2005 में जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-1 सरकार सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI) ले आई, तब इस क़ानून का उद्देश्य इसकी प्रस्तावना में साफ़ कर दिया गया था। लोकतंत्र के मूल्यों को ज़िंदा और मज़बूत रखने के लिए लाए गए इस कानून की प्रस्तावना कहती है कि- लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए एक सूचित/जागरूक नागरिक समुदाय और सूचनाओं की पारदर्शिता आवश्यक है जिससे भ्रष्टाचार को नियंत्रित किया जा सके, सरकार और उसकी एजेंसियों को जवाबदेह बनाया जा सके। इस तरह यह कानून अपनी भावना और उद्देश्यों को प्रस्तावना में ही दर्शा चुका था। अब जिम्मेदारी आने वाली सरकारों पर थी कि वो कैसे लोकतंत्र को जीवंत रखने वाले इस कानून को बचाकर रखते।
डेटा प्रोटेक्शन के नाम पर लोगों के अधिकार कम कर रही सरकार?
- विमर्श
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- 30 Mar, 2025

क्या सरकार डेटा प्रोटेक्शन कानून के जरिए नागरिकों की निजता और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश लगा रही है? जानिए नए कानून के प्रभाव और विवाद।
यूपीए-1 सरकार जिस RTI को लेकर आई वह भारत की न्यायपालिका की चिंताओं और उसकी मंशा को भी समाहित करता है। सर्वोच्च न्यायालय बहुत लंबे समय से इस इस बात पर जोर देता रहा है कि ‘सूचना का अधिकार’ एक मौलिक अधिकार है, साथ ही यह भी कहता रहा है कि बिना इसके एक जवाबदेह लोकतांत्रिक सरकार की कल्पना करना बेमानी है। जब 1975 में सर्वोच्च न्यायालय ने राजनारायण मामले में कहा कि- भारत जैसे उत्तरदायी शासन में जहाँ जनप्रतिनिधियों का लोगों के प्रति जवाबदेह होना अवश्यंभावी है, कुछ रहस्य (सीक्रेट्स) तो हो सकते हैं लेकिन यह ज़्यादा नहीं होना चाहिए- तब यह बात स्थापित होना शुरू हो गई थी कि उत्तरदायी लोकतांत्रिक शासन और सूचना का अधिकार अलग-अलग दिशा में नहीं चल सकते। इसके बाद रिलायंस पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड, 1988 में तो सर्वोच्च न्यायालय ने और भी मुखरता से कहा कि ‘सूचना का अधिकार एक मूल अधिकार है, जोकि अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से उत्पन्न होता है और यह अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का अभिन्न अंग है।’ इस टिप्पणी के बाद अब सूचना के अधिकार को कानूनी रूप देना चुनी हुई सरकार की नैतिक ज़िम्मेदारी थी जिसे कांग्रेस ने पूरा भी किया। क्योंकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया था कि सूचना का अधिकार सिर्फ़ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित नहीं है बल्कि इसका संबंध ‘जीवन के अधिकार’ से भी है।