संबलपुर से लौट रहा हूँ या झारसुगुड़ा से? या ओडिशा से? ओडिशा यह ज़रूर है लेकिन यह वह ओडिशा नहीं जो भुवनेश्वर, पुरी या कटक में आपको मिलता है। यहाँ आप ओड़िया में नहीं संबलपुरी भाषा में ही बात कर सकते हैं।
झारसुगुड़ा हवाई अड्डे से शहर होते हुए संबलपुर की सड़क पकड़ते वक्त आप जगह-जगह विश्रामरत रथों को देखते हैं। एक मंज़िला रथ जिन पर दोनों तरफ से सीढ़ी चढ़कर आप फूलों से सज्जित पहले तल पर जाकर कमरे में बलभद्र, सुभद्रा, जगन्नाथजी के दर्शन कर सकते हैं।
“आप शुभ दिन पर यहाँ आए हैं।” मेज़बान मानो मेरी इस यात्रा का गौरव बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। यात्रा की तिथि आतिथेय की निश्चित की हुई है। मेरा कोई योगदान उसमें नहीं लेकिन यह विधि का विधान ही होगा कि मुझे उसी दिन उस धरती पर होने का सौभाग्य मिला जो बाहुड़ा का दिन है। यानी त्रिमूर्ति के वापस फिरने का दिन।
रथयात्रा संपन्न हो चुकी है। पात्रता हो या नहीं, अयाचित ही पुण्य लाभ आपने किया, इसके लिए कृतज्ञता तो होनी ही चाहिए।
“तो क्या रथयात्रा ही यहाँ का प्रमुख पर्व है?”, लिंगराजजी ने संबलपुरी से मृदु की गई अपनी सधी हिंदी में उत्तर दिया, “नहीं। यहाँ तो संबलेश्वरी ही प्रमुख देवी हैं।” हर क्षेत्र की अपनी अधिष्ठात्री होती ही हैं। मुझे पटनेश्वरी की याद आ गई। हमारे पटना की अपनी देवी।
लिंगराजजी ने यह भी याद दिलाना आवश्यक समझा कि यह क्षेत्र आदिवासियों का है। उनके तो अनेक देवी-देवता हैं। प्रकृति के वे रूप अलग से विचारणीय हैं जो आदिवासियों से अभिन्न हैं और जो उनके लिए पवित्र भी हैं।
“ईद मुबारक”
यह भी संयोग है, या इत्तफ़ाक़ कि बाहुड़ा के अगले रोज़ ईद होनेवाली है। बक़रीद! बाहुड़ा और बक़रीद। एक तरह का अनुप्रास का आनंद है। बक़रीद स्थानीय भी है और अंतर्राष्ट्रीय भी। झारसुगुड़ा के लिए जहाज़ का इंतज़ार करते हुए दिल्ली हवाई अड्डे पर एक सज्जन को वजू करते देख “ईद मुबारक” कहा। उन्होंने मुबारकबाद क़बूल तो की लेकिन मुझे दुरुस्त करते हुए कहा कि आज ईद अरब में है, हिंदुस्तान में तो कल होगी। इतना ही तो फ़र्क़ है!
क्या ईद ठेठ स्थानीय नहीं है, पूरी दुनिया में तक़रीबन एक सी मनाई जाती है तो वह कम अपनी हो जाती है?
बहरहाल! कुछ देर बाद वे जैसे खोजते हुए पास पहुँचे और कहा कि आज के माहौल में किसी अजनबी से इतना खुले आम “ईद मुबारक” सुनकर झटका-सा लगता है। क्या यह भारत ही है या कोई और मुल्क? यह सुनकर मुझे सदमा नहीं हुआ। न दिल भर आया। उन्होंने भी जैसे एक तथ्य भर बयान किया। फिर भी यह बताने के लिए मुझे खोजने की ज़हमत तो उन्होंने उठाई ही थी।
मैंने उन्हें नहीं बतलाया कि उन्हें भी वजू करते देख मैं भी ठिठक गया था। आख़िर हवाई अड्डे पर किसी को नमाज़ पढ़ते देख लोगों की भावना को ठेस पहुँचने की ख़बर कुछ दिन पहले ही पढ़ी थी।
अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह
ख़ैर! संबलपुर जाते हुए बरगढ़ से किशोर मेहर का फ़ोन आया। वे ध्यान दिलाते हैं कि इस इलाक़े में स्वाधीनता संग्राम के प्रसंग में स्मरण कर लेना उचित ही होगा कि 1857 के भी पहले, जिसे भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहते हैं, यहाँ के आदिवासियों ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ उल गुलान छेड़ दिया था और वह 1857 के विद्रोह के कुचल दिए जाने के बाद भी चलता रहा। 1862 तक कम से कम।
उत्तर भारतीय देवनागरी हिंदी कल्पना में तात्या टोपे हैं, बाबू कुंवर सिंह हैं, मर्दानी झाँसी की रानी हैं, और अब बतलाना पड़ता है इन सबने जिनको सिरमौर बनाया था, उनका नाम बहादुर शाह ज़फ़र है। इस कल्पना को उल गुलान को समझने के लिए काफ़ी श्रम करना पड़ेगा।
संविधान सभा में जयपाल सिंह ने भारतीय कल्पना को यह चुनौती दी थी। आदिवासी कल्पना, या कल्पनाओं के साथ राष्ट्रीय कल्पना का तालमेल बिठाने की चुनौती। उस चुनौती को स्वीकार करने की योग्यता हासिल करने की जगह यह हिंदी कल्पना अपने अलावा सबको गौण धारा बतला कर उन्हीं को कहती रही कि वे उसे समझें।
दयानंद सत्पथी के विचार
संबलपुर में दयानंद सत्पथी की 115वीं जयंती पर उनकी स्मृति में आयोजित व्याख्यान शृंखला में भाग लेना है। उन्हें, उन जैसे सहस्रों व्यक्तियों या व्यक्तित्वों को हम क्यों नहीं जानते? स्वाधीनता संग्रामी, गाँधी विचार से प्रभावित, कम्युनिस्ट, ट्रेड यूनियन नेता। ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकिन अनार्य पाठशाला में शिक्षा। कभी यह इलाक़ा कम्युनिस्टों का गढ़ माना जाता था। आयोजन की उपस्थिति से जान पड़ा, 115 साल बाद भी उनकी स्मृति समाज को वैसे ही स्पर्श करती है जैसे अपने जीवन काल में उन्होंने की होगी।
क्या रहे होंगे उनके स्वप्न और आज के समय उनके बारे में हम कैसे सोचें? इस प्रश्न पर विचार करना आसान नहीं था। लेकिन बोलते समय पहली बार वाक् रोध का अनुभव हुआ। उपस्थिति प्रायः हिंदू थी। क्या जो बोलना है, उसे सुनने की प्रस्तुति यहाँ होगी?
क्या मैं अपनी, जो वास्तव में सत्पथी बाबू की ही चिंता है, उसके बारे में खुलकर बात कर सकूँगा? क्या वह सुनकर लोगों को बुरा तो नहीं लगेगा?
सेंसरशिप
बोलते समय ही समझ में आया कि जब बोलने की रणनीति बनानी पड़े, जब आप खुले गले से न बोल सकें, सेंसरशिप की शुरुआत हो जाती है। उसमें यह बात भी लेकिन शामिल है कि बोलनेवाले से सुननेवाले का रिश्ता क्या है। क्या उस समूह को उसके लिए संभावित रूप से अप्रिय बात कहने की पात्रता वक्ता में है? यह मात्र उसके बहुश्रुत, बहुपठित हो जाने से उसे नहीं मिल जाती। उसे उस समाज का विश्वास अर्जित करना होता है। यह एक लंबे रिश्ते और उस रिश्ते में निरंतर निवेश के बाद ही संभव है। सिर्फ़ बात का सही होना उसे उसे सुने जाने की शर्त नहीं।
असहज हुए श्रोता
बाद में श्रोता समूह में से एक ने कहा कि आप सीधे तो नहीं बोल रहे थे लेकिन क्या बोल रहे थे यह सबकी समझ में आ रहा था। हाँ! आख़िरी दो-तीन मिनटों में जब आपने खुलकर सरकार, भारतीय जनता पार्टी, मुसलमानों पर अत्याचार की बात की तो श्रोताओं में अनेक असहज हो गए।
वह असहजता मंच पर भी दिखलाई पड़ी। भारत में मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के साथ दुर्व्यवहार की चर्चा ने जैसे सभा में एक अपराध बोध भर दिया। अध्यक्ष को इसी कारण आवश्यक जान पड़ा कि वे सफ़ाई दें। भारत में जो एक जगह अल्पसंख्यक है, वह दूसरी जगह बहुसंख्यक है, जो एक जगह बहुसंख्यक है, वह दूसरी जगह अल्पसंख्यक है, इसलिए अल्पसंख्यक प्रश्न जटिल है और हम उसपर बाद में विचार करेंगे, यह कहकर उन्होंने जैसे अतिथि वक्ता के मंतव्य से अपने आप को और आयोजकों को अलग करने का प्रयास किया।
इनकी बात ये जानें, हम इनसे सहमत नहीं, जैसे उन्होंने अपनी स्थिति स्पष्ट की।
सांप्रदायिक हिंसा पर नेहरू
सोचने लगा, क्या इस प्रकार का कंठावरोध दयानंद सत्पथी जैसे लोगों को अपने लोगों से बात करते हुए होता होगा? कुछ दिन पहले 1961 में जबलपुर में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद जवाहरलाल नेहरू की उसपर राय पढ़ रहा था। उस हिंसा के बाद नेहरू की पार्टी के लोग भी मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश कर रहे थे। नेहरू ने साफ़ साफ़ कहा कि यह आरोप मज़ाक़ है। जिस समुदाय ने नुक़सान झेला, जो हिंसा का शिकार हुआ, उसी को उसके लिए ज़िम्मेदार बतलाना एक तरह की बदमाशी है।
नेहरू क्या यह बोलते या लिखते समय कभी ठिठके होंगे? क्या उन्होंने इन शब्दों के प्रभाव के बारे में पहले सोचा होगा? आप कह सकते हैं कि आख़िर वे नेहरू थे! बात सही है। जनता, हिंदू जनता के साथ उनके संबंध ने भी यह अधिकार और विश्वास उन्हें दिया होगा।
अपराध को अपराध कहना, अपराधी को अपराधी कहना, बोलते समय संतुलन बनाए रखने की क़वायद न करना यह बोलने की स्वतंत्रता का प्रमाण है। ऐसा करने में हिचक हो तो इसका अर्थ यही है कि श्रोता या पाठक समुदाय में उस अपराध और अपराधी के पक्षधर हैं जिनके दुखी या नाराज़ होने का ख़तरा बोलने या लिखनेवाला उठाए या नहीं, इसका निर्णय उसे लेना होता है।
सभा विसर्जित होने के बाद अनेक युवाओं से संक्षिप्त चर्चा के बाद लगा, अंतिम रूप से निराश होने का समय अभी नहीं आया है। अभी भाषा और विचार के संघर्ष की भूमि बची हुई है। और निराशा हो भी क्यों! लौटते समय लिंगराजजी ने कहा लोहिया कहा करते थे, निराशा का कर्तव्य होता है। उसे पहचानना और निभाना पड़ता ही है।
अपनी राय बतायें