‘क़ानून का शासन’ किसी भी देश की रीढ़ है। यह देश के स्थायित्व की ‘गारंटी’ है। भले ही देश में अनगिनत विचारधाराएँ क्यों न हों लेकिन यदि शासन करने वाला राजनैतिक दल ‘क़ानून के शासन’ से विचलन बर्दाश्त नहीं करता, तब यह मान लेना चाहिए कि देश सुरक्षित है। जिस भी देश में धार्मिक-सांस्कृतिक विविधता की भरमार है वहाँ राष्ट्रीय एकता और अखंडता सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘क़ानून के शासन’ से ही सुनिश्चित हो सकती है। यह कभी भी हजारों लाखों की संख्या में उपस्थित पुलिस, पैरामिलिट्री और सेना से सुनिश्चित नहीं हो सकती। असल में कानून का शासन संख्याबल, आर्थिक-सामाजिक स्थिति, विचारधारा, जाति, धर्म या लिंग से परे जाकर न्याय का आश्वासन देता है। यही वो आश्वासन है जो हर व्यक्ति और समुदाय में सुरक्षा का एहसास पैदा करता है। और अंत में यही सुरक्षा का एहसास, बिना शर्त राष्ट्र प्रेम को जन्म देता है कानून के शासन की उपस्थिति में देश की अखंडता को कभी नुक़सान नहीं पहुंचाया जा सकता है।
क्या त्योहार अब 'सांप्रदायिक दंगों के बहाने' बन गए हैं?
- विमर्श
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- वंदिता मिश्रा
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- 16 Mar, 2025

वंदिता मिश्रा
त्योहारों का उद्देश्य समाज में सौहार्द्र बढ़ाना है, लेकिन हाल के वर्षों में इनके दौरान सांप्रदायिक तनाव बढ़ते दिख रहे हैं। क्या त्योहार अब दंगों के बहाने बन गए हैं? जानिए इसके पीछे के कारण और समाधान।
महान ब्रिटिश न्यायाधीश थॉमस हेनरी बिंघम अपनी शानदार किताब ‘रूल ऑफ़ लॉ’ में लिखते हैं कि "एक ऐसी दुनिया में जो राष्ट्रीयता, नस्ल, रंग, धर्म और संपत्ति के अंतर से विभाजित है, वहाँ कानून का शासन सबसे महान एकीकरण कारकों में से एक है, शायद यह कारक सबसे महान, और संभवतः एक सार्वभौमिक धर्मनिरपेक्ष, धर्म के सबसे करीब है, जहां तक हम पहुंच सकते हैं।" बिंघम अपनी किताब ‘रूल ऑफ़ लॉ’ में यह भी लिखते हैं कि देश को ऐसे नेताओं की अधिक जरूरत है जो क़ानून के शासन को समझते हों क्योंकि बिंघम यह मानते हैं कि क़ानून का शासन सिर्फ़ एक न्यायप्रिय समाज को ही नही जन्म देता बल्कि यह एक ऐसा माहौल तैयार करता है जिस माहौल में देश विकास करते हैं और समृद्ध बनते हैं।
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