बन्रा की मृत्यु की सूचना देते हुए कुछ अख़बारों ने लिखा कि वे एक महत्त्वपूर्ण शिक्षाविद और मूल्य केंद्रित और भारतीयता केंद्रित शिक्षा के मुख्य पैरोकार थे। बत्रा जैसे लोगों को शिक्षाविद कहना इस शब्द का ही अपमान है। शिक्षा को भारतीयता केंद्रित बनाने का क्या अर्थ है, यह अख़बारों ने नहीं लिखा। यह तब स्पष्ट होता है जब पाठकों को मालूम होता है कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे। वे शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति और शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के संस्थापक थे। वे आर एस एस की शिक्षा संस्था विद्या भारती के प्रमुख थे। आज इसके 12000 स्कूल और क़रीब 32 लाख छात्र हैं। इस परिचय से मालूम हो जाता है कि बत्रा किन मूल्यों और किस प्रकार की भारतीयता के प्रचारक थे।
एक अख़बार ने यह ठीक लिखा है कि बत्रा को भारत के शिक्षा के क्षेत्र में उनके शिक्षा विरोधी मुक़दमों के कारण जाना जाता है। वे एक आदतन मुक़दमेबाज़ थे। या वे एक विचारधारात्मक मुक़दमेबाज़ थे। उन्होंने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और और तकनीक ( एन सी सी आर टी) की किताबों पर कई मुक़दमे किए। उन्होंने वेंडी डॉनिगर की एक किताब पर मुक़दमा किया। इसका नतीजा यह हुआ कि उनके मुक़दमे के बाद हमले के भय के कारण प्रकाशक ने किताब की सारी प्रतियों को नष्ट कर दिया। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातक स्तर के इतिहास के पाठ्यक्रम में पाठ्य सामग्री के तौर पर प्रस्तावित ए के रामानुजन के प्रसिद्ध लेख ‘थ्री हंड्रेड रामायणाज़’ को हटाने के लिए मुक़दमा किया। इसका परिणाम यह हुआ कि विश्वविद्यालय ने ख़ुद ही लेख हटा दिया।
इन सारे मुक़दमों में बत्रा की सामान्य शिकायत यह थी कि ये किताबें या पाठ हिंदू विरोधी या भारतीयता विरोधी थे।जिन मुक़दमों में बन्रा सीधे शामिल थे उनके अलावा उनके सांगठनिक जाल से जुड़े लोग अलग अलग जगहों पर इतिहासकारों, लेखकों, कलाकारों पर मुक़दमे करते रहते थे। कलाकार एम एफ हुसेन इनके ख़ास निशाने पर थे। उनके ख़िलाफ़ तक़रीबन 100 मुक़दमे थे जिनसे परेशान होकर उन्हें देश छोड़ देना पड़ा।
बत्रा शैक्षिक और सांस्कृतिक मामलों में आर एस एस के महत्त्वपूर्ण दिशा निर्देशक थे। उन्होंने जो किया उससे पता चलता है कि आर एस एस की भारत या शिक्षा के बारे में समझ क्या है। उन्होंने एन सी ई आर टी को लिखा कि किताबों की हिंदी से उर्दू, अरबी और फ़ारसी के सारे शब्द निकाल देने चाहिए। उन्होंने अवतार सिंह पाश, ग़ालिब, टैगोर की रचनाओं को भी हटाने की मुहिम चलाई। 2006 में हिंदी की किताबों से प्रेमचंद, हरिऔध, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, मोहन राकेश, धूमिल, अवतार सिंह पाश, एम एफ़ हुसेन के पाठों को हिंदू विरोधी या राष्ट्र विरोधी ठहराकर उनके ख़िलाफ़ मुहिम चलाई गई। यह संसद तक पहुँची।
बत्रा किताबों को पवित्र करने के अपने काम में किसी भी हद तक जा सकते थे। एक घटना से आपको इसका अन्दाज़ हो सकता है। बत्रा की संस्था ने एन सी ई आर टी और सी बी एस ई को पत्र लिखा कि हिंदी की एक किताब में एम एफ़ हुसेन पर एक पाठ है। उसमें छात्रों के लिए एक अभ्यास यह दिया गया है कि वे इंटरनेट पर बड़े चित्रकारों की कलाकृतियाँ खोजें और देखें। बत्रा की शिकायत यह थी कि ऐसा करने पर छात्र हुसेन के चित्रों तक पहुँचेंगे जो हिंदू देवी देवताओं का अपमानजनक चित्रण करते है। इससे बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा। एन सी ई आर टी के निदेशक प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार ने तो उनका आवेदन ख़ारिज कर दिया। लेकिन सी बी एस ई ने इसपर गम्भीरतापूर्वक विचार किया कि क्या यह निर्देश जारी किया जाए कि अध्यापक इस अभ्यास को नज़रअंदाज़ कर दें। वह ऐसा नहीं कर पाई क्योंकि उसके अधिकारी पाठ्यक्रम समिति के सदस्य को इसके पक्ष में तर्क नहीं दे सके। बच्चों के मन मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ेगा, यह कोई मज़बूत तर्क न था। अभ्यास बना रहा लेकिन जहां तक मुझे याद है इस मसले पर भी बत्रा ने मुक़दमा किया था।
गुजरात की भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने बत्रा की 16 किताबों को अनिवार्य पाठ के तौर पर स्कूलों में लगाया। उन किताबों के कुछ नमूने इस प्रकार हैं:
- जन्मदिन पर मोमबत्ती न बुझाइए। यह पाश्चात्य संस्कृति है जिससे परहेज़ करना चाहिए। इस रोज़ हवन कीजिए, गायों को खिलाइए।
- भारत का नक़्शा बनाते समय उसमें पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, नेपाल, भूटान, तिब्बत, बांग्लादेश, श्री लंका और बर्मा को शामिल कीजिए। ये अखण्ड भारत के अंग हैं।
- टेलीविज़न का आविष्कार महाभारत के पहले हो चुका था। आख़िर संजय ने दृष्टि बाधित धृतराष्ट्र को महाभारत का युद्ध लाइव टेलीकास्ट करके ही तो दिखलाया था।
- ‘परमदीप’ शृंखला की किताबों में बतलाया गया कि निःसंतान लोगों द्वारा गोसेवा करने पर सन्तान प्राप्ति हुई।
- ‘तेजोमय भारत’ नामक किताब में बत्राजी ने लिखा कि भारत में स्टेम सेल तकनीक महाभारत के समय ही आ चुकी थी जिसका प्रमाण है 100 कौरवों का जन्म। उसी प्रकार मोटरकार भी उसी वक्त भारत में आ गई थी।
हिंदुओं में गौरव भाव पैसा करने के लिए इस प्रकार की मूर्खता का प्रचार बत्रा जीवन भर करते रहे। मूर्खता क़ानून जुर्म नहीं है। लेकिन इस मूर्खता में आक्रामकता और हिंसा थी।बत्रा ने भारत के क़ानूनों का सहारा लेकर ही पेशेवर इतिहासकारों, स्कूली किताबें बनानेवालों को लगातार प्रताड़ित किया। एक टी वी चर्चा में रवीश कुमार ने इसके बारे में उनसे पूछा तो उन्होंने निर्दोष भाव से कहा कि वे तो कोई हिंसा नहीं करते, सिर्फ़ क़ानूनी रास्ते से अपनी शिकायत दर्ज कराते हैं। लेकिन वे आर एस एस के अंग थे। वे मुक़दमा करते थे, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद या बजरंग दल के लोग उनपर हमला करते थे जिनपर बत्रा ने मुक़दमा कर रखा था। भाजपा के लोग उसे एक राजनीतिक मुद्दा बनाकर संसद और विधान सभा में हंगामा करते थे। इस सामूहिक अभियान का नतीजा था आतंक।
इस हिंसक अभियान के कारण भारत में विदेशी प्रकाशक भी वैसे लेखकों और विषयों को छापने में संकोच करने लगे जो बत्रा या उनके लोगों की निगाह में भारतीय संस्कृति या राष्ट्र के विरोधी थे। प्रकाशन के पहले बड़े से बड़े विद्वान या विदुषी के लेख या किताब को पहले क़ानूनी छानबीन से गुजरना पड़ता है ताकि वे सारी चीज़ें हटा दे जाएँ जो बत्रा-निगाह को नागवार गुज़र सकती हैं।
बत्रा को ज़रूर याद रखा जाना चाहिए और उनपर शोध भी होना चाहिए।उससे मालूम होगा कि वे बौद्धिकता और स्वतंत्र मेधा के कुछ सबसे बड़े शत्रुओं में एक थे। चाहे तो कोई कह सकता है कि यह तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ने की बुनियादी शर्त है।तो बत्रा में भी यह थी। उन्होंने भारत को कितना नुक़सान पहुँचाया इसका आकलन भी किया जाना चाहिए। विद्या भारती के हज़ारों स्कूलों में पढ़ी हुई पीढ़ियों में उन्होंने मूर्खता और अन्य के प्रति संदेह और विद्वेष के बीज बोए। भारत और भारत के बाहर के हिंदुओं में जो मुसलमान विरोध और बुद्धि विरोध दिखलाई पड़ रहा है,उसके लिए बत्रा को अपराधी ठहराया ही जाना चाहिए।
यह भारत की बदनसीबी है कि आज उसकी राष्ट्रीय शिक्षा नीति ऐसे व्यक्ति से प्रेरित है जिसने ज्ञान को ही भूमिगत हो जाने पर मजबूर किया।बत्रा ने अवश्य ही संतोष के साथ अपना आख़िरी समय गुज़ारा होगा कि भारत के हिंदुओं में सांस्कृतिक गौरव लाने की उनकी कल्पना अब साकार हो रही है। उनका संगठन आज भारत के सबसे प्रभावी संगठनों में एक है। उसके पदाधिकारी हर शिक्षण संस्था में आदरपूर्वक बुलाए जाते हैं। उनकी सिफ़ारिशों पर शिक्षा की नीतियाँ बनती हैं और पाठ्यपुस्तकें लिखी जाती हैं। निश्चय ही यह उनका गौरव का क्षण है। लेकिन क्या भारत के बारे में भी यही कहा जा सकता है?
अपनी राय बतायें