‘रामचरितमानस’ को लेकर बहस छिड़ गई है। इसे तो शुभ समाचार मानना चाहिए कि किसी समाज में साहित्यिक रचना पर सार्वजनिक बहस हो। लेकिन अभी बहस नहीं हो रही है बल्कि जिनके वक्तव्य से विवाद शुरू हुआ, उनको लानत भेजी जा रही है और धमकी दी जा रही है। धमकी, गाली गलौज, मार पीट की धमकी तो कोई सांस्कृतिक तरीक़ा नहीं है वाद-विवाद का लेकिन इससे कम से कम आज की संस्कृति के बारे में मालूम होता है। इससे मालूम होता है कि अमर्त्य सेन ने जिस भारतीय की बात की थी, जो तर्कशील है और जिसकी तर्क वितर्क में रुचि है, वह मात्र उनकी कल्पना की आशा है। असल भारतीय क्या तर्क नहीं करता, अपने से असहमत के साथ गाली गलौज करता है?
क्या इस पर बहस नहीं होनी चाहिये कि हमारी परंपरा में असमानता क्यों और कैसे है?
- वक़्त-बेवक़्त
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- 29 Mar, 2025

बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर ने जब कहा कि 'रामचरितमानस' की कुछ पंक्तियाँ समाज में घृणा फैलाती हैं तो इस पर विवाद क्यों है? पढ़िए, अपूर्वानंद की क़लम से, आख़िर इसमें सच क्या है।
इसके पहले कि हम राष्ट्रीय जनता दल के नेता प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर के उस बयान पर बात करें जिसने “हिंदू भावनाओं” पर कुठाराघात किया है, उनपर हो रहे हमले के बेतुकेपन की चर्चा भी कर लें। कुछ लोग कह रहे हैं कि क्या वे दूसरे धर्मों के ग्रंथों पर भी इसी तरह बात कर सकते हैं। यह अपेक्षा नितांत अतार्किक है। चंद्रशेखर जिस धर्म को मानते हैं, जो उनके जीवन को संचालित करता है, उनपर प्रभाव डालता है, वे उसी पर बात करेंगे न? अगर उस धर्म के आदरणीय ग्रंथों में ऐसे प्रसंग हैं जो हिंदुओं में कुछ तबकों को हीन बतलाते हैं, तो वे उसे लेकर अपनी शिकायत रखेंगे। उससे यह कहना कि आप क़ुरान या बाइबिल पर क्यों कुछ नहीं बोलते बिलकुल मूर्खतापूर्ण माँग है। यह कहकर सुविधाजनक तरीक़े से उस प्रश्न से भी छुटकारा पा लिया जाता है जो प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर जैसे लोग हिंदुओं के बीच समादृत ग्रंथों को लेकर उठाते रहे हैं। प्रश्न यह है कि ऐसे ग्रंथ या किताब का क्या करें जो उन्हें छोटा, हीन मानकर उनके साथ हिंसा को जायज़ ठहराती है। यह इसलिए कि वह ग्रंथ उनके समाज के सोचने समझने के तरीक़े को प्रभावित करता है। इसलिए वह उन्हें परेशान भी करता है।