पर्यावरण संरक्षण कैसे होगा- पौधे लगाने से या आईफ़ोन, लैपटॉप, फ़्रिज, कूलर खरीदने से? पौधे खरीदने के लिए मिले पैसे का इस्तेमाल आईफ़ोन, फ्रिज, कूलर ख़रीदने में करने से क्या जंगल बढ़ जाएँगे? क्या वनों का पुनर्विकास हो पाएगा और क्या वन संरक्षण हो जाएगा? कम से कम यही सवाल उत्तराखंड को लेकर सीएजी की एक रिपोर्ट से उठते हैं। आइए, इस पूरे मामले को समझते हैं सिलसिलेवार तरीक़े से।
तमिलनाडु के टी.एन. गोदावरमन थिरुमुलपद, ‘ग्रीन मैन ऑफ़ इंडिया’ ने 1995 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की। उन्होंने नीलगिरि क्षेत्र में वनों की अवैध कटाई और लकड़ी के अवैध कारोबार को रोकने की मांग की। यह मामला भारत में वन संरक्षण के लिहाज से ऐतिहासिक मामला बन गया। इस फ़ैसले के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने ‘वन प्रशासन’ और वन संरक्षण को बहुत विस्तृत आधार प्रदान किया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में दिए गए अपने एक आदेश में केंद्र सरकार से CAMPA अर्थात प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण बनाने को कहा। इस प्राधिकरण से सम्बद्ध करके एक कोष बनाया गया। इस कोष का प्रबंधन CAMPA को करना था। CAMPA का उद्देश्य ग़ैर-वन कार्यों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली वन भूमि की भरपाई करना था जिससे वनीकरण को प्रोत्साहित किया जा सके। 2016 में इससे संबंधित कानून, प्रतिपूरक वनीकरण कोष अधिनियम यानी CAF अस्तित्व में आया जिसे 2018 में लागू कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने 2002 के अपने फ़ैसले में कहा था कि- वन संरक्षण अधिनियम, 1980 का उद्देश्य केवल अधिसूचित वन क्षेत्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि सभी प्रकार के वन क्षेत्रों की रक्षा करना है, चाहे वे सरकारी हों, निजी हों या ग्राम वन हों। कोर्ट ने कहा कि इस अधिनियम को व्यापक रूप से लागू किया जाना चाहिए और इसके माध्यम से पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा की जानी चाहिए। इस तरह हर लिहाज से न्यायालय ने सभी क़िस्म के वनों को वन संरक्षण अधिनियम से जोड़ दिया था।
CAMPA को केंद्र और राज्यों दोनों में प्रशासित करने की व्यवस्था है। मतलब केंद्र का CAMPA फण्ड अलग है और राज्यों का अलग। इस फंड के तहत जो भी धनराशि प्रतिपूर्ति/भरपायी के लिए आती है उसका 90% हिस्सा राज्यों के फंड में जाता है और शेष केंद्रीय CAMPA फंड में जाता है। वास्तव में गोदावरमन निर्णय के बाद अस्तित्व में आया CAMPA फंड इस बात की सर्वोच्च न्यायिक सहमति थी कि अब विकास परियोजनाएँ और जैव विविधता का संरक्षण एक साथ संभव है, बशर्ते सरकारें इस फंड का इस्तेमाल उचित तरीक़े से करें। लेकिन सरकारों ने बार-बार इस फंड का दुरुपयोग किया है। इस कोष के तहत आने वाला धन अनुच्छेद-266(2) के तहत स्थापित भारत के लोकलेखा में आता है। इसलिए इसकी लेखापरीक्षा मतलब ऑडिट के लिए संवैधानिक रूप से भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक यानी CAG को अधिकृत किया गया है। इसी CAG ने अपनी हालिया रिपोर्ट में खुलासा किया है कि उत्तराखंड सरकार ने इस फंड का भीषण दुरुपयोग किया है। जब कैग ने 2019 से 2022 के बीच के CAMPA फंड की जाँच की तो पाया कि उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने लगभग 14 करोड़ रुपये की धनराशि को कानून विरुद्ध तरीके से खर्च किया है।
कानून के अनुसार, CAMPA फंड का उद्देश्य उन जंगलों का पुनर्वनीकरण करना है, जिन्हें औद्योगिक या बुनियादी ढांचे के विकास के लिए नष्ट किया गया है, इसलिए इस राशि को सिर्फ़ और सिर्फ़ जंगलों और वनों के पुनर्विकास के लिए ही ख़र्च किया जाना चाहिए था लेकिन सरकार ने इस राशि को आईफ़ोन, लैपटॉप, फ़्रिज, कूलर जैसे उपकरण ख़रीदने और सरकारी भवनों के रखरखाव आदि में खर्च किया।
पौधों के कम जीवित रहने की दर यह बताती है कि राज्य सरकार ने वनीकरण के नाम पर सिर्फ़ लीपापोती की है।
आइए ये सारे तथ्य इस तरह समझ लें, राज्य CAMPA की अध्यक्षता मुख्यमंत्री करता है। इसका मतलब है कि जो कुछ भी हो रहा था वो सब बिना मुख्यमंत्री की सहमति या जानकारी के बिना नहीं हो सकता था। मतलब यह कि राज्य के मुख्यमंत्री कानून का पालन नहीं कर रहे हैं, उन्हें उत्तराखंड सरकार चलाने के लिए कानून की आवश्यकता, जरूरी नहीं लगती है। ऐसे समय में संविधान राष्ट्रपति से यह आशा करता है कि कानून के अनुसार न चलने वाली सरकार को बर्खास्त कर दें।
उत्तराखंड अभी कुछ दिन पहले समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन को लेकर चर्चा में था। बीजेपी के लगभग सारे नेता इसे संविधान से जोड़कर प्रफुल्लित हो रहे थे। उनका कहना था कि यह संहिता नीति निदेशक तत्वों यानी DPSP में दी गई है। लेकिन क्या राज्य के मुख्यमंत्री नहीं जानते कि साफ़-सुथरा पर्यावरण अनुच्छेद-21 के तहत एक मूल अधिकार है, साथ ही इसे राज्य के नीति निदेशक तत्वों में भी शामिल किया गया है। राज्य का शासन सिर्फ़ समान नागरिक संहिता के साथ नहीं चल सकता इसके लिए स्वच्छ पर्यावरण और जैव विविधता के संरक्षण का भी ध्यान रखना होगा।
इस कैग रिपोर्ट के बाद भी अगर उत्तराखंड सरकार और उसके मुखिया को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया, उन्हें इस्तीफ़ा देने के लिए नहीं कहा गया तो इसे कानून के अनुसार न चलने और पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करने को लेकर केंद्र की तरफ़ से मूक सहमति माननी चाहिए।
प्रधानमंत्री को पता होना चाहिए कि 2015 के पेरिस समझौते के तहत भारत 2030 तक “अतिरिक्त वन और वृक्षों के आवरण के माध्यम से 2.5-3 कार्बन-डाइऑक्साइड-समतुल्य गीगाटन का एक अतिरिक्त कार्बन संचय" करने हेतु प्रतिबद्ध है। समझौते के तहत यह भारत के ‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान’ यानी NDC का हिस्सा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह भारत की कानूनी प्रतिबद्धता है। लेकिन अगर सरकारें इसी तरह से वनों के लिए आए फंड का दुरुपयोग करती रहीं, वन भूमि को ख़राब करती रहीं और वन संरक्षण को बोझ समझती रहीं तो भारत अपनी प्रतिबद्धता कभी पूरी नहीं कर पाएगा। उत्तराखंड पारिस्थिकीय रूप से बेहद संवेदनशील क्षेत्र है। यह क्षेत्र किसी दल की सोच के आधार पर ‘न्योछावर’ नहीं किया जा सकता। यहाँ होने वाली किसी भी क़िस्म की लापरवाही पूरे देश को नुक़सान पहुँचाएगी, इसे बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।
भारत में वन संरक्षण के लिए ऐतिहासिक 2002 के अपने फ़ैसले में तत्कालीन न्यायाधीश जस्टिस जे एस वर्मा ने कहा था कि “वन संरक्षण को केवल क़ानूनी बाध्यता नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि इसे एक नैतिक और सामाजिक ज़िम्मेदारी के रूप में देखा जाना चाहिए”। मेरे समझ से यह एक बेहद जरूरी बात है, केंद्र सरकार को चाहिए कि राजनैतिक विचारधारा को एक तरफ़ छोड़कर पर्यावरण और व्यापक लोकहित को ध्यान में रखकर उत्तराखंड राज्य सरकार की इस लापरवाही पर उसकी जिम्मेदारी तय करे जिससे पर्यावरण संरक्षण के मामले में न सिर्फ़ कठोर, बल्कि ज़रूरी संदेश भेजा जा सके।
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