यह इस सरकार के ख़िलाफ़ सबसे बड़ा अविश्वास प्रस्ताव है। दिल्ली की सड़कों पर चल रहे इन पैरों को देखकर अंग्रेज़ी की कहावत ‘वोटिंग फ़्रॉम देयर फ़ीट’ की याद आ जाती है। ये सब अभी अपने पैरों से ही बता रहे हैं कि इस सरकार पर उन्हें भरोसा नहीं है। वे सरकार, बल्कि सरकारों के किसी आश्वासन को अपने जीवन का आश्वासन नहीं मानते, इसलिए जा रहे हैं।
यह अविश्वास जनता सरकार के प्रति व्यक्त कर रही है। वह नहीं मान पाती कि इस संकट में सरकार उनका साथ दे सकती है। एक ही हफ़्ते में आख़िर ऐसा क्या हुआ कि जिस सरकार के कहने पर जनता ने दिन भर ख़ुद को बंद कर लिया था, वह उनके हाथ जोड़ने के बावजूद बांध तोड़कर सड़क पर उमड़ आई है?
ये लोग सरकार से यह नहीं पूछ रहे कि आपने तो हवाई रास्ते से हमारे हमवतनों को वापस देश बुला लिया, हमें अपने देस जाने के लिए रास्ते पर क्यों छोड़ दिया।
वे किसी राष्ट्र में, किसी देश में वापस नहीं जा रहे। वे अपने देस जाना चाहते हैं। देश और देस के फ़र्क़ की व्याख्या के लिए किसी साहित्य की कक्षा में बैठने की ज़रूरत नहीं।
वे हमसे-आपसे भी कुछ नहीं माँग रहे। गुड़गाँव के मित्र ने लिखा, “आज एक दिहाड़ी मज़दूर से बात हुई, उसने कहा कि उसे हमसे राशन नहीं चाहिए क्योंकि वे लोग कल सुबह यूपी में अपने गाँव जा रहे हैं, पैदल।” उन्होंने लिखा कि ये लोग आख़िर इतने निःस्वार्थ कैसे हैं?
ऐसा क्यों है कि जो एक को निःस्वार्थ दीखता है, वह दूसरे को ग़ैर-ज़िम्मेदार नज़र आता है। शासक दल के एक सांसद ने इस सामूहिक गमन के दृश्य से झुँझलाकर कहा, “ये लोग क्यों जा रहे हैं? क्या वहाँ कोई रोज़गार, कोई धंधा इनका इंतज़ार कर रहा है? नहीं। परले दर्जे की ग़ैर-ज़िम्मेदारी। ज़बर्दस्ती की यह छुट्टी इनके लिए अपने लोगों से मिलने का बहाना बन गई है। इन्हें स्थिति की गंभीरता का ज़रा भी पता नहीं।”
यह टिप्पणी सिर्फ़ हृदयहीन नहीं है, यह अश्लील है और राष्ट्रवाद की अहंकारी बीमारी का एक लक्षण है। यह वह सांसद है जो राष्ट्र को जपता है लेकिन उसे बनाने वाले जन से उसका कोई वास्ता नहीं।
इस महागमन से उस सांसद को यह समझना चाहिए कि इन जाने वालों को स्थिति की गंभीरता का उससे हज़ार गुना ज़्यादा अन्दाज़ है। वह आर्थिक भूकंप को सबसे पहले महसूस करता है। उसे मालूम है कि ये महानगर उसे शरण नहीं दे पाएँगे और सबसे पहले उसका बलिदान कर देंगे।
वह ग़ैर-ज़िम्मेदारी नहीं है, सांसद महोदय। वह ख़बर पढ़िए जिसमें गांव पहुँचकर तीन लोग पेड़ पर क्वरेंटीन के 14 दिन गुज़ार रहे हैं। उस कामगार को सुनिए जो कह रहा है कि गाँव में घुसने से पहले पहले अपनी जाँच करवाएगा। वह आपके समाज का नहीं है, जो कोरोना के लक्षण छिपाकर पार्टियाँ करता है।
वह जा रहा है क्योंकि वह दिल्ली-मुंबई के लोगों की आत्मा पर बोझ नहीं बनना चाहता। आपका निवाला आपके गले की फाँस न बने, इसलिए वह जा रहा है।
वह शरणार्थी और आपकी दया और करुणा का पात्र बनकर, रोज़-रोज़ राहत लेकर आने वाले दयालु लोगों की गाड़ियों के इंजन की आवाज़ के इंतज़ार में जीवन नहीं गुज़ारना चाहता। वह आपका लाभार्थी नहीं है और न वैसे जीना चाहता है।
और वे अभिजन भी इन्हें देखें जो इन सबको सरकार की पैदल सेना बनाना चाहते हैं। इन्हें अपने कमांडर पर भरोसा नहीं, उसके फ़ैसले के कारगर होने पर उसे कोई यक़ीन नहीं। ये लोग यह जानते हैं कि कमांडर नारे लगाने के अलावा कुछ नहीं जानता। उसे मालूम है कि उसे ही ख़ुद का ख़याल रखना है।
नहीं, छुट्टी, अवकाश उसके लिए नहीं, वह रामभरोसे है, टीवी के रामायण का दर्शन अभी उसके भाग्य में नहीं है। राष्ट्रीय संस्कृति उसका प्राप्य नहीं है। वह सिर्फ़ एक आर्थिक प्राणी में बदल दिए जाने से इनकार कर रहा है। वह सिर्फ़ जीने के लिए भाग रहा है, यह मान लेना ग़लत है। वह उस शहर, उस राष्ट्र से जा रहा है जिसने उसके मुँह पर दरवाजे बंद कर दिए हैं।
फिर भी, सांसद निश्चिंत रहें, अगले चुनाव में भी मनुष्यता नहीं राष्ट्रवाद ही विजयी होगा। हमारे कवि ने बहुत पहले यों ही नहीं यह कविता रची थी -
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।
वह हरचरना बाजा बजाते हुए ही राष्ट्रवादी लगता है। अब जब वह बाजा पटक कर चल पड़ा है तो ग़ैर-ज़िम्मेदार लग रहा है। वह जो आज लौट रहा है, वह शायद किसी दिन समझ पाए कि कविगुरु ने जब यह गीत रचा था तो उसी को भारत का भाग्य विधाता बताया था। जिस दिन वह यह समझ जाएगा उस दिन वह महाबली का बाजा बजाना भी बंद कर देगा।
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