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स्कूल को धार्मिक प्रचार का जरिया बनाया जा रहा है।

शिक्षा को हिन्दुत्व का प्रोपेगेंडा और मुनाफ़ाखोरी की मशीन बनाने से रोकें

काँग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने लेख ‘द 3C’s दैट हौंट इंडियन एजुकेशन टुडे’ के माध्यम से वर्तमान भारत में शिक्षा व्यवस्था की कमियों को सामने रखा है। द हिंदू में लिखे अपने लेख में श्रीमती गांधी तीन समस्याओं का ज़िक्र करती हैं जिन्हें, नीतिगत रूप से सरकार द्वारा शिक्षा व्यवस्था पर ज़बरदस्ती थोपा गया है। उनका मानना है कि मोदी सरकार नई शिक्षा नीति-2020(NEP) के माध्यम से शिक्षा का व्यवसायीकरण, सांप्रदायीकरण और केन्द्रीकरण करने में लगी है। कभी प्रधानमंत्री जैसे पद का त्याग करने वाली, विपक्ष की नेता और राज्यसभा की वरिष्ठ सांसद के रूप में जब श्रीमती सोनिया गांधी ऐसे आरोप सरकार पर लगाती हैं तो इसकी पड़ताल बेहद जरूरी हो जाती है।
पहला मुद्दा शिक्षा के केंद्रीकरण का है जिसे श्रीमती गांधी ‘ब्रेज़ेन सेंट्रलाइजेशन’ कहती हैं। मतलब केन्द्रीकरण का वह स्वरूप जिसमें केंद्र सरकार निर्लज्जता पूर्ण तरीके से शासन-प्रशासन के तमाम विषयों को अपने हाथ में लेना शुरू कर देती है। भारत एक संघीय व्यवस्था वाला देश है। यहाँ की संघीय व्यवस्था को संविधान की आधारिक संरचना का हिस्सा माना गया है। कहने का मतलब यह है कि, चाहे कितने भी प्रचंड बहुमत वाली सरकार क्यों न हो, वह संविधान में ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती जिससे संविधान का संघीय लक्षण समाप्त हो जाए। 
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42वें संविधान संशोधन(1976) से पहले शिक्षा राज्य सूची(7वीं अनुसूची) का विषय था। लेकिन संशोधन के बाद यह समवर्ती सूची में शामिल कर दिया गया। यह फैसला भी संघीय ढांचे के अनुरूप नहीं था लेकिन चूँकि इसमें राज्य की शक्तियाँ समाप्त नहीं की गई थीं इसलिए इसे लेकर राज्यों द्वारा कभी कोई बड़ा असंतोष ज़ाहिर नहीं किया गया। देश में सब कुछ, जैसा कि कोठारी आयोग ने उम्मीद की थी, ‘सहकारी संघवाद’ के लिहाज से चलता रहा था। लेकिन 2014 के बाद से एक ऐसी सरकार सत्ता में आई जिसने संवैधानिक मूल्यों को मानने से इनकार कर दिया। हर उस संस्था और व्यवस्था से किनारा किया जाने लगा जो राज्यों को साथ लेकर चलने की भावना से बनाया गया था।
केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड(CABE) को ही ले लीजिए, इसकी स्थापना 1920 में की गई थी। भारत के शुरुआती निर्माताओं ने इसे आज़ादी के बाद भी ज़ारी रखने का फैसला किया, क्योंकि उन्हें यह सोचना था कि राज्यों की आवाज़ को मंच मिलता रहे और भारत की एकता अक्षुण्ण बनी रहे। जरा सोचिए कि शिक्षा से संबंधित सबसे पुरानी और सर्वोच्च सलाहकार संस्था जिसका उद्देश्य केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शिक्षा नीति और योजनाओं को लेकर समन्वय स्थापित करना था 6 सालों से इसकी एक बैठक तक आयोजित नहीं की गई। ऐसा क्यों किया गया होगा? पूरे देश की शिक्षा को समन्वित करने वाला एक व्यवस्थित मंच जिसके माध्यम से राज्यों के असंतोष को ठीक किया जा सकता था, उसे काम में ही नहीं लाया गया। इसका क्या कारण रहा होगा?
कारण है मोदी सरकार की एकाधिकारवादी सोच और केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति, जोकि असल में संवैधानिक मूल्यों के साथ बिल्कुल असंगत है। संविधान की 7वीं अनुसूची की समवर्ती सूची में 25वीं प्रविष्टि के रूप में शिक्षा को स्थान दिया गया है वहाँ इसके साथ तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा, विश्वविद्यालय और अनुसंधान भी शामिल हैं। लेकिन वर्तमान सरकार कुछ इस तरह काम कर रही है जैसे उसने कभी संविधान देखा/पढ़ा ही न हो! मुद्दा सिर्फ़ स्कूली शिक्षा का नहीं है।
सरकार, विश्वविद्यालयी शिक्षा को भी अपने ‘नियंत्रण’ में रखना चाहती है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा हाल में जारी किए गए ड्राफ्ट दिशानिर्देश तो कम से कम यही बयान कर रहे हैं। इनके अनुसार राज्यों में चल रहे राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा ही की जानी है। दिल्ली में बैठकर देश के सभी राज्यों की शिक्षा और संस्कृति को नियंत्रित करना कहीं से भी बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय नहीं है।
एक तरफ़ राज्यों से नियुक्ति के अधिकार छीने जा रहे हैं, उन पर अपने मनमर्जी भाषाएँ थोपी जा रही हैं, राज्यों के हिस्से का फण्ड जारी नहीं किया जा रहा है जो अंततः संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार ‘शिक्षा का अधिकार’ का हनन है तो दूसरी तरफ़ सच्चाई यह है कि राज्य शिक्षा पर होने वाले खर्च का 85% अपने कोष से वहन कर रहे हैं (शिक्षा मंत्रालय रिपोर्ट,2022)। केंद्र न ही संवैधानिक जिम्मदारी निभा रहा है, न ही वित्तीय! 
एक बड़ा मुद्दा जो श्रीमती सोनिया गांधी ने अपने लेख में उठाया वह है शिक्षा के निजीकरण और इसके व्यवसायीकरण का। प्रसिद्ध शिक्षक और लेखक जोनाथन कोज़ोल कहते हैं कि "स्कूलों का निजीकरण यह कहने का एक विनम्र तरीका है कि धनी लोगों को बेहतर स्कूल मिलेंगे और गरीबों को बदतर। यह असमानता को गहरा करने की रेसिपी है।"

श्रीमती गांधी की एक वाजिब चिंता यह है कि सरकार ने उच्च शिक्षा के लिए UGC द्वारा दी की जाने वाली ब्लॉक अनुदान व्यवस्था को समाप्त कर दिया है। अब इसकी जगह उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी (HEFA) को लाया गया है। यूजीसी की अनुदान प्रणाली के विपरीत हेफा ‘लोन’ प्रदान करती है। शिक्षण संस्थाओं को यह लोन बाज़ार दरों पर दिया जाता है जिसकी भरपायी के लिए संस्थान छात्रों से भारी फीस की वसूली करते हैं।

मतलब यह हुआ कि सरकार अपनी सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से भागकर शिक्षा जैसी बहुमूल्य जरूरत और पहले से स्थापित अनुदान प्रणाली को मुनाफे और कमाई के बाज़ार में ले आई है। प्रसिद्ध चिंतक नोम चॉम्स्की, कहते हैं कि "जब आप शिक्षा जैसे मामलों का निजीकरण करते हैं, तो आप इसे एक व्यवसाय में बदल देते हैं, और व्यवसायों की आदत जनहित की सेवा करने की नहीं होती—वे मुनाफे की सेवा करते हैं।" चॉम्स्की बताते हैं कि निजी संस्थाएं शैक्षिक गुणवत्ता या पहुंच के बजाय वित्तीय लाभ को प्राथमिकता देती हैं जोकि राष्ट्र के भविष्य के लिए ठीक नहीं है।
 मोदी सरकार को ध्यान देना चाहिए कि आख़िर ऐसा क्या हुआ है कि 2014 के बाद से अब तक लगभग 90 हज़ार सरकारी स्कूल बंद हो चुके हैं और लगभग 42 हज़ार नए प्राइवेट स्कूल खुल गए हैं? सरकारी स्कूल जहाँ की फीस नाममात्र ही होती है वहीं प्राइवेट स्कूल फीस वसूलने और गुणवत्ताहीन शिक्षा के अड्डे हैं। लेकिन सरकारी नीतियों और मुनाफ़े की मंशा की भेंट देश के प्रीमियम संस्थान भी चढ़ चुके हैं। आईआईटी जैसे संस्थान जहाँ योग्यता ही एक पैमाना था वहाँ आर्थिक क्षमता अब दूसरा बड़ा पैमाना बन गया है। 
आईआईटी की ट्यूशन फीस 2016 में ₹90,000 वार्षिक से बढ़कर 2020 में ₹2 लाख से अधिक हो गई। जिन प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता है वहाँ की फीस वह परिवार वहन नहीं कर सकता जिसके लिए 2009 में ‘शिक्षा का अधिकार’ लाया गया था, इस कानून को जीवन के अधिकार के समकक्ष रखा गया था, मौलिक अधिकार का एक स्वरूप बनाया गया था, जिसकी रक्षा के लिए भारत का सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक रूप से बाध्य है।
क्या सरकार यह समझ भी पा रही है कि शिक्षा सिर्फ़ एक मंत्रालय या किसी सूची से संबद्ध विषय नहीं है, यह असल में दशकों बाद के भारत की दिशा और दशा तय करने वाला विषय है जिसे असीमित गंभीरता से लेना चाहिए था, पर मोदी सरकार ने नही लिया और अब इसका असर दिखने भी लगा है।
मोदी सरकार द्वारा किए जा रहे शिक्षा के व्यवसायीकरण के परिणाम दिखाई दे रहे हैं। सरकारी पोर्टल यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस (UDISE+) के अनुसार, सरकारी स्कूलों में नामांकित छात्रों का प्रतिशत 2014 में 67.7% से घटकर 2021 में 62.4% हो गया। इसके अलावा नीति आयोग द्वारा जारी स्कूल शिक्षा गुणवत्ता सूचकांक (SEQI)-2019 ने राज्यों में स्कूली शिक्षा के प्रदर्शन में महत्वपूर्ण असमानताओं को उजागर किया, जिसमें केरल ने 76.6% और उत्तर प्रदेश ने 36.4% स्कोर किया था, जिससे पता चलता है कि केंद्रीकृत नीतियां स्थानीय शैक्षिक आकांक्षाओं को प्रभावी ढंग से संबोधित नहीं कर पा रही हैं।
यूनेस्को द्वारा जारी शिक्षा विकास सूचकांक (EDI), ऐतिहासिक रूप से निजीकरण और असमानता के बीच संबंध दर्शाता है। यह सूचकांक बताता है कि बढ़ता हुआ निजीकरण अपने साथ भारी असमानता लाता है। जब भारतीय उच्च शिक्षा की तुलना उन देशों से की जाएगी जहाँ निजीकरण अपेक्षाकृत काफ़ी कम है तो असलियत निखरकर सामने आएगी। उदाहरण के लिए- भारत जहाँ निजीकरण लगातार, साल दर साल बढ़ता जा रहा है वहाँ सकल नामांकन अनुपात (GER) 2021 में 27.3% था जबकि दूसरी तरफ़ कम निजीकरण वाले जर्मनी में यह 70% है।
लेकिन यदि सरकार की कार्यप्रणाली, शासन व्यवस्था, चुनावी नीतियों, उसके वादों आदि पर ध्यान से विचार करेंगे तो पता चलेगा शिक्षा का निजीकरण, व्यवसायीकरण और केन्द्रीकरण करने के पीछे असली उद्देश्य शिक्षा के संप्रदायीकरण करने का ही है, जिससे हर साल करोड़ों की संख्या में एक ऐसा युवा वर्ग बनकर तैयार हो जिसकी धार्मिक चेतना उसकी प्रबोधन क्षमता पर हावी बनी रहे।
वह इतिहास, भूगोल, गणित सब पढ़े लेकिन सबसे आगे उसका धर्म रहे। एक बड़े वर्ग की तार्किकता, वैज्ञानिकता अपना संतुलन खो दे जिससे मुट्ठी भर लोग 2047 तक भारत पर ‘राज’ करने का अपना सपना पूरा कर सकें। देश की सरकार का मुखिया ख़ुद ऐसे लोगों के आश्रमों में जा रहा है जो खुलेआम अंधविश्वास फैला रहे हैं। यही लोग यह तय कर रहे हैं कि शिक्षा कैसी होगी? किस किस्म के लोग विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ायेंगे? इतिहास की पुस्तक से किसका नाम गायब करना है और किसका जोड़ना है? किसे महान साबित करना है और किसे गद्दार?
वह दिन दूर नहीं जब अमर्त्य सेन जैसे बुद्धिजीवी भारत में प्रतिबंधित कर दिए जाएँगे क्योंकि उनकी सोच ही है "शिक्षा को दिमागों को आजाद करना चाहिए, न कि उन्हें संकीर्ण सांप्रदायिकता या धार्मिक कट्टरता की दीवारों में कैद करना चाहिए," आसानी से उनको नहीं पचेगी जो कट्टरता पर बैठकर शासन करना चाहते हैं। यह सब इसलिए क्योंकि एक धर्मांध भीड़ जिसे विज्ञान से ज़्यादा अंधविश्वास- टोना टोटके, मंत्र-यंत्र पर भरोसा हो, जो आधुनिक दवाओं से ज़्यादा सड़कछाप नारंगी डॉक्टरों पर भरोसा करे, जो राष्ट्र से पहले धर्म के लिए मर मिटे और कुछ स्वार्थी तत्वों की सत्ता क़ायम रहे।
एनसीईआरटी की किताबों से यह बात हटा दी गई कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की थी, मुग़ल इतिहास के एक महत्वपूर्ण हिस्से को हटा दिया गया और सबसे महत्वपूर्ण भारत की नींव संविधान और संविधान की नींव ‘प्रस्तावना’ जो धर्मनिरपेक्षता और समानता जैसे मूल्यों को स्थापित करती है, इसको एनसीईआरटी की किताबों से हटा दिया गया। आखिर क्यों? ऐसी बातें किस किस्म के लोगों को बुरी लगती हैं? जिन्हें धर्मनिरपेक्षता और समानता जैसे शब्दों से दिक्कत है वे लोग किस तरह भारत जैसे देश को विकसित बनाने का सपना दिखा रहे हैं?
पूरे देश ने ऐसा गलत काम होने पर सरकार पर दबाव बनाया, जब पूरे देश का  दबाव पड़ा तब सरकार ने प्रस्तावना को आगे फिर से जोड़ने पर सहमत दिखाई या ये कहें कि उन्हे सहमत होना पड़ा। 2023 में गुजरात के वडोदरा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय ने अंग्रेजी साहित्य के छात्रों के लिए "सनातन साहित्य" (भगवद गीता और उपनिषदों पर आधारित) का कोर्स शुरू किया। 
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कहा गया कि इसे NEP 2020 के "भारतीय ज्ञान प्रणाली" के तहत लाया गया है। लेकिन सदियों से भारत में रचे बसे इस्लाम और ईसाई धर्म को लेकर ऐसा कोई कोर्स नहीं शुरू किया गया। वास्तविकता तो यह है कि भारत में शिक्षा को तेजी से धार्मिक पहचान का माध्यम बनाया जा रहा है, यह बहुत खतरनाक है। विश्वविख्यात इतिहासकार रोमिला थापर इसे अधिनायकवाद से जोड़ते हुए कहती हैं कि "जब शिक्षा एक ही धार्मिक पहचान को बढ़ावा देने का साधन बन जाती है, तो वह शिक्षा नहीं रहती—यह अधिनायकवाद बन जाता है।"
यह जागने और लोकतांत्रिक प्रतिरोध का समय है जिससे शिक्षा को धार्मिक प्रोपेगेंडा मशीन, धन मशीन और व्यक्तिगत जागीर बनाने से रोका जा सके।  
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वंदिता मिश्रा
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