हेमंत सोरेन
जेएमएम - बरहेट
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पूर्णिमा दास
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देश में ‘कश्मीर फाइल्स’ नाम की एक फ़िल्म की चर्चा है। फिल्म का दावा है कि यह 1990 में कश्मीरी पंडितों के कश्मीर से विस्थापित होने की कहानी और दर्द को बयान करती है। इतिहास के तथ्यों को तोड़कर बनाई गई यह फिल्म अपने साथ मुसलिम-विरोधी भावनाओं को भड़काने का काम कर रही है। प्रधानमंत्री और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भी इस फिल्म की वकालत कर चुके हैं बिना यह जाने कि यह फिल्म मुसलिमों के ख़िलाफ़ देश में माहौल को कुछ इस तरह बना रही है मानो कश्मीरी पंडितों के पलायन के पीछे कश्मीर सहित भारत के तमाम अल्पसंख्यक मुसलमान शामिल थे। ‘प्रायोजित उत्तेजनावश’ कुछ लोग फ़िल्म थिएटर्स में मुसलमानों के खिलाफ़ अपशब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर फिल्म खुलेआम जिन्ना की ‘चिंता’(जिन्ना को लगता था कि मुसलमान बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच असुरक्षित रहेंगे) को सत्य साबित कर रही है तो इसका मतलब है कि यह फिल्म नहीं बल्कि राष्ट्र के विभाजन का साजो-समान है।
चुनाव में पार्टी का नेतृत्व करना और राष्ट्र का वास्तविक प्रतिनिधित्व करना दो अलग बातें हैं। कोई ज़रूरी नहीं कि किसी देश के लोकतंत्र की बढ़ती आयु उसमें परिपक्वता को जन्म दे ही दे। कम से कम आज तो यही प्रतीत हो रहा है।
आज से 107 वर्ष पहले महात्मा गाँधी ने अपने गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की एक घटना को दिल्ली में छात्रों के सामने साझा करते हुए कहा था “एक बार एक हिन्दू संन्यासी गोखले के पास आया और उसने उनसे हिन्दू राजनैतिक उद्देश्यों को इस प्रकार आगे बढ़ाने का प्रस्ताव दिया जो मुसलमानों के लिए दमनकारी साबित होता...। श्री गोखले ने उस व्यक्ति से कहा- अगर एक हिन्दू होने के लिए वो करना होगा जो आप चाहते हैं, तो कृपया विदेश में ये प्रकाशित करवा दीजिए कि मैं एक हिन्दू नहीं हूँ।” यह वो विरासत थी जिसे लेकर महात्मा गाँधी ने भारत में अपनी राष्ट्रवाद की यात्रा शुरू की थी। यही वो नेतृत्व था जिसने देश की आज़ादी के सपने को साकार करने के लिए हिन्दू-मुसलिम एकता को आवश्यक शर्त समझा। हर देश को अनवरत अखंडता की एक क़ीमत चुकानी होती है। यह क़ीमत हर पीढ़ी के राजनेताओं द्वारा चुकाई जाती है। सत्ता की लिप्सा में देश की अखंडता और शांति को दांव पर लगा देना ‘नेतृत्व’ नहीं ‘बीमारी’ का द्योतक है।
भारत की आज़ादी का हर एक संघर्ष हिन्दू मुसलिम एकता के पहिये से ही आगे बढ़ता रहा। 1857 के विख्यात संघर्ष को ही ले लें तो इसका नायक जनरल बख्त खान था जिसने अंग्रेजों से दिल्ली छीन ली थी। मराठा सरदार और मराठा साम्राज्य के निर्वासित वारिस नाना साहब अपने विश्वसनीय सेवक अजीमुल्लाह ख़ान के बिना नहीं लड़ सकते थे। क्रांति की प्रसिद्ध वीरांगना और सुभद्रा कुमारी चौहान की नायिका रानी लक्ष्मीबाई को जब जनरल ह्यूरोज ने मारा तब उनके साथ जो सेविका शहीद हुई थी वो एक मुसलिम थीं। 1857 की क्रांति जिसे सावरकर ने भी स्वतंत्रता का प्रथम संघर्ष कहा है, को जितनी भी सफलता मिली थी उसके मूल में हिन्दू मुसलिम एकता ही थी। अंग्रेजों के समय हिन्दू मुसलिम एकता ऐसे शिखर पर थी कि वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारी एचिंसन को, 1857 के संग्राम के संदर्भ में स्वीकार करना ही पड़ा कि “इस मामले में हम मुसलमानों को हिंदुओं से लड़ा नहीं सकते।”
जूलियो रिबेरो, 1953 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं। गुजरात में पुलिस महानिदेशक रहे और पंजाब में उग्रवाद के दिनों में (80 का दशक) पंजाब को संभालने वाले अधिकारी रिबेरो जब कहते हैं (कारवां, 2019) “देश के मुसलिमों में बहुत अधिक डर है। बहुत अधिक!”, और “कश्मीरी मुसलमानों को भारत का अभिन्न हिस्सा मानकर उनके साथ अपनेपन का व्यवहार करना चाहिए”, तो इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि देश के राजनैतिक नेतृत्व को सतर्क हो जाना चाहिए।
महात्मा गाँधी को दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आए लगभग 107 साल हो चुके हैं। बड़े वकील और राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ गाँधी एक पत्रकार भी थे। जो लगातार कोई न कोई पत्र निकालते रहे। दक्षिण अफ्रीका में ‘इंडियन ओपिनियन’ तो भारत में ‘हरिजन’ जैसे पत्रों का प्रकाशन उन्होंने किया। गाँधी जी ‘सूचना की स्वच्छता’ को बहुत अहमियत देते थे। गाँधी जी के प्रयोगों में राष्ट्रवादी और प्रगतिशील पूँजीपतियों का भरपूर सहयोग रहा। उदाहरण के लिए- जब गाँधीजी ने अहमदाबाद में ‘सत्याग्रह आश्रम’ खोला तो उसमें सहयोग देने के लिए एक मिल मालिक मंगलदास ने गाँधी जी को सहयोग दिया। मंगलदास आश्रम के नाम मासिक चेक पहुँचा देता था जिससे आश्रम का ख़र्च चलता रहा। एक दिन गाँधी जी ने आश्रम में एक ‘अछूत’ परिवार को रहने की अनुमति दे दी। और अगले महीने से रूढ़िवादी मंगलदास ने मासिक चेक भेजना बंद कर दिया। ऐसे में एक और पूंजीपति अंबालाल साराभाई सामने आए और उन्होंने गाँधी जी के इस ‘अछूत’ प्रयोग की प्रशंसा करते हुए उन्हें एक बार में ही अगले दो सालों का आश्रम व्यय दे दिया। शायद यह सहयोग देश की आज़ादी को लेकर था। एक आज़ाद हिंदुस्तान जिसमें खुलकर लोग सांस ले सकें। चाहे अपने सामाजिक सेवा के कार्यक्रम हों या देश की आज़ादी में किए जाने वाले प्रयोग बिना इस उदार पूंजीपति वर्ग के मुश्किल थे।
लेकिन आज 107 साल बाद उसी गुजरात से एक परिवार जो देश का सबसे धनी परिवार है एक ऐसे मीडिया हाउस को आर्थिक सहायता प्रदान करता है जो न सिर्फ़ फेक न्यूज फैलाकर एक समुदाय विशेष के खिलाफ घृणा फैला रहा है बल्कि एक पार्टी विशेष के प्रोपेगेंडा को भी आगे बढ़ा रहा है। साथ ही इस काम के लिए एक विदेशी कंपनी फेसबुक को भी अपने साथ शामिल करके भारत के चुनावों को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है। देश की आज़ादी को अभी 100 साल भी नहीं पूरे हुए और भारतीय कंपनियां देश के लोकतंत्र को अपने मुनाफे की भेंट चढ़ा रही हैं। अंबालाल साराभाई से अंबानी तक की यात्रा आगे बढ़ने की यात्रा है या लगातार पीछे जाने की? भारत आगे बढ़ रहा है या पीछे जा रहा है?
जब राजाराम मोहन राय ‘सती प्रथा’ जैसी घृणित रूढ़ि के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू कर रहे थे तब राधाकांत देव जैसे लोग इस रूढ़ि के समर्थन में ‘धर्म सभा’ जैसी संस्थाएं बना रहे थे। जहां राजाराम मोहन राय चाहते थे कि महिलाओं को जिंदा जलाने की यह प्रथा खत्म हो वहीं राधाकांत देव इसे बनाए रखने के पक्षधर थे। यह बात आज से 200 साल पहले की है। आज की अपनी रूढ़ियाँ हैं, जैसे- मुसलिमों ने इस देश को लूटा, यहाँ की महिलाओं का अपमान किया, यहाँ के मंदिरों को इसलाम के प्रचार के लिए तोड़ा, हिन्दू धर्म का अपमान किया आदि। ‘राधाकांत देव’ जैसे बहुत से लोग आज इन रूढ़ियों को अपने राजनैतिक लाभ के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं जबकि इन तथ्यों के समर्थन में इतिहास में कोई तर्क नहीं है। मुसलिमों द्वारा हिंदुओं के शोषण के इस भ्रम का समर्थन करने के लिए उस समय के हिन्दू संत- कबीर, दादू दयाल, चैतन्य महाप्रभु, शंकरदेव, सूरदास, मीराबाई और यहाँ तक कि रामभक्त तुलसीदास भी तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य में मुगलों के हिन्दू विरोधी रवैये पर कुछ नहीं लिखा।
मुग़ल काल के भारत में केन्द्रीय शासक वर्ग भले ही हिन्दू न रहा हो लेकिन बिना हिन्दू राजपूत राजाओं के समर्थन और राजभक्ति के भारत में शासन संभव नहीं था।
भारत का इतिहास उन घटनाओं से भरा है जिसमें गंगा के मैदानों पर कब्जा करने के लिए दक्षिण और दक्कन के हिन्दू शासक और कृष्णा, कावेरी और तुंगभद्रा के उर्वर क्षेत्रों में कब्जा करने के लिए उत्तर भारत के शासकों ने दक्षिण और दक्कन में भयंकर लूटपाट की है। 8वें- 9वें AD में पाल, प्रतिहार और दक्कन के राष्ट्रकूटों के बीच कन्नौज के लिए चला भीषण संघर्ष इसी का एक उदाहरण है।
ऐसे में यह साफ़ है कि उस काल की घटनाओं को धार्मिक नहीं बल्कि राजनैतिक ज़रूरतों के सापेक्ष समझने की ज़रूरत है। क्योंकि अगर ऐसा नहीं समझा गया तो हमें मराठों को हिन्दू विरोधी कहना पड़ेगा। ऐसे में आज 200 साल बाद फिर से इन ‘राजनैतिक रूढ़ियों’ को तोड़ने के लिए 21 वीं सदी के ‘राजाराम मोहन राय’ की ज़रूरत है।
आज की शीर्ष ‘राजनीतिक रूढ़ि’ है कि मुसलिमों की वजह से ‘हिन्दू खतरे में है’। यह रूढ़ि हिन्दू-मुसलिम एकता और इसलिए देश की अखंडता में भी एक बड़ी बाधा है। यह एकता जितनी मज़बूत होगी एक दल विशेष की लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों की संख्या लगातार कम हो जाने का ख़तरा बढ़ जाएगा। स्वयं के राजनैतिक रूप से अल्पसंख्यक बन जाने के डर से देश के अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जाना नैतिक पतन की पराकाष्ठा है। देश के चुनावों में किसी विदेशी कंपनी (फेसबुक) के दखल को सिर्फ इसलिए प्रयोग में लाया जा रहा है ताकि संसद की सीटें एक खास विचारधारा से भरी रहें। यह कैसा राष्ट्रवाद है जो राष्ट्र की संस्थाओं और लोगों को कमजोर कर रहा है?
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