भारतीय लोकतंत्र में निष्पक्ष चुनावों के ज़रिए जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है। यही प्रतिनिधि आगे मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री का चुनाव करते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में लगभग दो तिहाई बहुमत के साथ भारतीय जनता पार्टी ने विजय हासिल की और 25 मार्च, 2022 को ‘विशाल’ शपथ ग्रहण समारोह हुआ। लोकतंत्र से चुने गए प्रतिनिधियों को ‘राजसी’ अनुभव दिलाने के लिए शपथ ग्रहण को ‘ऐतिहासिक’ बनाया गया।
शपथ ग्रहण का आयोजन, लखनऊ स्थित दुनिया के छठवें सबसे बड़े, इकाना स्टेडियम में किया गया। इस स्टेडियम में 70-80 हजार लोगों के बैठने की व्यवस्था की गई। सादगी से भरी भारतीय विचार परंपरा में एक ‘मॉन्क’ ने करोड़ों रुपये ख़र्च करके संविधान की शपथ ली। शायद यह ‘ऐतिहासिक’ ही था।
जनता के ‘प्रेम’ और ‘समर्थन’ के बहाने, करोड़ों बहाने वाले इस ‘जलसे’ में प्रदेश के दर्द को भुला दिया गया। वह दर्द जिसकी उम्र अभी एक वर्ष भी नहीं हुई। वह दर्द जो हजारों लाशों और चीखों के बीच पिछले साल अप्रैल में कोरोना की दूसरी लहर में शुरू हुआ था। वह दर्द जिसने तब के मंत्री और आज उप-मुख्यमंत्री बन गए ब्रजेश पाठक को अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ चिट्ठी लिखने को बाध्य कर दिया था क्योंकि लगातार होती मौतों से जनता, प्रदेश में ‘सन्नाटे’ को ही अपना मुख्यमंत्री और सम्पूर्ण कैबिनेट मान चुकी थी। यह वही जनता है जिसे दुष्यंत अपने शेर में कुछ यूँ व्यक्त करते हैं-
“जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं”
भूख, महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी और आपदा के कुप्रबंधन से कराह रही जनता को भारत के अपने परिश्रम का, भारत के अपने नागरिकों का, भारत के अपने किसानों के सामर्थ्य से उपजाया गया अनाज राशन के पैकेट में ‘एहसान’ के स्टिकर के साथ प्रदान किया गया। राहत में आई जनता ‘नमक’ का कर्ज उतारना नहीं भूली। और लगभग 18 लाख करोड़ जीडीपी की अर्थव्यवस्था वाला उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी को चलाने के लिए सौंप दिया।
अब जनता ने भले सौंप दिया हो, जनता भले ही आँकड़ों के खेल को न समझ पाई हो लेकिन आँकड़े चीख-चीख कर उत्तर प्रदेश में गरीबी और भुखमरी के आलम को बयां कर रहे हैं।
नीति आयोग ने नवंबर, 2021 में देश के सभी प्रदेशों के बहुआयामी गरीबी के आँकड़े जारी किए थे। बहुआयामी गरीबी में तीन प्रमुख संकेतकों-शिक्षा, स्वास्थ्य व रहन-सहन, को शामिल किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें 12 उप-संकेतकों- पोषण, मातृत्व स्वास्थ्य व स्वच्छता आदि को भी शामिल किया गया है।
इन आँकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश देश का तीसरा सबसे ज़्यादा गरीब प्रदेश है। तीन सबसे गरीब प्रदेशों में दो (बिहार, उत्तर प्रदेश) में बीजेपी के ‘डबल-इंजन’ की सरकार है।
पोषण, इस सूचकांक का एक प्रमुख उप-संकेतक है। नीति आयोग के अनुसार, 44.47% नागरिकों को पोषणयुक्त भोजन भी नसीब नहीं है। सबसे खराब पोषण प्रदान करने वाले देश के चार राज्यों में से तीन (बिहार, मध्य प्रदेश, यूपी) में ‘डबल-इंजन’ की सरकार है।
किशोर बच्चों की मौत के मामले में यूपी नंबर एक पर है। इस सूचकांक में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले 3 राज्यों में ‘डबल-इंजन’ की सरकार है। मातृत्व स्वास्थ्य के संकेतक में यूपी की हालत गंभीर है। नीति आयोग के अनुसार यूपी इस संकेतक में दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला राज्य है। यूपी में 35.45% गर्भवती महिलाओं को प्रसव-पूर्व 4 बार भी मेडिकल जाँच नसीब नहीं हो रही है। जब सामान्य काल में गर्भावस्था जैसे संवेदनशील स्थिति में प्रदेश का स्वास्थ्य ढांचा गर्भवती को चार जांच भी प्रदान नहीं कर सकता तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि क्यों उत्तर प्रदेश का स्वास्थ्य ढाँचा कोरोना की दूसरी लहर में अपनी एक ईंट भी नहीं बचा पाया।
नीति आयोग के अनुसार, सरकारी दावों के विपरीत आज भी उत्तर प्रदेश की 50.50% आबादी के घरों में खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन नहीं है। अर्थात प्रदेश की लगभग आधी आबादी के घरों में आज भी खाना बनाने के लिए उपले, लकड़ी या कोयला जैसे अस्वच्छ ईंधन इस्तेमाल हो रहे हैं। कोरोना को लेकर हुए तमाम हो-हल्ले के बीच सच्चाई ये है कि प्रदेश की 31.20% जनसंख्या के पास स्वच्छतापूर्ण स्थितियाँ उपलब्ध नहीं हैं।
अपने नागरिकों को आवास की उपलब्धता सुनिश्चित करने के मामले में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले शीर्ष 10 राज्यों में से 8 (मणिपुर, अरुणाचल, असम, यूपी, एमपी आदि)में ‘डबल-इंजन’ की सरकार है।
बैंक खाता प्रदान करने व पीने योग्य जल प्रदान करने के मामले में यद्यपि उत्तर प्रदेश ने अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन नीति आयोग के अनुसार बैंक खाता के मामले में सबसे ख़राब प्रदर्शन करने वाले शीर्ष 8 राज्यों में से 7 में व पीने योग्य जल की सुविधा के मामले में ख़राब प्रदर्शन करने वाले 5 में से 3 (मणिपुर, मेघालय, एमपी) में बीजेपी की ‘डबल-इंजन’ की सरकार है। छात्रों की स्कूल उपस्थिति सुनिश्चित करने के मामले में भी यूपी दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला राज्य है।
गरीबी की गर्मी से बचाने के लिए रोजगार के माध्यम से नियमित आय की नहीं मुफ़्त राशन की व्यवस्था की गई। लेकिन गरीबी नहीं रुक रही है।
नीति आयोग के सतत विकास लक्ष्य-2021(SDG) में प्रदर्शन के आँकड़े तो कम से कम यही बता रहे हैं। SDG 1.1 में प्रदर्शन के अनुसार प्रदेश की लगभग 30% जनता गरीबी रेखा के नीचे निवास करती है। SDG 1.3 में प्रदर्शन के अनुसार प्रदेश के मात्र 6.10% लोगों के पास कोई स्वास्थ्य बीमा की सुरक्षा है। बाक़ी लगभग 94% जनता के पास दो ही विकल्प हैं। वो या तो सरकारी अस्पतालों की लंबी लाइनों में जान दे दे, या फिर प्राइवेट अस्पतालों के डायनासोर मुख में अपने परिवार को बेच दे।
SDG 2, शून्य-भुखमरी (ज़ीरो हंगर) की वकालत करता है। खाद्य सुरक्षा का मंत्रालय 5 सालों तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पास रहा। खाद्य सुरक्षा में पोषण का आयाम अंतर्निहित है। इसके बावजूद हालत यह है कि SDG 2.2 में प्रदर्शन के अनुसार उत्तर प्रदेश के 36.8% बच्चे (0-5 वर्ष) अंडरवेट हैं। 38.8% बच्चे बौने हैं। 51% अर्थात आधे से अधिक गर्भवती महिलायें (15-49 वर्ष) एनीमिया से पीड़ित हैं। यही नहीं, प्रदेश के 31.6% किशोर, जो कल भारत के भविष्य बन सकते हैं, भी एनीमिया से पीड़ित हैं।
सामाजिक न्याय और जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ भाषणबाजी के बीच तथ्य यह है कि ‘असमानता’ कम करने के SDG 10 में प्रदर्शन के मामले में उत्तर प्रदेश देश में सबसे पीछे है। नीति आयोग के अनुसार संख्यात्मक रूप से 63.6% अनुसूचित जनजातियों व 28.6% अनुसूचित जातियों के लोगों के ख़िलाफ़ अपराध किए जा रहे हैं। (नीति आयोग-2021)
नई बैठने वाली सरकार को आशा है कि प्रदेश के नागरिकों ने इकाना स्टेडियम के भव्य ‘जलसे’ को सराहा होगा। जब इस जलसे की तसवीरें प्रॉपेगेंडा मशीनों से नागरिकों के मोबाइल तक पहुंचेंगी तब जनता ‘गर्व’ से उठ खड़ी होगी। ग़लत लगता है सरकार को! बहुआयामी गरीबी के आँकड़ें बता रहे हैं कि क्यों राशन ने उत्तर प्रदेश में जीत के वोटिंग पैटर्न में अहम किरदार निभाया। भीषण गरीबी और ऐतिहासिक बेरोजगारी के बीच आत्महत्या तक को उकसाने वाली महंगाई के लिए केंद्र से लेकर राज्य की तमाम नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं।
अपनी असक्षमता को छिपाने के प्रयास में नागरिकों की भूख की कीमत लगाई गई। चुनाव पास आता गया और सरकार राशन की मियाद बढ़ाती गई। तमाम ज़रूरी चीजों के दामों में वृद्धि को चुनाव के मैग्नेटिक प्रभाव ने रोक दिया। चुनाव ख़त्म होते ही ज़रूरी चीजों के दामों ने सीढ़ियाँ चढ़नी शुरू कर दी हैं।
प्रदेश की अर्थव्यवस्था गंभीर अवस्था में है। उत्तर प्रदेश की वर्तमान में लगभग 18 लाख करोड़ की जीडीपी है। जिसे सरकार 2021-22 के लिए 21.73 लाख करोड़ प्रोजेक्ट कर रही है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार यह टारगेट उतना ही अवास्तविक है जितना 2025 तक 5 ट्रिलियन की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था बनाने का था। विशेषतया तब जबकि प्रदेश नवाचार, अवसंरचना और उद्योगों पर न के बराबर गंभीर है। इसकी पुष्टि नीति आयोग द्वारा जारी SDG 9 (उद्योग, नवाचार और अवसंरचना से संबंधित) के आंकड़ों से हो जाती है। इसके अनुसार यूपी ‘आकांक्षी’ राज्यों की श्रेणी में है, जहां कुल नौकरियों का मात्र 10% ही विनिर्माण क्षेत्र से आता है।
5.50 लाख करोड़ के बजट वाला उत्तर प्रदेश 6.11 लाख करोड़ रुपये के ऋण के तले दबा है। उत्तर प्रदेश निकट भविष्य में नौकरियों और बड़ी कल्याणकारी योजनाओं में धन व्यय नहीं कर सकता क्योंकि प्रदेश की आय का लगभग 75% हिस्सा तो तनख्वाह, पेंशन, ऋण के ब्याज व ऋण को चुकाने में जा रहा है। बचे धन में प्रदेश का अन्य ख़र्च कैसे चलेगा, ये सिर्फ सरकार ही बता सकती है। सांप्रदायिक सौहार्द के माहौल के बिना उद्योग उतनी संख्या में नहीं आ सकेंगे जिससे प्रदेश के युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा किया जा सके। इसे आंकड़ों ने साबित भी किया है। 2017-21 के बीच 5 सालों में प्रदेश में विनिर्माण क्षेत्र में 3.34% की नकारात्मक ग्रोथ हुई। जो कि इससे पहले की सरकार (2012-17) के दौरान हुई ग्रोथ,14.64% से मीलों पीछे है। प्रदेश के आय और व्यय में 90 हजार करोड़ रुपये (4.17%) का अंतर है (बजट 2021-22)।
‘उत्सवों’ और ‘ऐतिहासिक’ कार्यक्रमों से ज़्यादा ज़रूरी है प्रदेश की अर्थव्यवस्था को बचाना और इसलिए ज़रूरी है कि सरकार ‘ग़ैर ज़रूरी’ ख़र्चों से बचे। प्रदेश के लोगों के जीवन और रहन-सहन का ख्याल रखना जनप्रतिनिधियों का काम है। क्या इस ऐतिहासिक उत्सव से पहले सरकार ने एक बार भी सोचा कि उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय (41,023 रुपये) राष्ट्रीय औसत (86,659 रुपये) से लगभग आधी है (2019-20)? यही नहीं, योगी आदित्यनाथ के 2017-21 के कार्यकाल में प्रदेश ने मात्र 1.95% प्रति वर्ष की दर से विकास किया (कम्पाउन्ड विकास दर)।
पूरा देश भीषण वित्तीय संकट से गुजर रहा है, अगर प्रदेश के 15 करोड़ लोग राशन लेने को बाध्य हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रदेश के लोग गरीबी और बेरोजगारी के कीचड़ में कितनी बुरी तरह सने हैं। ‘शानदार’ शपथ कार्यक्रम को 15 करोड़ भूखे लोग, करोड़ों बेरोजगार लोग कैसे देखते होंगे? क्या उन्हें भी उसी गौरव की अनुभूति होती होगी? या वो हैं जो सरकार के इस शपथ कार्यक्रम और इकाना स्टेडियम में बीचों बीच बने कालीन नुमा विशाल कमल के फूल को देखकर कहना चाहते हैं-
“आपके कालीन देखेंगे किसी दिन
इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं”
(दुष्यंत)
नीतियों की असफलता को बहुत दिनों तक ‘उत्सवों’ की आड़ में छिपाया नहीं जा सकता। धर्म की आंधी के बावजूद जनता नीतियों से असफल सरकार की लकवाग्रस्त चाल को समझ ही जाती है। कम से कम इतिहास तो यही कहता है। और मुझे नहीं लगता कि इतिहास अपना मुँह बंद करने वाला है।
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