चेन्नई की घटना है। कश्मीर में मानवाधिकार के प्रश्न पर एक सभा से वापस होटल जाना था। टैक्सी ली। होटल के रास्ते को समझने के लिए ड्राइवर से अंग्रेज़ी में बातचीत शुरू की। उसने उस ज़ुबान में जवाब दिया जो दिल्ली की टैक्सी में इस्तेमाल की जाती है। आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई। पूछा, आप हिंदी बोल रहे हैं। जवाब मिला, 'उर्दू है साहब।' फिर हमने साथ-साथ रास्ता तय किया। एक उत्तर भारतीय हिंदी भाषी को तमिलभाषी चेन्नै उर्दू ने मंजिल तक पहुँचाया।
हिंदी को तोड़ने वाली नहीं जोड़ने वाली जुबान बनाइए
- वक़्त-बेवक़्त
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- 11 Apr, 2022

हिंदीवाद एक तरह का अलगाववादी राष्ट्रवाद है। भारत जैसे देश में, जिसकी ताकत उसकी बहुसांस्कृतिकता और बहुभाषिकता से है, हिंदी को सिर्फ इस आधार पर कि उसे बोलनेवालों की तादाद सबसे ज़्यादा है, भारत के दूसरे इलाकों पर आरोपित नहीं किया जा सकता।
यह घटना बार-बार याद आती है। एक टेलीविज़न 'पत्रकार' 'हल्दीराम' की एक दुकान पर नमकीन का एक पैकेट उठाकर बार-बार पूछ रही थी कि यह उर्दू में क्या लिखा है। उससे ज़्यादा उसका हमलावर सवाल था कि उर्दू में क्यों लिखा है! क्या उर्दू में लिखकर कुछ छिपाने की कोशिश की जा रही है?
क्या इसमें कोई साजिश है? मुझे तब चेन्नई का वह सफर याद आया। उर्दू रास्ता उजागर करने वाली भाषा थी वहाँ छिपाने वाली नहीं। अगर मेरी जगह यह पत्रकार होती तो क्या वह हैरान होती कि उर्दू ने उसे गुमराह नहीं किया बल्कि रास्ता दिखाया? यह बात अलग है कि लोगों ने बतलाया कि वह उर्दू न थी, अरबी थी।