका अलग-अलग ब्यौरा देने को किताब लिखनी होगी।

बाकी दोनों देशों में तो पुलिस और सरकार की प्रतिक्रिया दिखलाई पड़ती है जो प्रभावी है लेकिन भारत में पुलिस और सरकार हमलावरों के साथ है। बल्कि यहाँ मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक ऐसे बयान देते रहते हैं जिनसे मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ हिंदुओं में घृणा और हिंसा का प्रसार होता है। 

पाकिस्तान और बांग्लादेश में सरकार, राजकीय संस्थानों और अदालतों का रवैया कम से कम हिंसा के मामले में समझौता विहीन है। तो समाज में जो प्रवृत्ति बढ़ती दीखती है उसका राजकीय संस्थाओं के साथ विरोध है या कम से कम वे इस प्रवृत्ति के विरुद्ध खड़ी नज़र आती है। 

भारत में ऐसा होना अपवाद है। न सिर्फ पुलिस और प्रशासन बल्कि अदालत भी अगर ऐसी हिंसा के पक्ष में नहीं तो उदासीन दिखलाई पड़ती है।

अदालतों का रूख़

भीड़ द्वारा हत्या के मामले में या दूसरी हिंसा में भारत की अदालत ने पाकिस्तान और बांग्लादेश की अदालतों की तरह दृढ़ता नहीं दिखलाई है। बल्कि कई बार वे हत्या या हिंसा के आरोपियों के कृत्य के लिए कोई बहाना खोजती हैं। 

जैसे ग्राहम स्टेंस और उनके बच्चों की हत्या के अभियुक्त की सजा को कम करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उस हिंसा का औचित्य खोजा, यह कहकर कि हत्या उस आक्रोश के आवेश में की गई जो धर्म परिवर्तन को लेकर हत्यारे दारा सिंह के मन में था। यह बेबुनियाद था लेकिन अदालत ने खुद इसे खोजकर निहायत ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से मारे गए लोगों पर अपनी हत्या के लिए हत्यारों को उकसाने का आरोप लगा दिया। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। 

श्रीलंका का सिंहली राष्ट्रवाद  

पाकिस्तान में अपने नागरिक की साम्प्रदायिक हिंसा में हत्या का इंसाफ़ श्रीलंका के लोग मांग रहे हैं। वह ठीक है। लेकिन श्रीलंका में खुद ऐसी सरकार सत्तासीन है जो सिंहली बहुसंख्यकवाद की विचारधारा को मानती है। श्रीलंका में वह मुसलमान विरोधी हिंसा को बुरा मानती हो इसके सबूत नहीं हैं। वह तमिल हिन्दुओं और मुसलमानों को सिंहली राष्ट्रवाद के मातहत ही रखना चाहती है। 

वक़्त-बेवक़्त से और ख़बरें

बहुसंख्यकवाद का ख़तरा 

इन चारों देशों को साथ मिलकर अपने समाजों में बढ़ रही इस बहुसंख्यकवादी प्रवृत्ति के खतरे का सामना करने के तरीके सोचने होंगे। एक स्तर समाज का है। उसके साथ दूसरा राज्य का है, उसकी संस्थाओं का है। समाजी सतह पर काम लंबा और मुश्किल है और इसीलिए उसमें देर नहीं की जा सकती। इसे दक्षिण एशियाई चुनौती मानकर हमें साथ काम करना होगा। 

लेकिन समाज बदल जाए या बहुसंख्यक समाज के दिल का मैल धुल जाए इसका इन्तजार करते हुए तो अल्पसंख्यक नहीं जी सकते। फिर राजकीय संस्थाओं को दिखलाना होगा जैसा हमारे पड़ोसी देशों में देखने को मिला कि वे इस प्रवृत्ति के खिलाफ हैं।
लेकिन राजकीय स्तर पर क्या भारत की संस्थाओं में संवैधानिक मूल्यों के प्रति वैसी प्रतिबद्धता दीखती है जिसके उदाहरण पाकिस्तान और बांग्लादेश में दिखलाई पड़े हैं? या यहाँ का पूरा निजाम भी बहुसंख्यकवाद में यकीन करने लगा है? 
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
अपूर्वानंद
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

वक़्त-बेवक़्त से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें