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भारत की अफसरशाही आरएसएस के गुंडाराज के आगे नतमस्तक क्यों

भारत में गुंडा राज चल रहा है। हाल की दो घटनाओं से इसका सबूत मिलता है। एक उदयपुर में आर एस एस के उपद्रवियों द्वारा उदयपुर में 9 साल से चले आ रहे सालाना फ़िल्म उत्सव को भंग करने की घटना है। दूसरी  हिंदुत्ववादी गुंडों के द्वारा देहरादून के मशहूर दून स्कूल के परिसर में घुसकर वहाँ स्थित एक मज़ार के तोड़ने की घटना है।  
आर एस एस  के उपद्रवियों ने उदयपुर फ़िल्म उत्सव के दूसरे दिन शबनम विरमानी की फ़िल्म ‘हद-अनहद’ को बाधित किया और उनके दबाव में आर एन टी मेडिकल कॉलेज प्रशासन ने उत्सव की अनुमति वापस ले ली।आर एस एस के उपद्रवियों ने उत्सव पर हमले का बहाना यह बनाया कि आयोजकों ने इज़राइली हमले में मारे गए बच्चों और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर साईबाबा को श्रद्धांजलि क्यों दी। गुंडों की संख्या  अधिक न थी। लेकिन कॉलेज के प्राचार्य कक्ष में उनको ससम्मान बिठाया गया। फ़िल्म उत्सव के आयोजकों को उनसे बातचीत के लिए बुलाया गया। प्राचार्य या कॉलेज प्रशासन ने  उत्सव की अनुमति दी थी।हॉल के इस्तेमाल के लिए शुल्क लिया था। लेकिन वे अपनी अनुमति के पक्ष में आर एस एस वालों को कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थे।उनका कहना था कि आयोजकों को आर एस एस के गुंडों की बात मान लेनी चाहिए।
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आर एस एस वालों के मुताबिक़  साईबाबा आतंकवादी थे। फ़िलिस्तीन भी आतंकवादी है। इसलिए उन्हें श्रद्धांजलि  देना आतंकवाद का प्रकारांतर से समर्थन है। उन्होंने आयोजकों को आदेश दिया कि वे लिखित रूप से स्वीकार करें कि फ़िलिस्तीन में मारे गए  बच्चों की याद में कार्यक्रम करके उन्होंने गलती की है। उन्हें कन्हैयालाल टेलर और देवराज मोची को श्रद्धांजलि देनी होगी। वे अपने साथ लिखित मसौदा लाए थे जिसे ज्यों का त्यों जारी करने की माँग वे आयोजकों से कर रहे थे। आयोजकों ने कहा कि वे हर तरह की हिंसा और हत्या के ख़िलाफ़ हैं लेकिन आर एस एस के उपद्रवी अड़े थे कि जो वे लिख कर लाए हैं वही आयोजकों को जारी करना होगा।  
प्राचार्य कक्ष में पुलिस अधिकारी भी थे।लेकिन वे आर एस एस के सामने प्राचार्य की तरह असहाय थे। वे उपद्रवियों को यह नहीं कह पाए कि उन्हें किसी दूसरे नागरिक के साथ जोर ज़बर्दस्ती करने का अधिकार नहीं है। प्राचार्य को भी संभवतः उनकी बात ग़लत नहीं लगी। वहाँ कुछ डॉक्टर भी थे जो आर एस एस के उपद्रवियों के साथ ही थे। प्राचार्य ने आयोजकों को कहा कि वे ज़िला प्रशासन से अनुमति ले आएँ। इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी फिर भी प्राचार्य ने इसे एक नई शर्त बना दिया जिसके बिना आगे फ़िल्म उत्सव नहीं चल सकता था।आयोजकों ने कहा कि जो फ़िल्म चल रही  है उसे पूरा होने दें। लेकिन प्राचार्य ने जबरन फ़िल्म रुकवा दी।
आयोजकों ने ज़िलाधिकारी से बात की। उनका रुख़ आर एस एस से अलग नहीं था। भाषा भी वही थी। यानी वे उपद्रवियों से सहमत जान पड़े।लेकिन जब औपचारिक बात हुई तो उन्होंने आयोजकों को अनुमति देने से यह कहकर इनकार कर दिया कि यह उनके और कॉलेज के बीच का मामला है।  लेकिन अगर कोई किसी सार्वजनिक कार्यक्रम पर हमला करे, उसे बाधित करे तो वह अपराध है। उसकी रोकथाम करना प्रशासन का काम है। नागरिकों को सुरक्षा का अधिकार है। उसका ज़िम्मा प्रशासन का है। आयोजकों ने उनसे सुरक्षा की माँग की। उन्होंने आयोजकों और फ़िल्म उत्सव को सुरक्षा देने से भी इनकार कर दिया। उनसे यह उम्मीद करना ही हास्यास्पद है कि वे आर एस एस के उपद्रवियों को क़ाबू करेंगे। वह हास्यास्पद लगे लेकिन कहना ज़रूरी है कि यह उनका दायित्व है। 
यह साफ़ है कि ज़िलाधिकारी ने अपने संवैधानिक दायित्व का उल्लंघन किया। ये वही ज़िलाधिकारी हैं जिनकी निगरानी में अभी कुछ समय पहले उनके प्रशासन ने एक हिंसा की एक घटना के अभियुक्त का घर बुलडोज़र से ध्वस्त कर दिया था। उदयपुर के एक स्कूल में बच्चों के बीच झगड़े में एक बच्चे ने दूसरे को चाकू मार दिया। इत्तफ़ाक़ से वह मुसलमान था। फिर क्या था! उसका परिवार जिस मकान में रहता था, उसे प्रशासन ने बुलडोज़र से ध्वस्त कर डाला।यह अलग बात है कि उस बच्चे का परिवार उस मकान में किराए पर था।
उसमें कुछ और परिवार रह रहे थे। अगर वह उसका भी घर होता तो क्या प्रशासन को उसे ध्वस्त करने का अधिकार था? क्या यह अपने आप में गुंडागर्दी नहीं है? सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में बुलडोज़र के इस तरह के इस्तेमाल को ग़ैर क़ानूनी ठहराया है और इसके लिए प्रशासनिक अधिकारियों को ज़िम्मेवार बनाने को कहा है।यानी  उन्हें क़ानून का उल्लंघन करने के परिणाम भुगतने होंगे। अदालत के फ़ैसले का एक मतलब यह है कि उदयपुर के प्रशासन ने अपराध किया है। 
आश्चर्य नहीं कि ऐसा अधिकारी आर एस एस के उपद्रवियों के साथ खड़ा है। या उसे उनकी बात जायज़ ही लगती है। जब आयोजकों ने कहा कि वे दूसरी जगह यह आयोजन करेंगे और वे उन्हें सुरक्षा दें तो भी प्रशासन ने मना कर दिया। यानी वे नागरिकों को कह रहे हैं कि उनकी सुरक्षा उनका अपना मामला है और वे गुंडों की मर्ज़ी पर हैं!
दूसरी घटना देहरादून के मशहूर दून स्कूल की है। कुछ गुंडे स्कूल परिसर की दीवार फाँदकर घुसे और वहाँ स्थित एक मज़ार को ध्वस्त कर दिया। वह मज़ार वहाँ ज़माने से था। स्कूल प्रशासन ने शायद कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई।  मज़ार तोड़नेवाले गुंडों ने कहा कि प्रशासन ने इसकी इजाज़त दी थी।ज़िलाधिकारी ने सिर्फ़ इतना  कहा कि उन्होंने मज़ार तोड़ने का कोई आदेश नहीं दिया था। लेकिन अपनी टीम वहाँ भजी और संतोष व्यक्त किया कि स्थिति क़ाबू में है। दो जुर्म किए गए हैं: एक जबरन स्कूल में घुसने का, दूसरा मज़ार तोड़ने का।लेकिन ज़िला प्रशासन को इसे लेकर कोई चिंता नहीं है। 
अगर आप इन दोनों ताज़ा घटनाओं पर विचार करें तो आपको भय होना चाहिए। अब भारत के प्रशासनिक अधिकारी आपको यह कह रहे हैं कि यह उनका काम नहीं है कि वे आपकी हिफ़ाज़त का इंतज़ाम करें। दूसरे, वे आर एस एस और अन्य हिंदुत्ववादी गिरोहों की गुंडागर्दी के साथ खड़े हैं। भारत में क़ानून के राज को क़ायम रखने का जिम्मा प्रशासन और पुलिस का है। अगर दोनों ही इससे इनकार कर दें बल्कि अगर ख़ुद गुंडों के साथ हो जाएँ तो क्या इस देश में संविधान जीवित रह सकता है?
सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत साफ़ कहा है कि बुलडोज़र के इस्तेमाल के लिए प्रशासन ज़िम्मेवार होगा। इस फ़ैसले की अहमियत है। अदालत ने यह नहीं कहा कि राजनीतिक दल इसके लिए जवाबदेह हैं। अग्र कोई राजनीतिक दल बुलडोज़र के द्वारा ‘इंसाफ़’ की बात करता है तो उसका विरोध राजनीति से करना होगा। लेकिन बुलडोज़र चलाता प्रशासन है। बुलडोज़र के ग़ैरक़ानूनी इस्तेमाल के लिए ज़िम्मेवार भी वही होगा। 
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पिछले 10 सालों में जो सबसे अधिक चिंताजनक बात हुई है, वह है भारत में प्रशासन का ‘गुंडाकरण’। साथ ही उसका हिंदुत्ववादी हो जाना। पुलिस अधिकारी कांवड़ियों के चरण पखारने लगें और उनपर फूल बरसाने लगें तो वे मुसलमानों के कारोबार को भी बंद करवाएँगे ही। मुज़फ़्फ़रनगर और सहारनपुर ने पुलिस ने आदेश जारी किया था कि दुकानवाले अपना और अपने कर्मचारियों के नाम प्रमुखता से प्रदर्शित करें। सावन में ये अधिकारी गोश्त की दुकान बंद करवाते हैं। और ये ही  अधिकारी खामोशी से देखते हैं कि हिंदुत्ववादी गुंडे मुसलमान मेंहदी लगाने वालों को हटा रहे हैं। 
प्रशासन या राज्य के  हिंदुत्ववादी होते जाने पर हमने कभी विचार नहीं किया है। उन्हें यह कहकर छूट दी जाती रही है कि बेचारे ऊपर  के आदेश का पालन कर रहे हैं। लेकिन वे उस आदेश को मानने से इनकार कर सकते हैं। अगर वे ऐसा नहीं करते तो वे ख़ुद अपराध कर रहे हैं।
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अपूर्वानंद
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