आसमान गंभीर हो उठा है। मेघाच्छादित आकाश जैसे थम-थम कर रहा हो अपने अंदर कुछ गहरी बात छिपाए हुए। और उमस बढ़ती जा रही है। देह जैसे खुद से आजिज़ आ गई हो। सब कुछ स्थिर है। सामने बेल का वृक्ष। और उसकी बिलकुल शिखर की फुनगियों तक चढ़ आई उसकी टहनियों से लिपटी हुई मालती की बेल। उसके उजले-गुलाबी रंगत लिए हुए फूलों के बुंदे। एक-एक पत्ता, पत्ती जैसे किसी की प्रतीक्षा में दम साधे हुए। हवा भी जैसे सगुन कर रही हो।
मुसलमान विरोधी नफ़रत की बारिश
- वक़्त-बेवक़्त
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- 9 Aug, 2021

घृणा से विकृत आनंद का परनाला जंतर-मंतर पर बह रहा है। उसकी दुर्गंध मेरे नथुनों में जैसे बस गई है। दस, बारह साल के बच्चे मुसलमानों की हत्या के, उनके संहार के इस खुले प्रशिक्षण-शिविर में दीक्षित हो रहे हैं। उनके बाप, चाचा, भाई इस यज्ञ में शामिल होने उनको साथ लाए हैं। यह भारत का वर्तमान और भविष्य है। यहाँ भी बारिश हो रही है।
और वृष्टि। वह भी स्थिरभाव से। मानो जाने के लिए वह नहीं आई। कोई हड़बड़ी नहीं। एक-एक पत्ती भीग रही है। कोई चंचलता नहीं। किसी की एक दूसरे से प्रतियोगिता नहीं। हरेक को आश्वासन है कि बारिश उसे छुएगी ही नहीं, उसे पूरी तरह भिगोएगी। पोर-पोर हर पौधे का, हर वृक्ष का तृप्त होगा।
मुझे प्रकृति की यह स्थिरता विचलित करती है। मैं जैसे इस बारिश को, पेड़-पौधों को कहना चाहता हूँ "मैं नहीं भीग पा रहा। मेरे भीतर उमस बढ़ती रही है।" यह बरसात जिसे एक खबर की तरह मुझे हिलाना चाहिए था, एक कविता की तरह खिलाना चाहिए था, मुझे जैसे छू ही नहीं पाती। मेरी उद्विग्नता के शमन का वह उपाय नहीं। यह भी सच है कि उसे इसकी परवाह नहीं।