‘रामचरितमानस’ को लेकर बहस छिड़ गई है। इसे तो शुभ समाचार मानना चाहिए कि किसी समाज में साहित्यिक रचना पर सार्वजनिक बहस हो। लेकिन अभी बहस नहीं हो रही है बल्कि जिनके वक्तव्य से विवाद शुरू हुआ, उनको लानत भेजी जा रही है और धमकी दी जा रही है। धमकी, गाली गलौज, मार पीट की धमकी तो कोई सांस्कृतिक तरीक़ा नहीं है वाद-विवाद का लेकिन इससे कम से कम आज की संस्कृति के बारे में मालूम होता है। इससे मालूम होता है कि अमर्त्य सेन ने जिस भारतीय की बात की थी, जो तर्कशील है और जिसकी तर्क वितर्क में रुचि है, वह मात्र उनकी कल्पना की आशा है। असल भारतीय क्या तर्क नहीं करता, अपने से असहमत के साथ गाली गलौज करता है?
इसके पहले कि हम राष्ट्रीय जनता दल के नेता प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर के उस बयान पर बात करें जिसने “हिंदू भावनाओं” पर कुठाराघात किया है, उनपर हो रहे हमले के बेतुकेपन की चर्चा भी कर लें। कुछ लोग कह रहे हैं कि क्या वे दूसरे धर्मों के ग्रंथों पर भी इसी तरह बात कर सकते हैं। यह अपेक्षा नितांत अतार्किक है। चंद्रशेखर जिस धर्म को मानते हैं, जो उनके जीवन को संचालित करता है, उनपर प्रभाव डालता है, वे उसी पर बात करेंगे न? अगर उस धर्म के आदरणीय ग्रंथों में ऐसे प्रसंग हैं जो हिंदुओं में कुछ तबकों को हीन बतलाते हैं, तो वे उसे लेकर अपनी शिकायत रखेंगे। उससे यह कहना कि आप क़ुरान या बाइबिल पर क्यों कुछ नहीं बोलते बिलकुल मूर्खतापूर्ण माँग है। यह कहकर सुविधाजनक तरीक़े से उस प्रश्न से भी छुटकारा पा लिया जाता है जो प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर जैसे लोग हिंदुओं के बीच समादृत ग्रंथों को लेकर उठाते रहे हैं। प्रश्न यह है कि ऐसे ग्रंथ या किताब का क्या करें जो उन्हें छोटा, हीन मानकर उनके साथ हिंसा को जायज़ ठहराती है। यह इसलिए कि वह ग्रंथ उनके समाज के सोचने समझने के तरीक़े को प्रभावित करता है। इसलिए वह उन्हें परेशान भी करता है।
प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर ने ‘रामचरितमानस’ की जिन पंक्तियों के बारे में कहा है कि वे समाज में घृणा फैलाती हैं, ज़माने से उनपर बहस होती रही है। तुलसीदास और रामचरितमानस के वकीलों में कुछ का कहना है कि ये पंक्तियाँ प्रक्षिप्त हैं। कुछ कहते हैं कि शूद्र, पशु, नारी को ताड़ना के योग्य माननेवाली पंक्तियों का ग़लत अर्थ निकाला जा रहा है। उनके अनुसार ताड़ना का अर्थ यहाँ देखने से है। कुछ उसे तारने से जोड़ रहे हैं।
कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि यह तुलसीदासजी का कथन और उनका विचार नहीं है। यह तो समुद्र का संवाद है। राम के क्रोध से बचने के लिए अपनी निंदा के क्रम में उसने यह सब कहा है। फिर भी प्रश्न तो रह ही जाता है कि क्यों समुद्र ने ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी को ताड़ना के योग्य माना। ढोल को पीटने से ही उसका काम होता है, यानी वह बजता है। वैसा ही व्यवहार शूद्र, पशु और नारी के साथ करना चाहिए, तभी वे अपना काम करेंगे। ताड़ित करना, यानी दंडित करना, दंड देकर शिक्षा देना।
मर्यादा पुरुषोत्तम इसी मर्यादा की रक्षा के लिए सीता को वनवास देते हैं, शंबूक को मारते हैं। उन्हें ब्राह्मण कुल से द्रोह करनेवाला नहीं सुहाता।
वे कबंध की हत्या कर डालते हैं। राम को किशोरावस्था में ही वन में ऋषियों के तप में बाधा डालनेवाले राक्षसों का संहार करने का काम करना पड़ता है। यह सवाल मेरे मित्र प्रोफ़ेसर मालाकार ने एक बार किया था कि क्या हमने इस बात पर विचार किया है कि ऋषि वन में जाकर, जो राक्षसों का वास स्थान है, क्यों अपना आश्रम बनाना चाहते हैं और क्यों वहीं तपस्या करते हैं। फिर वे उन वनों के मूल निवासियों का संहार करने के लिए राजाओं को बुलाकर लाते हैं। ये किस प्रकार की तपस्या जिसकी रक्षा के लिए राजाओं को आना पड़ता है और क्यों हम यह नहीं सोचते कि राक्षस उनके इस अतिक्रमण से आशंकित होकर ही उन्हें भगाने की कोशिश करते होंगे।
राम के चरित्र के महिमामंडन का कारण यह अवश्य रहा होगा कि वे सामाजिक मर्यादाओं के पालन और उनकी रक्षा के लिए सबसे विश्वसनीय पात्र जान पड़ते हैं। लेकिन शबरी और केवट के साथ राम समानता का नहीं, एक कृपालु राजावाला व्यवहार ही करते हैं।
जिस भक्ति साहित्य की हम बात करते हैं कि वह क्रांतिकारी था, उसके बारे में यह सोचने की ज़रूरत है कि उसमें किसी भी स्तर पर जाति या वर्ण आधारित ढाँचे को भावनात्मक या वैचारिक चुनौती नहीं दी जाती। हर भक्त अपनी सीमा में रहते हुए मात्र अपने आध्यात्मिक अधिकार की माँग करता है, उसकी ही अरज वह प्रभु से करता है। वह भी क्रांतिकारी भावना है लेकिन वह समानता की भावना नहीं है। आश्चर्य नहीं कि हिंदू समाज में, जिसकी भावनात्मक शिक्षा या दीक्षा में इस भक्ति साहित्य का काफ़ी योगदान है, असमानता की भावना ऊपर से नीचे तक भरी है। यह इतनी ताक़तवर है कि धर्म परिवर्तन के बाद भी वे इस सामाजिक असमानता के विचार को पकड़े रहे।
यह किंचित विषयांतर है लेकिन आज के प्रसंग में याद करने लायक क़िस्सा है। गोवा के मित्र कलाकार सुबोध केलकर के म्यूज़ियम ऑफ़ गोवा में पाँच जनेऊधारी कबंध एक साथ हैं। उनके साथ उनपर सलीब का निशान भी है। क़िस्सा यह है कि सन 1560 में दीवार टापू में एक ही दिन 1500 हिंदुओं को ईसाई बनाया गया। इनमें ब्राह्मण भी थे। वे ईसाई बनने को तैयार थे। लेकिन उन्हें यह गवारा न था कि वे शूद्रों के बराबर हो जाएँ। उन्होंने बिशप से आग्रह किया कि उन्हें जनेऊ पहनने दिया जाए। बिशप ने उनकी अर्ज़ी पोप के सामने पेश की। पोप ने इसकी अनुमति दे दी। ब्राह्मणों ने धर्म छोड़ा लेकिन असमानता का विचार नहीं।
ताज्जुब नहीं कि इस्लाम और ईसाइयत ने ‘शूद्र’ समाज को अपनी तरफ़ खींचा क्योंकि वह उन्हें उस मर्यादा से मुक्त करते थे। भक्ति आंदोलन में उनके समुदाय के कवि थे तो लेकिन उनमें किसी सामाजिक बदलाव की कोई इच्छा हो जो प्रभावकारी हो सकी हो, इसका उदाहरण नहीं है।
यह विचारणीय है और अध्ययन का विषय है कि आज भी हिंदू समाज में सामाजिक असमानता का विचार क्यों इतना दृढ़ है और उसमें रामचरितमानस जैसे ग्रंथों की क्या भूमिका है। प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर के वचन तिक्त हैं और हमें उनसे असुविधा होती है लेकिन यह अपने आप में कोई कारण नहीं कि उनपर विचार ही न किया जाए। विचार यह करना चाहिए कि क्यों हमारी पवित्रता की धारणा में असमानता की हिंसा का विचार घुसा हुआ है।
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