दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने अपनी आपातकालीन शक्ति का प्रयोग करते हुए विधि संकाय द्वारा स्नातक स्तर पर ‘मनु स्मृति’ पढ़ाए जाने के लिए के प्रस्ताव को रद्द कर दिया है। यह इतना असाधारण मसला था कि उन्हें यह बताने के लिए वीडियो वक्तव्य जारी करना ज़रूरी लगा। लेकिन यह फ़ैसला उन्होंने ख़ुद लिया या संघीय सरकार के शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के निर्देश पर उन्हें यह करना पड़ा, इसे लेकर अटकलबाज़ी का कारण है। इस अटकल की वजह ख़ुद धर्मेंद्र प्रधान का बयान है। मनुस्मृति को पढ़ाए जाने के प्रस्ताव की जब चारों तरफ़ आलोचना होने लगी तब धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि ऐसी विवादास्पद चीज़ों को पढ़ाने का सवाल ही नहीं पैदा होता। उन्होंने कहा कि उनकी कुलपति से बात हुई है और उन्होंने कहा है कि इसे विद्वत् परिषद तक पहुँचने के पहले ही रद्द किया जा चुका है।
कुलपति ने कहा कि हम ऐसी चीज़ नहीं पढ़ाना चाहते जिससे समाज के एक तबके को चोट पहुँचती हो। उन्होंने अपनी आपातकालीन शक्ति का प्रयोग करते हुए इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया है। विधि संकाय की अध्यक्ष ने कहा कि प्रस्ताव संकाय में लाया गया और उसपर ख़ासी चर्चा हुई। फिर वह विद्वत् परिषद की स्थायी समिति में गया । किसी ने उसपर आपत्ति नहीं की। अब लोगों की नींद खुली है और वे इसका विरोध कर रहे हैं। ज़ाहिर है कुलपति और शिक्षा मंत्री से उनका मत अलग है और वे ‘मनुस्मृति’ को पाठ-सूची से हटाए के पक्ष में नहीं हैं।
यह टिप्पणी ‘मनुस्मृति’ को शामिल करने के प्रस्ताव के पक्ष या विपक्ष में नहीं है। यह इस निर्णय की प्रक्रिया पर विचार करने के मक़सद से लिखी जा रही है। ‘मनुस्मृति’ को पढ़ाने का प्रस्ताव जितना चिंताजनक था उतना ही, अगर उससे अधिक नहीं तो, चिंताजनक है उसे हटाए जाने के निर्णय की प्रक्रिया। पाठ्यक्रम बनाने का और उसकी पाठ-सूची तय करने का अधिकार संबंधित विषय के विभाग को है। उसके बाद वह प्रस्ताव संकाय की परिषद में जाता है जिसमें उस विषय के अलावा अन्य विषयों के विभागों के प्रतिनिधि भी होते हैं। फिर वह विद्वत् परिषद् की स्थायी समिति या स्टैंडिंग कमिटी में विचारार्थ भेजा जाता है। उसमें भी कई विषयों के प्रतिनिधि होते हैं। उसके बाद विद्वत् परिषद् उसपर चर्चा करके उसका अनुमोदन करती है या उसे अस्वीकार करती है।
इस प्रसंग में मंत्री और कुलपति ने इस प्रक्रिया को बाधित कर दिया है। बल्कि उन्होंने इसका उल्लंघन किया है। विश्वविद्यालय के संचालन में,ख़ासकर उसके अकादमिक मामलों में सरकार के दखल का कोई प्रावधान नहीं है। क़ायदे से मंत्री को कहना चाहिए था कि इस मामले में वे कुछ नहीं कर सकते और निर्णय विश्वविद्यालय को लेना है।
कुलपति के पास हर प्रकार की ताक़त है लेकिन जिस ताक़त का इस्तेमाल उन्हें असाधारण परिस्थिति में करना चाहिए, अगर वे उसका प्रयोग पाठ्यक्रम या पाठ सूची को बदलने में करने लगेंगे तो यह संबंधित विभाग या संकाय की अकादमिक स्वायत्तता का उल्लंघन होगा।
हमें यह मालूम होना चाहिए कि आख़िर विधि विभाग और संकाय के अध्यापकों ने किस वजह से ‘मनुस्मृति’ को पाठ सूची में रखा था, उसके बाद स्थायी समिति ने किस आधार पर उसे स्वीकार किया। क्या पूरे विभाग और समिति में कोई न था जो इसका विरोध करता? क्या इसपर जो चर्चा, बहस होनी चाहिए थी, वह हुई या नहीं या यह प्रस्ताव यों ही पारित हो गया? क्या इस बहस का कहीं कोई रिकॉर्ड है?
जो विधि-विशेषज्ञ है और लंबे समय से अध्यापन कर रहे हैं, उन्हें पाठ्यक्रम बनाने, उसके लिए पुस्तकों को शामिल करने न करने का अधिकार है। विद्वत् परिषद् का यह अधिकार है कि वह उनके प्रस्ताव पर विचार करे। इस मामले में साफ़ है कि विद्वत् परिषद् का अधिकार छीन लिया गया है।आख़िर जो विरोध बाहर हुआ, वह परिषद् के भीतर भी हो सकता था! कुलपति परिषद के अध्यक्ष हैं लेकिन वे इस चर्चा में ख़ुद हिस्सा ले सकते थे और ‘मनुस्मृति’ के विरुद्ध अपने तर्क दे सकते थे।
कुलपति के वक्तव्य से ऐसा लगता है कि इस बारे में ख़ुद उनकी कोई राय नहीं है। वे सिर्फ़ झंझट या विवाद से बचने के लिए ‘मनुस्मृति’ को पाठ सूची में शामिल न करने का निर्देश दे रहे हैं। लेकिन शिक्षा का काम झंझट पैदा करना ही है। समाज के किसी तबके को चोट पहुँचना, न पहुँचना कोई आधार नहीं जिससे तय करें कि पाठ्यक्रम में क्या रहे और क्या न रहे।
भारत के विश्वविद्यालयों में बाहरी दख़ल का बुरा नहीं माना जाता। ऐसा नहीं कि दूसरे देशों में यह नहीं होता लेकिन यहाँ इसपर कभी बहस नहीं होती। जैसे 2011 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठनों ने इतिहास के स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम की पाठ सूची से ए के रामानुजन के लेख 'तीन सौ रामायण’ को हटाने के लिए हंगामा किया, इतिहास विभाग पर हमला किया, उसके अध्यक्ष के साथ हिंसा की। संघ के एक आनुषंगिक संगठन ने सर्वोच्च न्यायालय में मुक़दमा कर दिया।
अदालत ने विश्वविद्यालय को विशेषज्ञों की समिति बनाने का निर्देश दिया जो इसपर विचार करके बताए कि यह लेख पाठ सूची में रहना चाहिए या नहीं। समिति ने लेख को शामिल करने के पक्ष में मत दिया।लेकिन विद्वत् परिषद् की बैठक में तत्कालीन कुलपति ने कहा कि समिति का सुझाव जो हो, इसे लेकर जो इतना हंगामा हो रहा है, उससे बचने के लिए इसे हटा देना चाहिए। उस समय विद्वत् परिषद की बैठक में कुलपति के प्रस्ताव के विरुद्ध सिर्फ़ 9 मत पड़े। इससे हमें मालूम हुआ कि हमारे अध्यापक मित्र भी असल में किसी झंझट में नहीं पड़ना चाहते। मुझे अपने विभागाध्यक्ष से हुई चर्चा याद है। मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने क्यों कुलपति के प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया। उनका जवाब था कि वे वाम और दक्षिण के झगड़े में नहीं पड़ना चाहते थे।बेचारा लेख वाम था या दक्षिण, यह लेखक को भी पता नहीं होगा!
रामानुजन के लेख में कम से कम एक प्रक्रिया का पालन किया गया था। हालाँकि तब भी अदालत को कहना चाहिए था कि वह विश्वविद्यालय की अकादमिक निर्णय की प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करेगी। लेकिन उस प्रसंग में विद्वत् परिषद् का अधिकार उससे छीना नहीं गया था। इस मामले में उसके फ़ैसले से उसके यह पता चलता है कि हमारे विश्वविद्यालय की दुनिया में लोग झंझट में नहीं पड़ना चाहते। लेकिन बिना विवाद में पड़े ज्ञान सृजन का काम कैसे होगा?
पाठ्यक्रम में किसी लेख, किताब को रखने का मतलब उसका अनुमोदन या उसका प्रचार नहीं होता। उद्देश्य उसे आलोचनात्मक तरीक़े से पढ़ना और उसका विश्लेषण करना होता है। ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ को पढ़ाने का अर्थ कम्युनिज्म का प्रचार नहीं है। वैसे ही ‘हिंद स्वराज’ को पढ़ाने का अर्थ गांधीवाद का गुणगान या प्रचार नहीं है। ‘मनुस्मृति’ को पाठ सूची में रखने के मामले में यही तर्क लागू होना चाहिए। लेकिन जो बयान संकायाध्यक्ष ने दिए हैं, उनमें वे यह तर्क नहीं दे रहीं। वे यह नहीं बता रहीं कि क्या पाठ्यक्रम में यह बताया गया है कि ‘मनुस्मृति’ को कैसे पढ़ा जाएगा। क्या उसके साथ डॉक्टर अंबेडकर की उसकी आलोचना भी सुझाई गई है? या वह विश्लेषण से परे है क्योंकि वह प्राचीन भारतीय मत का प्रतिनिधि है? और कम सिर्फ़ प्राचीन भारतीय ज्ञान का गौरवगान है?
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यह बहस विद्वत् परिषद् में हो सकती थी लेकिन शिक्षा मंत्री और कुलपति ने इससे बचने के लिए असाधारण और आपातकालीन शक्ति का प्रयोग कर लिया। इस तरह विश्वविद्यालय ने एक अकादमिक और बौद्धिक क्षण खो दिया जो यह बहस पैदा कर सकती थी। इस पूरे प्रसंग से हमें मालूम होता कि हमने जिन्हें विश्वविद्यालय का बौद्धिक नेतृत्व दिया है वे अपना कर्तव्य निभाने लायक़ भी हैं या नहीं। हो सकता है, इस बार भी 2011 जैसा ही निर्णय होता लेकिन उससे मालूम तो होता कि विश्वविद्यालय के अगुवा समुदाय में बौद्धिक साहस नहीं।
शारीरिक युद्ध से हमेशा बेहतर है बौद्धिक युद्ध। साफ़ है कि संघीय सरकार और कुलपति को इसका यक़ीन नहीं कि उनके पास बौद्धिक अस्त्र शस्त्र हैं जिनसे वे यह युद्ध लड़ भी सकें। इसीलिए उन्होंने रण छोड़ देना ही बेहतर समझा। इससे वे बच गए लेकिन एक बार फिर विश्वविद्यालय की अकादमिक स्वायत्तता घायल हुई है।
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