यह शर्म की बात है कि पिछले कुछ हफ़्तों से बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) के कुछ छात्र संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संस्थान में डॉक्टर फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे हैं और विश्वविद्यालय का शिक्षक समुदाय इस पर ख़ामोश है। डॉक्टर ख़ान के पक्ष में बोलने से ज़्यादा ज़रूरी इस वीभत्स आंदोलन के ख़िलाफ़ बोलना है। वह इसलिए कि डॉक्टर ख़ान का विरोध सिर्फ़ इस वजह से किया जा रहा है कि वह हिंदू नहीं हैं। संस्थान के अध्यक्ष और विश्वविद्यालय ने स्पष्ट किया है कि डॉक्टर ख़ान की नियुक्ति सारी प्रक्रियाओं का पालन करके की गई है लेकिन फिर भी आंदोलन जारी है।
आंदोलन सकारात्मक शब्द है। अभी जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हो रहा है, उसे हुड़दंग कहना अधिक मुनासिब होगा। इस हुड़दंग में कुछ ही छात्र शामिल हैं लेकिन इसकी चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हो रही है। छात्रों का कहना है कि वे धर्म विज्ञान पढ़ते हैं, चुटिया रखते हैं, गुरु के चरण स्पर्श करते हैं। कुल मिलकर यह कि वे एक ख़ास तरह के हिंदू हैं और किसी ग़ैर हिंदू का स्पर्श भी उनके धर्म को दूषित कर देता है।
अपने “आंदोलन” का औचित्य ठहराने के लिए छात्र विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय की भावना का हवाला दे रहे हैं। उनके मुताबिक़ मालवीय जी इस विभाग में ग़ैर हिंदू का प्रवेश नहीं चाहते थे। इस बात का स्पष्ट सबूत पेश नहीं किया जा सका है। लेकिन अगर ऐसा हो भी तो यह उस वक्त भी ग़लत था जब मालवीय जी ने ऐसा कहा होगा और आज तो ऐसा कहना क़ानूनन अपराध माना जाएगा। इसके बचाव में तर्क दिया जा रहा है कि संस्थान में डॉक्टर ख़ान की नियुक्ति संस्कृत भाषा और साहित्य पढ़ाने के लिए की गई है, धर्म का अध्यापन करने के लिए नहीं।
ज़ाहिर है, डॉक्टर ख़ान इससे अपमानित महसूस कर रहे हैं। अपमानित उन्हें नहीं, हम सबको महसूस करना चाहिए। इसलिए कि हमारे रहते हुए और हमारे समय में ऐसी विकृति बर्दाश्त की जा सकती है। लेकिन यह भी सच है, जैसा किसी अन्य प्रसंग में नेहरू ने कहा था कि समाज में हमेशा ऐसे कुछ लोग रहेंगे जिनके दिमाग़ में ख़लल होगा।
तकलीफ़ इस बात की है कि जिनके दिमाग़ ठीक हैं, वे ऐसे मौक़ों पर ख़ामोश रह जाते हैं। हो सकता है, वे मानते हों कि हुड़दंगी बहुत कम हैं और वे छात्रों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं। लेकिन यह परिसर में खुलेआम हो रहा है, इसकी गंभीरता को अगर वे नहीं समझ पा रहे हैं तो उनके अध्यापक और छात्र होने पर संदेह किया जाना चाहिए।
डॉक्टर ख़ान के अपमान का अहसास करने के लिए भी क्या आपका मुसलमान होना ज़रूरी होगा? क्या इस प्रकार का खुला विद्वेष प्रदर्शन स्त्री और दलित या किसी अन्य धर्म को मानने वाले के ख़िलाफ़ किया जा सकता है? ऐसी स्थिति में और कुछ नहीं हुआ होता तो अब तक किसी अदालत में उपद्रवियों के विरुद्ध मुक़दमा तो दायर हो ही गया होता। लेकिन इस प्रसंग में आंदोलनकारियों से विश्वविद्यालय बाक़ायदा वार्ता कर रहा है।
बनारस में संस्कृत की विद्वत्ता की परंपरा अभी मरी नहीं है। लेकिन वहाँ के संस्कृत के विद्वान बिलकुल ख़ामोश हैं। संभव है उन्हें लग रहा हो कि इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। बाहर के संस्कृत जगत में भी शांति है।
इस पूरे प्रकरण से दो इलाक़ों में संकट का पता चलता है। एक तो संस्कृत और दूसरा हिंदू जीवन। दोनों को संकीर्णता और फूहड़पन ख़त्म करने पर तुले हैं लेकिन दोनों ही अपने श्रेष्ठता के दंभ में चूर हैं। संकट संस्कृत का नहीं, भारत में उसके अध्ययन, अध्यापन और शोध का है। चूँकि इसे आत्यंतिक रूप से हिंदू धर्म से जुड़ा मान लिया गया है, स्कूल से ही इसकी शिक्षा में तथाकथित हिंदू जीवन मूल्यों के प्रचार-प्रसार को ही मुख्य लक्ष्य मान लिया जाता है। यह ‘नीति के उपदेश’ के काम लाई जाती है।
उच्च शिक्षा में प्रायः ऐसे लोगों का प्रभुत्व है जो संस्कृत भाषा के बारे में अनेक प्रकार के मिथ प्रचारित करने में व्यस्त रहते हैं। वे ख़ुद को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि इस भाषा में दुनिया का सारा ज्ञान भरा हुआ है।
धर्म के अध्ययन में कोई बुराई नहीं है बल्कि यह ज़रूरी है। धर्म के अध्ययन का अर्थ किसी को उस धर्म में दीक्षित करना नहीं है लेकिन यह घालमेल बीएचयू में होता दिख रहा है। कोई तो कारण है कि हमारे यहाँ काणे साहब के बाद धर्म शास्त्र का भी कोई विद्वान नज़र नहीं आया।
हिंदू धर्म हो या संस्कृत, दोनों को लेकर ज्ञान अब भारत से बाहर ही पैदा हो रहा है। उसका कारण हिंदुओं के भीतर पैदा कर दी गई असुरक्षा है। संस्कृत भाषा पहले ही ब्राह्मणों की क्रूर संकीर्णता का शिकार होकर लोगों की पहुँच से बाहर हो गई। अगर यह समझना हो कि मुसलमान क्या, दलितों को भी संस्कृत तक पहुँचने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा था तो आपको कुमुद पवाडे की आत्मकथा पढ़नी चाहिए।
आज संस्कृत विभागों में अगर आपको पुरुष और “उच्च जाति” के अलावा और चेहरे दिखते हैं, तो इसका कारण भारत का संविधान है और उसकी रौशनी में बना क़ानून है। मुझे अब तक अपने यज्ञोपवीत संस्कार की याद है। कान में मंत्र फूंकते हुए गुरु ने चेताया था, दो के सामने इसे कभी नहीं पढ़ना। वे दो हैं - स्त्री और दलित।
संस्कृत को इस तरह अपनी मुट्ठी में रखकर इन जातियों ने उसे जीवन से काट दिया। जो ख़ुद को संस्कृत का एकमात्र अधिकारी मानते हैं, उन हिंदुओं को बीएचयू में हो रहे उपद्रव और अपनी शांति से समझना चाहिए कि उनकी नियति क्या है। एक तरह से हिंदुओं ने गुंडों को अपना प्रवक्ता बन जाने दिया है। वे इस अहंकार में डूबे हुए हैं कि वे परम सहिष्णु हैं और उनके नाम पर हिंसा का बाज़ार गर्म है। क्या वे इस हिंसा से प्रसन्न हैं? हिंदू की परिभाषा अगर यह हो जाए कि वह मुसलमान और ईसाई से नफ़रत करनेवाला प्राणी है तो इसमें क्या उनकी कोई भागीदारी नहीं है?
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