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डेटा प्रोटेक्शन के नाम पर लोगों के अधिकार कम कर रही सरकार?

2005 में जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-1 सरकार सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI) ले आई, तब इस क़ानून का उद्देश्य इसकी प्रस्तावना में साफ़ कर दिया गया था। लोकतंत्र के मूल्यों को ज़िंदा और मज़बूत रखने के लिए लाए गए इस कानून की प्रस्तावना कहती है कि- लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए एक सूचित/जागरूक नागरिक समुदाय और सूचनाओं की पारदर्शिता आवश्यक है जिससे भ्रष्टाचार को नियंत्रित किया जा सके, सरकार और उसकी एजेंसियों को जवाबदेह बनाया जा सके। इस तरह यह कानून अपनी भावना और उद्देश्यों को प्रस्तावना में ही दर्शा चुका था। अब जिम्मेदारी आने वाली सरकारों पर थी कि वो कैसे लोकतंत्र को जीवंत रखने वाले इस कानून को बचाकर रखते।

यूपीए-1 सरकार जिस RTI को लेकर आई वह भारत की न्यायपालिका की चिंताओं और उसकी मंशा को भी समाहित करता है। सर्वोच्च न्यायालय बहुत लंबे समय से इस इस बात पर जोर देता रहा है कि ‘सूचना का अधिकार’ एक मौलिक अधिकार है, साथ ही यह भी कहता रहा है कि बिना इसके एक जवाबदेह लोकतांत्रिक सरकार की कल्पना करना बेमानी है। जब 1975 में सर्वोच्च न्यायालय ने राजनारायण मामले में कहा कि- भारत जैसे उत्तरदायी शासन में जहाँ जनप्रतिनिधियों का लोगों के प्रति जवाबदेह होना अवश्यंभावी है, कुछ रहस्य (सीक्रेट्स) तो हो सकते हैं लेकिन यह ज़्यादा नहीं होना चाहिए- तब यह बात स्थापित होना शुरू हो गई थी कि उत्तरदायी लोकतांत्रिक शासन और सूचना का अधिकार अलग-अलग दिशा में नहीं चल सकते। इसके बाद रिलायंस पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड, 1988 में तो सर्वोच्च न्यायालय ने और भी मुखरता से कहा कि ‘सूचना का अधिकार एक मूल अधिकार है, जोकि अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से उत्पन्न होता है और यह अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का अभिन्न अंग है।’ इस टिप्पणी के बाद अब सूचना के अधिकार को कानूनी रूप देना चुनी हुई सरकार की नैतिक ज़िम्मेदारी थी जिसे कांग्रेस ने पूरा भी किया। क्योंकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया था कि सूचना का अधिकार सिर्फ़ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित नहीं है बल्कि इसका संबंध ‘जीवन के अधिकार’ से भी है।

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सूचना के अधिकार का तात्पर्य यह नहीं कि सरकार से सूचना माँग कर किसी व्यक्ति का शोषण किया जाए। इसका एकमात्र उद्देश्य है ‘जवाबदेह सरकार’ की स्थापना। एक जवाबदेह सरकार असल में जनसरोकारों वाली सरकार होती है जिसका लोकतांत्रिक मूल्यों से विचलन लगभग नहीं के बराबर होता है। लेकिन जब कोई प्रधानमंत्री यह सोचने लगता है कि जनता के पास पहुँच रही सूचनाएं उसकी सत्ता के लिए ख़तरा है, जागरूक जनता उसकी सत्ता के लिए खतरा है, सवाल पूछने वाली जनता उसकी सत्ता के लिए खतरा है तब लोकतंत्र पटरी से उतरकर तानाशाही वाले रास्ते पर चल पड़ता है। 

जनता के हाथ में ताक़त सिर्फ़ एक तानाशाही प्रवृत्ति की सरकार को ही डरा सकती है और अपने इस डर से निजात पाने के लिए ऐसी सरकार जनतंत्र के संस्थानों का इस्तेमाल करके जनता से ही ताक़त छीनने लगती है। 2014 के बाद कुछ ऐसा ही शुरू हुआ।  

2014 के बाद के भारत में एक नई क़िस्म की सरकार ने शासन करना शुरू किया है। जो लोकतंत्र को जवाबदेही और स्वतंत्रता जैसे मानकों में न देखकर ‘नियंत्रण’ जैसे प्रतिगामी विचारों में देखती है। यही सरकार 2023 में ‘डेटा प्रोटेक्शन’ के लिए ‘डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट’ (DPDP) लेकर आई है। यह निर्विवाद है कि 21वीं सदी के इस दौर में व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा एक आवश्यकता है। पूरी दुनिया के तमाम देशों में इससे संबंधित कानून लाए गए हैं। 
भारत में भी डेटा प्रोटेक्शन को आईटी एक्ट-2000 के तहत कवर किया गया है लेकिन जिस तरह दुनिया के सभ्य/विकसित और उदार लोकतंत्रों में डेटा प्रोटेक्शन के कानून उपलब्ध हैं वहाँ के कानून सुरक्षा और प्राइवेसी की आड़ में लोगों के हाथों से लोगों की ही ताक़त नहीं छीनते है।

भारत में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने DPDP एक्ट की आड़ में देश के सबसे जरूरी कानून ‘सूचना का अधिकार’ में ही बदलाव कर दिया है। यह बदलाव ऐसा है जिससे जनता के हाथों से ताकत ही छीन ली जा रही है और RTI जैसे कानूनों का मूल उद्देश्य ही ख़त्म कर दिया जा रहा है। 

असल में RTI एक्ट, 2005, नागरिकों को सार्वजनिक प्राधिकरणों के पास उपलब्ध जानकारी पाने का अधिकार देता है, इससे पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा मिलता है। लेकिन मोदी सरकार द्वारा लाया गया DPDP एक्ट, 2023, RTI एक्ट की धारा 8(1)(j) को धारा 44(3) के माध्यम से संशोधित करता है, जिससे ‘व्यक्तिगत जानकारी’ के नाम पर सूचनाएं देने का सिलसिला थम जाता है, जवाबदेही रोक दी जाती है और ‘भ्रष्टाचार को ढँकने’ का काम शुरू हो जाता है। मूल RTI एक्ट में धारा 8(1)(j) के तहत व्यक्तिगत जानकारी का खुलासा "सार्वजनिक हित" में या सार्वजनिक गतिविधि से संबंधित होने पर संभव था। DPDP अधिनियम इसे पूरी तरह से हटा देता है और कहता है कि व्यक्तिगत जानकारी तब तक नहीं दी जा सकती है जब तक व्यक्ति सहमति न दे। 

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इन शब्दों को फिर पढ़ेंगे तो पायेंगे कि मोदी सरकार यह चाहती है कि अगर गौतम अडानी के संबंध में सूचना लेने की कोशिश की जाए कि उनपर सार्वजनिक बैंकों का कितना धन बकाया है? अगर यह पूछा जाए कि देश में किस-किस को दिवालिया घोषित किया गया है? अगर पूछा जाए कि किन उद्योगपतियों द्वारा बैंक से लिया गया कर्ज एनपीए हो गया है? तो व्यक्तिगत जानकारी का हवाला देते हुए सरकार यह सब बताने से मना कर सकती है। कहने का मतलब यह है कि ‘भारत के लोग’ सरकार से यह नहीं जान सकते कि किन लोगों की वजह से भारत का कोष ख़ाली हो रहा है? किन लोगों की वजह से भारत का धन लूटकर विदेशों में रखा गया है? ‘भारत के लोग’ यह सूचना भी नहीं पा सकेंगे कि अनंत अंबानी का ‘वंतारा’ असल में है क्या? यह कोई अस्पताल है? चिड़ियाघर है? या बचाव केंद्र? ऐसा क्यों होगा? सरकार कहती है कि क्योंकि यह सब व्यक्तिगत जानकारी है! लेकिन मैं कहती हूँ कि असल में यह लोकतंत्र का मजाक है और कुछ लोगों का छिपा हुआ एजेंडा है जिसके भीतर छिपकर वे बड़े बड़े भ्रष्टाचारों को अंजाम देंगे।

मज़ाक ही तो है तभी तो ‘सोशल ऑडिट’ जैसी खूबसूरत अवधारणा को मिट्टी में मिला दिया गया। अब तक जनवितरण प्रणाली में ख़ामी खोजने के लिए लीकेज़ कम करने और भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता RTI का इस्तेमाल करके यह जानकारी ले सकते थे कि किसको उनके हक का राशन मिला और किसका राशन ‘खा’ लिया गया। किस ग़रीब के पेट में पहुँचने से पहले उसके हिस्से के राशन को बाज़ार में बेच दिया गया? लेकिन सरकार अब यह जानकारी देने से सिर्फ़ इसलिए इनकार कर सकती है क्योंकि उसे लगता है कि यह जानकारी उस गरीब की ‘व्यक्तिगत जानकारी’ है कि उसे राशन मिला या नहीं! यही हाल अन्य योजनाओं के बारे में भी होगा। जैसे- किसके घर ‘नल से जल’ नहीं पहुँचा? किसे पीएम किसान सम्मान निधि नहीं मिली? किसके घर बिजली नहीं लगाई गई? आदि, यह सब सूचनाएँ देने से सरकार इनकार कर सकती है। 

यह तो तय है कि मोदी सरकार DPDP एक्ट और RTI में सामंजस्य नहीं बिठा सकी या यह कहूँ कि सामंजस्य बिगाड़ने के लिए ही ऐसा कानून लाया गया। जिससे कोई यह न पूछ सके कि उसका प्रतिनिधि कितना पढ़ा लिखा है? उसकी डिग्रियाँ फर्जी तो नहीं है? उसने शादी की या नहीं? कहीं यह न पता चल जाए कि जनप्रतिनिधि द्वारा चुनाव आयोग को प्रदान किए गए दस्तावेज सही हैं या ग़लत?
इसके अतिरिक्त डेटा प्रोटेक्शन के नाम पर आवश्यक सूचनाएं छिपाने का खेल अब कानूनी रूप ले चुका है। लेकिन इस कानून ने कुछ ऐसा भी बदला है जिसका संज्ञान सर्वोच्च न्यायालय को तत्काल लेना चाहिए। सरकार ने RTI एक्ट से उस बाध्यता को हटा दिया है जिसके तहत जो जानकारी संसद को दी सकती है उसे जनता द्वारा अलग से मांगे जाने पर आवश्यक रूप से दिए जाने का प्रावधान था। मतलब, यह हुआ कि सरकार यह कहना चाहती है कि संसद और भारत के लोग दो अलग बातें हैं। 
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सैद्धांतिक रूप से भारत ने जिस लोकतांत्रिक प्रणाली को चुना उसमें जनता अपने प्रतिनिधि भेजकर देश में शासन करती है, कानून बनाती है। अगर कोई सूचना जनप्रतिनिधि जान सकते हैं तो उसे जनता क्यों नहीं जान सकती? सैद्धांतिक रूप से 140 करोड़ आबादी और 788 जनप्रतिनिधि (543+245) एक ही बात है। DPDP कानून को ‘काले कानून’ की संज्ञा दी जानी चाहिए क्योंकि एक तरफ़ तो यह संविधानप्रदत्त और सुप्रीम कोर्ट द्वारा संरक्षित मूल अधिकारों का हनन करता है, तो दूसरी तरफ़ यह संसद और भारत के लोगों के बीच विभाजन पैदा करता है। अब सुप्रीम कोर्ट ही इसे ‘अल्ट्रावायरस’ (विधि-वाह्य) घोषित कर सकता है जिससे आज़ादी के बाद ‘जवाबदेह सरकार’ बनाने की जन-कोशिशों को धक्का ना लगे।

क्योंकि अगर ऐसा न हुआ और यह व्यवस्था लागू हो गई तो भ्रष्टाचार और आराजकता भारत के दो चेहरे बनेंगे और अपने जनतंत्र के लिए दुनिया भर में मशहूर भारत अपनी गांधीवादी पहचान खो देगा। वही गांधी जो जनता को सशक्त करने के लिए अभय होकर लिखते हैं कि- ‘वास्तविक स्वराज कुछ लोगों द्वारा अधिकार प्राप्त करने से नहीं आएगा, बल्कि सभी के पास उस क्षमता के अर्जन से आएगा, जो दुरुपयोग होने पर अधिकार का विरोध कर सके।’ (यंग इंडिया, 1930)

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वंदिता मिश्रा
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