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जातीय अभिमान को कब तक ढोते रहेंगे भारतीय?

अमेरिका हो या यूरोप, भारतीय प्रायः अपनी जाति साथ लेकर चलते हैं। एक सर्वेक्षण से सिद्ध हुआ कि यह काफी गहरा है। यह शायद सिर्फ हिंदुओं तक सीमित नहीं है। हम जानते हैं कि भारत में मुसलमान हों या ईसाई या सिख, जातिगत भेदभाव हर जगह है। यह भेदभाव इसलिए है कि लोग खुद को किसी एक जाति का मानकर उस पर गर्व करते हैं और उसे संरक्षित और पोषित करना चाहते हैं। 
अपूर्वानंद

"हमारे साथ जातिवाद सवारी नहीं करता है।" अध्यापक गौरव सबनीस ने, जो अमेरिका में रहते हैं, ट्विटर पर इस इबारत वाले पोस्टर की तसवीर लगाई। यह पोस्टर न्यू जर्सी और न्यूयॉर्क को जोड़ने वाली ट्रेन में लगाया गया है। न्यू जर्सी में भारतीय अच्छी-खासी संख्या में रहते हैं। वे इस ट्रेन से आते-जाते हैं। देवनागरी लिपि और हिंदी भाषा में इस घोषणा के साथ कि इस ट्रेन में जातिवाद सवारी नहीं करता, आगे सवारियों को चेतावनी दी गई है कि इस ट्रेन सेवा का संचालक यानी 'द पोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ न्यू जर्सी एंड न्यूयॉर्क पाथ' भेदभाव और नफ़रत को बर्दाश्त नहीं करेगा। 

इस तसवीर को देखकर भारतवासियों के मन में, विशेषकर जो खुद को हिंदी भाषी कहते हैं, मिले-जुले भाव पैदा होंगे। अमेरिका की रेलवे सेवा में हिंदी का प्रयोग देखकर कुछ लोगों का सीना गर्व से फूल उठना चाहिए। 

पोस्टर से नाराज़गी

हिंदी विभागों में प्रायः 'विश्व में हिंदी' जैसे विषय पर जो विचार गोष्ठियाँ होती हैं, उनके लिए यह एक और उदाहरण हो सकता है कि हिंदी का भारत के बाहर कितना प्रसार हो रहा है! लेकिन ज़्यादातर लोग इसे देखकर कुपित हो उठे। क्योंकि हिंदी का इस्तेमाल जो बतलाने के लिए एक अमेरिकी संस्था कर रही है, उसे भारतीय लोग राष्ट्रीय हित में गोपनीय रखना चाहेंगे। 

कहा जा सकता है कि एक तरह से अच्छा है कि हिंदी में लिखा है वरना हर अमेरिकी पर यह ख़ास भारतीय राज खुल जाता।

लेकिन दूसरी तरह इसे देखें तो लगता है कि यह जान बूझ कर किया गया है। क्योंकि हिंदी का यह पोस्टर अजनबी भाषा के कारण उत्सुकता पैदा करेगा और हिंदी न जानने वाला अमेरिकी अपने हिंदी भाषी हमसफ़र से ज़रूर पूछेगा कि इसपर क्या लिखा है। इस तरह दोहरी शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। 

परेशान करने वाले सवाल 

यह बतलाना पड़ सकता है कि जाति  क्या है और क्यों उसके साथ अनिवार्यतः जातिवाद लिखना पड़ता है। फिर भेदभाव और नफ़रत जैसे शब्द भी साथ क्यों लगे आते हैं। हो सकता है यह भी पूछा जाए कि क्या आप भी जातिगत भेद करते हैं!

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अमेरिका में भेदभाव 

गौरव ने बतलाया है कि इसपर उन्हें तरह-तरह की प्रतिक्रिया मिली है। कुछ ने इसे असली मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह फोटोशॉप है। लेकिन फिर दूसरों ने बतलाया कि यह अभी तुरंत की बात भी नहीं है। उन्होंने पहले भी ऐसे पोस्टर देखे हैं। कुछ ने प्रत्याशित क्षोभ के साथ कहा कि अमेरिका वाले पहले अपने यहाँ काले लोगों के खिलाफ भेदभाव से निबट लें, फिर हमें सलाह दें। 

इस बात में तर्क संबंधी दोष है। पहले और बाद क्यों? साथ-साथ क्यों नहीं? दूसरे, जैसा गौरव ने लिखा, यह सन्देश या संकल्प या चेतावनी अमेरिकावासियों के लिए है। वैसे, भारतीय मूल के लोगों के लिए जो अमेरिका में रहते हैं और इस प्रकार की ट्रेन में चलते होंगे। इस सन्देश को भारतवासी अपने लिए मान ही क्यों रहे हैं? 

उनके लिए तो उनका संविधान है, क़ानून हैं। उनके बावजूद वे जातिगत भेदभाव करते हैं। संविधान के बावजूद जातिगत घृणा और हिंसा भारत का हर घंटे का सच है। लेकिन अमेरिका, जाहिरा तौर पर भारत के भीतरी मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। 

हाँ! उस प्रकार के वक्तव्य तो दे ही सकता है जैसा हाल में भारतीय क्रिकेट टीम ने "ब्लैक लाइव्स मैटर" अभियान के प्रति एकजुटता दिखलाते हुए दिया। 

एक ऐतराज यह है कि अमेरिका में जातिगत भेदभाव का सवाल ही नहीं उठता। यह बीमारी भारतीय अपने देश में छोड़कर आते हैं। क्या यह सच है?

क्या 'ब्राह्मण समाज ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका' जैसे संगठन निर्दोष सामुदायिक एकजुटता उपलब्ध करने के प्रयास हैं? इसका उद्देश्य ब्राह्मणों को साथ लाना है जिससे वे अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान हासिल कर सकें। यह ब्राह्मणों का एक अंतरराष्ट्रीय समुदाय गठित करना चाहता है। इसमें उद्योगपति, डॉक्टर, वकील और अनेक पेशों के लोग शामिल हैं। आख़िरी वाक्य या संकल्प बहुत दिलचस्प है: "ब्राह्मण समाज हिंदू जाति व्यवस्था की बुराइयों के पूरी तरह खिलाफ है।" 

क्या यह संभव है कि आप एक तरफ विशेष ब्राह्मण सांस्कृतिक पहचान की खोज करें और दूसरी तरफ जाति की बुराइयों के खिलाफ भी हों? कुछ की समझ है कि ऐसा किया जा सकता है। अपने विशेष जातीय दायरे को किलाबंद करते हुए दूसरों के प्रति उदारता बरती जा सकती है।

कविला पिल्लै का लेख 

'द वर्ल्ड' नामक वेबसाइट पर भारतीय मूल की कविता पिल्लै ने एक लेख लिखा है (https://rb.gy/ueo8l5) जिसमें उन्होंने अपने पिता और माँ की कहानी लिखी है। पिता नायर और माँ इझवा। नायर को जातिक्रम में ऊपर और इझवा को नीचे माना जाता है। 

जाहिरा तौर पर दोनों के प्रेम और विवाह को उनके भारतीय समाज में स्वीकृति मिलना इतना आसान न था। लेकिन वे अमेरिकीवासी होने के कारण उस यातना से शायद बचे रहे। कविता ने अपने पिता का कुलनाम लिया है और इस कारण वे नायर समाज के एक संगठन के कार्यक्रम में शामिल हो पाईं। उसका जो तजुर्बा उन्होंने लिखा है उससे इस उलझन का, जो बहुत से भारतीय मूल के अमेरिकियों में और वह भी युवा अमेरिकियों के मन में है, कुछ अंदाज मिलता है। 

नायर सर्विस सोसाइटी के इस जलसे में नायर इतिहास और संस्कृति प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था जिससे नायर अमेरिकी बच्चे अपनी जड़ों से जुड़े रहें। साड़ी सेल, पारंपरिक खानपान, नृत्य ,आदि इस आयोजन के अंग थे। इसे कोई भी गैर भारतीय अमेरिकी एक भारतीय सांस्कृतिक उत्सव ही मानता। लेकिन केरल वासियों को मालूम है कि यह एक बंद आयोजन है। 

गैर नायरों का यहाँ मेहमान की तरह ही स्वागत होगा। अपने लोगों की तरह नहीं। या वे खुद ही इससे अपने आपको दूर रखेंगे। जाति की यही खासियत है। हर किसी को अपनी जगह और अपना दायरा मालूम होता है।

कविता ने इस आयोजन में हुए प्रश्न-उत्तर सत्र की एक झलक दी है। श्रेया मेनन नामक एक युवती ने कहा कि उन्हें हिंदू होने पर गर्व है लेकिन वे इसके भीतर जो ऊँच-नीच का अभ्यास है, उससे हमेशा परेशान रहती हैं। क्या यह सम्भव है कि कि इसका समाधान हो सके? उनका उत्तर जिस युवक को देना था, उसने भी स्वीकार किया कि जाति को लेकर उसे खासी उलझन है। हाँ! इसमें एक प्रकार की अमानवीयता है। 

आरक्षण से परेशानी 

फिर आंबेडकर साहब के हवाले से उसने जाति के उन्मूलन की बात की। लेकिन जल्दी ही वह यह बात करने लगा कि भारत में एक विपरीत भेदभाव हो रहा है। वह आरक्षण की चर्चा कर रहा था। 

आरक्षण को वह 'उच्च जातियों' के खिलाफ भेदभाव मानता है, यह साफ़ था। फिर जाति के उन्मूलन के उसके संकल्प का क्या हुआ?

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जाति का साथ ज़रूरी?

अमेरिका हो या यूरोप, भारतीय प्रायः अपनी जाति साथ लेकर चलते हैं। अमेरिका में हर इलाके में इस भेदभाव के स्तर की जानकारी लेने के लिए 'इक्वलिटी लैब' ने एक सर्वेक्षण किया और उससे यह सिद्ध हुआ कि यह काफी गहरा है। यह शायद सिर्फ हिंदुओं तक सीमित न होगा। 

हम जानते हैं कि भारत में मुसलमान हों या ईसाई या सिख, जातिगत भेदभाव हर जगह है। 

यह भेदभाव इसलिए है कि लोग खुद को किसी एक जाति का मानकर उस पर गर्व करते हैं और उसे संरक्षित और पोषित करना चाहते हैं। उसका औचित्य खोजने की कोशिश करते हैं। कविता ने नायर सोसाइटी के जिस जलसे का ब्योरा लिखा है उसी में उन्होंने बतलाया है कि किस प्रकार एक वक्ता ने जाति विभाजन को एक कंपनी में कार्य विभाजन के समतुल्य ठहराया। 

अमेरिका में रहते हुए अपने लिए सारा खुलापन और समानता माँगते हुए भारतीय खुद अगर छोटे-छोटे दड़बे सांस्कृतिक विशेषता की रक्षा के नाम पर बना रहे हैं तो फिर इससे उनके पाखंड का पता चलता है।

जाति को मज़बूत करने की कोशिश 

गौरव ने ही टीवी पर आने वाले विवाह के विज्ञापनों का जिक्र किया है जो जातियों के भीतर ही वर या वधू की तलाश के लिए होते हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि लड़कियों की काले युवकों के साथ तसवीर चेतावनी के तौर पर लगाई जाती है कि इस बुराई से अपनी लड़कियों को बचाया जाए। 

कविता ने भी लिखा है नायर समाज के आयोजनों का एक मुख्य काम अब नायर समाज के भीतर वैवाहिक संबंध के लिए मध्यस्थ का भी है। इससे जाति टूटने की जगह मजबूत ही होगी। 

कहा जा रहा है कि जो दूसरी पीढ़ी के भारतीय-अमेरिकी हैं, उनमें यह बुराई नहीं है। लेकिन भारतीय तो अमेरिका आते ही रहेंगे। और जाति का विषाणु उनके साथ आता रहेगा। उसका टीका कौन खोजेगा?

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