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क्या मीडिया का प्रोपेगेंडा भावुक भारतीयों को ठग रहा है?

उत्तर प्रदेश चुनाव, 2022 के नतीजे आ चुके हैं। भारतीय जनता पार्टी को बहुमत मिल चुका है। जल्द ही पार्टी अपना नेता चुनकर सरकार बना लेगी। बहुत से अखबार और मीडिया चैनल्स योगी आदित्यनाथ को बीजेपी का सबसे बड़ा नेता बता रहे हैं और पीएम मोदी को ‘महाब्रांड’ की संज्ञा दी जा रही है। अखबारों की नजर में देश का प्रधानमंत्री एक ‘ब्रांड’ का रूप ले चुका है। विशेषज्ञों की राय है कि लोगों ने मुद्दों पर नहीं ‘ब्रांड मोदी’ को वोट दिया है। अर्थात प्रदेश में कुछ भी हो जाए लेकिन वोट ‘ब्रांड’ के नाम पर ही जाएगा। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानती। लखीमपुर जिले की 7 विधानसभा सीटों में से सभी में बीजेपी को जीत मिली। लखीमपुर वही क्षेत्र है जहां बीजेपी के सांसद और गृहराज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे पर किसानों को जीप से कुचल देने का आरोप है। तो क्या यह मान लिया जाए कि क्षेत्र की जनता को ‘ब्रांड मोदी’ की ज्यादा फ़िक्र थी और बेरहमी से कुचले गए किसानों की नहीं। क्या यह मान लिया जाए कि क्षेत्र की जनता ने बीजेपी को जिताकर किसानों को जीप से कुचले जाने को अपनी सहमति दे दी है?
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हाथरस की विधानसभा सीट भी बीजेपी ने जीत ली है।हाथरस में 19 वर्षीय दलित लड़की के बलात्कार की गूंज दुनिया के कोने-कोने तक गई। जिस लड़की के दर्द को दुनिया ने समझा और प्रदेश की कानून व्यवस्था की असंवेदनशीलता को पूरी दुनिया ने धिक्कारा; क्या उस लड़की की आवाज को हाथरस की जनता ने ‘ब्रांड मोदी’ के नीचे हमेशा के लिए दफ़न कर दिया?‘पेगासस’ स्पाइवेयर भारतीय नागरिकों की स्वतंत्रता और स्वयं संविधान पर हमला था। यह स्पाइवेयर भारत के नागरिकों की निजता को खत्म करता है, लोग इसकी वजह से न अपने बाथरूम में सुरक्षित हैं न ही बेडरूम में। पर केंद्र सरकार के मुखिया पीएम मोदी देश के नागरिकों पर हुए इस हमले को रोकने में नाकाम रहे लेकिन इसके बावजूद ‘ब्रांड मोदी’ को जनता ने चुना। 
तो क्या इसके ये निहितार्थ हैं कि देश की जनता ‘ब्रांड मोदी’ के लिए अपनी स्वतंत्रता को भी त्यागने को तैयार है? क्या देश के नागरिक इस बात के लिए तैयार हैं कि हमारे देश की महिलाओं को कोई स्पाइवेयर उनके बेडरूम में भी देखता रहे?
प्रतिष्ठित जर्नल ‘लैन्सेट’ ने हाल में एक शोध प्रकाशित किया है जिसके अनुसार भारत में कोविड-19 से हुई मौतों की संख्या दुनिया में सर्वाधिक थी। इस जर्नल के अनुसार भारत में कोविड से 40 लाख से भी अधिक मौतें हुई हैं। जो कि सरकारी आंकड़ों से 8 गुना अधिक है। यह आँकड़ा अमेरिका और रूस के मुकाबले 4 गुना अधिक है। क्या कोविड की दूसरी लहर के दौरान देश की पवित्र नदियों पर तैरती लाशों का अंबार ‘ब्रांड मोदी’ के नीचे दब गया? क्या लाखों की संख्या में ऑक्सीजन की कमी से तड़प कर मरे लोगों का ‘वजन’ पाँच किलो राशन से भी कम था? क्या लोगों ने अपने परिजनों की प्रशासनिक हत्या को ईश्वरीय प्रकोप समझ लिया? मौत के उस खुले नृत्य को, जिसे रोका जा सकता था, चलने देना दुनिया के किसी भी नेतृत्व के लिए ‘मिलेनियम शर्म’ के समान है। और ऐसे नेतृत्व को बनाए रखना हमारी कमतर लोकतान्त्रिक चेतना को दर्शाता है। 
परीक्षाओं के प्रश्नपत्र नियमित अंतराल में लीक होते रहे हैं उदाहरण के लिए: 2017 की यूपीपीसीएस मेंस परीक्षा में निबंध और हिन्दी के पेपर ही गलत बाँट दिए गए, 2018 एलटी ग्रेड परीक्षा का पेपर लीक हो गया, यूपीटेट दिसंबर 2021 का पेपर लीक हुआ। अखिलेश सरकार को कोसते हुए योगी सरकार ने सीबीआई जांच तो बिठाई लेकिन न्याय के नाम पर अब भी छात्रों के पास खाली हाथ ही हैं।
इलाहाबाद में छात्र हॉस्टल में घुसकर पुलिस ने छात्रों को कमरों से निकाल निकाल कर पीटा। ‘ब्रांड मोदी’ ने इस मुद्दे पर अपना मास्क नहीं उतारा। तो क्या मान लिया जाय कि प्रदेश की जनता द्वारा छात्रों पर हुई इस बर्बरता को सहमति दे दी गई है। बीते कुछ सालों में उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग समेत कई अन्य ऐतिहासिक बेरोजगारी और बेरोजगारी पर शीर्ष नेतृत्व के हास्यास्पद समाधान युवाओं को मानसिक और शारीरिक रूप से तोड़ने में लगे हैं। क्या ‘ब्रांड मोदी’ छात्रों की हताशा और बेरोजगारी पर भारी पड़ गई?एक साल तक किसान सड़कों पर अपने अपने परिवारों के साथ प्रधानमंत्री आवास से कुछ किलोमीटर की दूरी पर बैठे रहे। बारिश, गर्मी और असह्य ठंडक के बीच 700 किसानों ने दम तोड़ दिया। जहां केंद्र सरकार का पत्थर जैसा रवैया चोट मारता रहा वहीं प्रदेश की योगी सरकार का ‘बक्कल’ उतारने का संदेश किसानों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने वाला था। लेकिन इसके बावजूद किसान आंदोलन का गढ़ रहा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश ‘ब्रांड मोदी’ के सामने शर्मिंदा हो गया। तो क्या यह मान लिया जाए कि 700 किसानों की मौत का मतलब कुछ नहीं है। इसका भी कोई मतलब नहीं कि देश का नेतृत्व लाखों किसानों को अनवरत काल के लिए सड़क पर बैठा दे। क्या देश के किसानों का ‘वजन’ ब्रांड मोदी के सामने कम पड़ गया?
छुट्टा जानवरों ने किसानों की कमर तोड़ दी, खाद और बिजली के दाम ने किसानों को बेदम कर दिया लेकिन इसके बावजूद ‘ब्रांड मोदी’ चलता रहा। देश में सिलिन्डर और पेट्रोल डीजल के दाम ऐतिहासिक स्तर पर हैं। कोविड के दौरान करोड़ों भारतीय गरीबी में धकेल दिए गए। लाखों के रोजगार चले गए लेकिन ‘ब्रांड मोदी’ चलता रहा। देश का सम्मान, हमारी करेंसी ‘रुपया’ अब तक के सबसे निचले स्तर पर है इसके बावजूद अगर जनता अपना जनादेश मुद्दों पर नहीं ‘ब्रांड’ पर दे रही है तो इसका मतलब ये है कि कुछ ऐसा है जो जनता को मनोवैज्ञानिक रूप से अहम मुद्दों से भटका कर किसी ‘ब्रांड’ की ओर ले जा रहा है।
भारतीय लोकतंत्र की आयु लगभग 75 वर्ष होने को है। ऐसा नहीं है कि भारत के मतदाता को आसानी से इतना बेवकूफ बनाया जा सकता है। ऐसा भी नहीं है कि उसे मुद्दों की समझ नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि मतदाता असंवेदनशील हो गया है। यह मुद्दों और राजनैतिक चेतना की ही समझ थी कि पूर्णतया दो ध्रुवीय यूपी चुनाव में जिसमें एक तरफ ‘ब्रांड’ मोदी और आरएसएस व इसके सैकड़ों अनुषंगी संगठन लगातार लोगों के बीच जाकर अपनी सरकार की कमजोरियों से उनका ध्यान भटकाते रहे तो दूसरी तरफ एक पार्टी जिसमें सिर्फ एक चेहरा, अखिलेश यादव सामने था और उसके पीछे थी वो विरासत जो उसके दल को गुंडों से जोड़ने की कोशिश करती है। 
समाजवादी पार्टी के पास निश्चित रूप से पार्टी का अपना संगठन है लेकिन उसके पास वैसे सैकड़ों अनुषंगी संगठन नहीं हैं जो बीजेपी के पास हैं। इसके बावजूद बीजेपी ने एक अहम संख्या विधानसभा में खो दी। प्रदेश ने एक सशक्त विपक्ष पाया जो कभी विधानसभा की कुर्सियों में बैठकर तो कभी सड़कों में उतरकर सरकारी उद्दंडता का जवाब दे सकेगा।
दूसरी अहम बात ये है कि शीर्ष 10 हिन्दी न्यूज चैनल, पिछले कई वर्षों से शाम 5 बजे से लेकर रात 10 बजे तक; भूलकर भी, ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं करते जिसमें ‘ब्रांड मोदी’ को जरा सा भी नुकसान पहुंचे। दिन भर का थका नौकरीपेशा इंसान जब शाम को घर पहुंचकर टीवी खोलता है तो उसे ‘ब्रांड मोदी’ के गुणगान से ओतप्रोत भक्त प्रजाति के न्यूज चैनल ही देखने को मिलते हैं। इनकी संख्या यूट्यूब पर चल रही नव-पत्रकारिता से अनुपात में इतनी अधिक है कि तुलना ही बेमानी है। अपनी परेशानियों से थका और महंगाई से पिटा मध्यम वर्ग ‘विश्लेषण’ की बजाय, परोसे हुए कंटेन्ट को सुनता रहता है। 23 करोड़ लोग जो गरीबी में जी रहे हैं उनमें से 15 करोड़ लोग सरकार से राशन ले रहे हैं, ऐसे में यह सोचना भी बेमतलब है कि भूख से हताश प्रदेश का जनमानस किसी विश्लेषण में जाएगा। उसकी रात प्रोपेगेंडा सुनते सुनते होती है और सुबह भी अखबार के रूप में 12 पेज का प्रोपेगेंडा उसके सामने होता है। चीख चीख कर, डरावने और हिंसक ग्राफिक्स के माध्यम से ‘ब्रांड मोदी’ को स्थापित करता मीडिया विपक्ष के खिलाफ नकारात्मक टिप्पणियों का अंबार लगा देता है। किसी को पप्पू तो किसी को पिंकी तो किसी को परिवारवाद का उत्पाद बताकर ब्रांड को सुरक्षित रखा जाता है। 
उद्देश्य मात्र इतना है कि महंगाई चाहे आसमान छूए, बेरोजगारी से चाहे युवा सड़कों की खाक छानें या किसान आत्महत्या करता रहे या उसे खालिस्तानी या आतंकवादी ही क्यों न घोषित करना पड़े, मीडिया के ये आधुनिक आदिमानव, ब्रांड मोदी की सुरक्षा में ‘दंगल’, ‘हल्ला बोल’ और यहाँ तक की ‘आर-पार’ भी करने को तैयार हैं।
चीन और पाकिस्तान का डर दिखाकर भावुक भारतीयों को ठगने की इस परंपरा में जो शेष बचता है वो है ‘ब्रांड मोदी’। 2020, स्टैटिस्टा के आँकड़े के अनुसार अकेले रिपब्लिक भारत हिन्दी, का सप्ताहिक दर्शकवर्ग 20 करोड़ से अधिक था। ये चैनल सबसे ज्यादा यूपी में देखे जाते हैं जिसकी कुल जनसंख्या 23 करोड़ है। अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव मुद्दों पर नहीं जीता गया। यह चुनाव तो बस प्रोपेगेंडा के माध्यम से एक ‘ब्रांड’ की ‘चुनावी एक्स्पाइरी डेट’ बढ़ाने से संबंधित है। 
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जब तक भारतीयों को यह भ्रम रहा कि अंग्रेज ‘सबका विकास’ करने के लिए आये हैं, उन्होंने तो अंग्रेजों को भी 100 सालों तक भगाने की कोशिश नहीं की। लेकिन जब राष्ट्रीय आंदोलन के सामने अंग्रेजी प्रोपेगेंडा दम तोड़ने लगा तो अंग्रेजों को देश छोड़कर जाना ही पड़ा। यह सच है कि भारत ने इसकी कीमत चुकाई। इसीलिए डर है कि शायद फिर से ऐसी कोई कीमत न चुकानी पड़ जाए।  
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वंदिता मिश्रा
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