भारत में प्रत्येक घंटे में एक मौत दहेज़ की वजह से होती है। वाक्य अधूरा है। भारत में हर घंटे एक औरत की मौत होती है। इस वाक्य को भी सुधारकर यों लिखा जाना चाहिए : भारत में दहेज़ की वजह से लगभग हर घंटे एक औरत की हत्या कर दी जाती है।
इस आँकड़े से शिक्षित समाज की नींद उड़ जानी चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। इस तथ्य पर ध्यान दिलाने के लिए आँकड़े को ख़बर बनना पड़ता है।
एक हफ़्ता पहले केरल में एक के बाद एक 3 औरतों की हत्या या मृत्यु की ख़बर ने वापस इस आँकड़े को देखने को मजबूर किया। लेकिन क्या हम लिख सकते हैं कि इन हत्याओं ने केरल के सुशिक्षित हृदय को विचलित किया होगा? उसका दिल हिला देने की बात तो अतिशयोक्ति ही होगी। ये सारी मौतें दहेज़ के चलते प्रताड़ना के कारण हुई हैं, यह बताया गया है।
केरल में भी!
21 जून को कोल्लम के क़रीब सस्थानकोट्टा में 24 साल की विस्मया नायर अपने पति के घर लटकी हुई पाई गई। अगले दिन त्रिवेंद्रम में 24 साल की अर्चना जला दी गई और उसी दिन अल्लपुजा में 19 साल की सुचरित्रा लटकी हुई पाई गई।
केरल में इसके बाद नए सिरे से इस मसले पर चर्चा शुरू हुई। दहेज़ एक सामाजिक और सांस्कृतिक बीमारी है। जो ऐसी हर व्याधि की चिकित्सा शिक्षा में खोजते हैं, वे इस पहेली को सुलझा नहीं पाते कि यह केरल में कैसे हो रहा है जहाँ औरतों की साक्षरता 95% के आसपास है और जो राज्य विकास के दूसरे मानकों पर अन्य भारतीय राज्यों से कहीं आगे है।
इस महामारी के दौरान केरल में बाकी राज्यों से बेहतर इंतजाम का श्रेय शैलजा टीचर को मिला। उनके नेतृत्व में आंगनबाड़ी, आशा कार्यक्रम की सदस्यों और बाकी सामुदायिक कार्यकर्ता महिलाओं के योगदान को नोट किया गया है।
यहाँ तक कि लड़के और लड़की के बीच का अनुपात भी यहाँ बेहतर है। यह ठीक है कि बाकी राज्यों के मुक़ाबले दहेज़ के कारण यहाँ हत्याओं की संख्या कम है, लेकिन घरेलू हिंसा यानी पति या उसके रिश्तेदारों के द्वारा प्रताड़ना, हिंसा की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है।
बेहतर समाज?
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़, दहेज़ के कारण होनेवाली हत्याएँ सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में होती हैं। इनके बाद बिहार और मध्य प्रदेश का नंबर है।
इन राज्यों के निवासियों को इस पर विचार करना चाहिए कि दहेज़ के कारण मौत या हत्या की संख्या जम्मू- कश्मीर में 2005 से 2010 के बीच शून्य थी। अगर यहाँ लड़के- लड़की के बीच के अनुपात को देख लें तो देश भर में स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है।
'इंडिया स्पेंड' के अनुसार, हर जनगणना में हज़ार लड़कों के जन्म की तुलना में तकरीबन 16 लड़कियाँ कम होती जा रही हैं। तो हम बेहतर समाज बन रहे हैं, अधिक शक्तिशाली और समानतापूर्ण या हमारा पतन हो रहा है?
दहेज पर चुप्पी!
दहेज़ अब हमारे सार्वजनिक विचार-विमर्श का हिस्सा नहीं रह गया है। पहले जहाँ अक्सर हम लड़कियों के माँ-बाप को दहेज़ की चर्चा करते और शिकायत करते पा सकते थे, अब इसे लेकर चुप्पी रखी जाती है।
खामोशी से फ्लैट की रजिस्ट्री और कार की चाभी और दूसरे किस्म का दहेज़ पहुँचा दिया जाता है। हैसियत जैसे जैसे बढ़ती है, दहेज़ उतना ही बढ़ता चला जाता है और लेन देन का तरीका चतुर होता जाता है। दहेज़ लेनेवाले हर परिवार अपनी बहू को या पति अपनी पत्नी को आगे और दहेज़ के लिए सताता हो, ज़रूरी नहीं।
लेकिन अपने आप में यह कितनी हिंसक प्रथा है! लड़की का परिवार दहेज़ देते समय और उसके पहले के मोलतोल में जिस हिंसा का शिकार होता है, उसके बाहरी चिह्न नहीं दिखलाई पड़ते। लड़की और उसका परिवार जिस अपमान से गुजरते हैं, उसकी बात भी नहीं की जाती।
जो लोग हर बीमारी और गंदगी के लिए 'उन लोगों' को, यानी ग़रीबों और अनपढ़ों को, जिम्मेवार ठहराते हैं, वे सारे सभ्य जन इसके अपराधी हैं? ऐसा क्यों हुआ?
उच्च वर्ग में दहेज
क़ानून को जाननेवाले और लागू करनेवाले प्रशासनिक सेवा और पुलिस सेवा के अफ़सर हैं। इस प्रश्न पर कि उनका इसपर क्या रुख है, मेरे एक प्रशासनिक अधिकारी मित्र की बेटी ने कहा कि क्या आपको मालूम है कि 'गोइंग रेट' अब 15 से 25 करोड़ है? यह एक खुला रहस्य है कि जिन्हें भारत के सबसे प्रतिभाशाली, कुशाग्रबुद्धि माना जाता है, वे प्रशासन या पुलिस की सेवा में प्रवेश करते वक़्त या उसके तुरत बाद एक जुर्म प्रायः करते ही हैं। वह है दहेज़ लेना। इसमें उन्हें कोई शर्म भी नहीं।
इस विषय पर 'इंडिया टुडे' में 1994 चारुलता जोशी ने एक लेख लिखा था। वह लेख अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा और पुलिस सेवा में दाखिल हुए रंगरूटों से बातचीत करके लिखा गया था। उन्होंने शान से बतलाया था कि उनकी कीमत है और वे आखिर क्यों न यह वसूल करें! क़ानून लागू करने की उम्मीद हम इन अपराधियों से कैसे करें! लेकिन उनसे पूछने पर वे इसे अपराध नहीं परिपाटी या सामाजिकता का नाम देंगे। इसे लेकर उन्हें कोई संकोच भी नहीं। आश्चर्य नहीं कि प्रशासनिक अधिकारी इतनी आसानी से राजनेताओं के आगे झुक जाते हैं और पैसेवालों के आगे भी।
अभिजात वर्ग का अनुकरण
यही हाल आईआईटी और दूसरे उन संस्थानों में प्रवेश करनेवाले युवकों का भी है। मुझे अब तक याद है कि मेडिकल कॉलेज में दाखिले के समय ही लड़के की क़ीमत बाज़ार में कैसे चढ़ जाया करती थी!
अभिजन का अनुकरण समाज का विपन्न तबका भी करता है। इस महामारी के बीच घटी हुई आमदनी से जूझते हुए भी हमारे सब्ज़ीवाले ने अपनी बेटी की शादी की और 2.5 लाख रुपए दहेज़ में दिया। इसके लिए उसने कई लोगों से उधार लिया जिसे वह बरसों चुकाता रहेगा।
इस हालत में करोड़ों लोग अपनी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा सर्फ़ करते हैं। इसके बाद भी उनकी बेटी महफूज़ हो, यह निश्चित नहीं। लेकिन हमारे समाज में इसे लेकर किसी के माथे पर शिकन भी नहीं है, क्षोभ की बात तो जाने ही दें।
बेटी बचाओ!
यह वह समाज है जो यह कहता है कि वह इस सरकार का समर्थन इसलिए कर रहा है कि वह 'बेटी बचाओ' जैसे प्रगतिशील नारे को अमली जामा पहना रही है। यह अपनी लड़कियों को पहले पैदा नहीं होने देता, फिर उन्हें परिवार और राष्ट्र को चलाने के लिए उपयोगी साधन के रूप में तैयार करता है और शादी के बाद उसपर होनेवाली हिंसा को ईश्वर की इच्छा और लड़की का भाग्य मान लेता है।
पिछले वर्षों में हमारे समाज में अनेक प्रकार के अन्याय और अपराध को रिवाज मानकर उन्हें नज़रअंदाज कर दिया जाता रहा है। इसके अलावा 'सभ्य समाज' में शानो शौकत और दिखावे का रुझान बढ़ा है। एक शादी पर करोड़ रुपए खर्च होना या कम से कम लाखों आश्चर्य की बात नहीं। खुद लड़के लड़की अब सारे तामझाम की माँग करने लगे हैं। यह बहुत निराशा की बात है। ऐसी शादियों में शामिल होने में हमें ज़रा भी उलझन नहीं होती। इतना कुछ करने के बाद जब लड़की की खुदकुशी या जल मरने की खबर मिलती है तो क्रोध कैसे हो?
बीच में ऐसे लोग मिलते थे जो ऐसी शादियों में शामिल होने से इंकार करते थे। जैसे यज्ञोपवीत संस्कार में शामिल होने से भी। लेकिन अब यह सब कुछ स्वीकार्य है। हमने सादगी और नैतिकता को मूर्खतापूर्ण आदर्शवाद मनाकर अब उससे मुँह मोड़ लिया है। ऐसा समाज क्या विस्मया, अर्चना और सुचरित्रा की त्रासदी को अपनी त्रासदी मान पाएगा या एक इत्तफ़ाक़ मानकर आगे बढ़ जाएगा?
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