देश की सुरक्षा और समृद्धि विभिन्न राज्य सरकारों व केंद्र सरकार का दायित्व है लेकिन सरकारों द्वारा प्रयोग में लायी जा रही संशोधित धर्म-निरपेक्षता देश में आंतरिक सुरक्षा व निवेश के माहौल के लिए लगातार ख़तरा बनती जा रही है। संविधान प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता कोई किताबी ख़्याल नहीं, बल्कि देश की आवश्यकता है। लेकिन संशोधित धर्म-निरपेक्षता धीरे-धीरे देश को दो भागों में बाँट रही है।
देश संविधान के आधार पर चलेगा या धर्म के?
- विमर्श
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- 2 Oct, 2022

देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया है तो फिर सरकारी संस्थाओं में धार्मिक आधार पर भेदभाव क्यों? क्या संवैधानिक कृत्यों का निर्वहन धार्मिक दरवाजों से किया जा सकता है?
पहला भाग वह है जिसमें एक धर्म विशेष के ख़िलाफ़ कहीं ज़्यादा सतर्कता से क़ानून की शक्ति का इस्तेमाल किया जा रहा है तो दूसरी तरफ़ स्वयं क़ानून व उसे बनाने वाले, संविधान में अंतर्निहित मूल्यों की जानबूझकर अनदेखी करते नज़र आ रहे हैं। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा लाए गए ‘उद्देश्य प्रस्ताव’, जिसे संविधान सभा ने 22 जनवरी 1947 को अंगीकार किया था, संविधान की उद्देशिका (प्रस्तावना) का आधार बनी। संविधान की उद्देशिका ‘भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुतत्वसम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बनाने के लिए भारत की जनता का आह्वान करती है। साफ है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान के उद्देश्यों में शामिल है। उद्देशिका कितनी महत्वपूर्ण है यह इस बात से समझा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने बेरुबारी यूनियन मामले में कहा था कि जहां भी संविधान की भाषा में संशय हो वहाँ संविधान की व्याख्या के लिए प्रस्तावना की ओर देखना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि यह समझना हो कि धर्मनिरपेक्षता का संविधान में कितना महत्व है तो ऐतिहासिक केशवानंद भारती मामले के निर्णय को देखना चाहिए। अब तक की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ केशवानंद मामले में बैठी थी। इस पीठ ने संविधान के ‘आधारभूत ढांचे’ (बेसिक स्ट्रक्चर) का सिद्धांत दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान के आधारभूत ढांचे का हिस्सा माना है जिसे किसी भी सरकार द्वारा ख़त्म नहीं किया जा सकता। लेकिन ऐसा लगता है कि संविधान की इस मूल अवधारणा को चोटिल करने के लिए उच्च राजनैतिक पदों का इस्तेमाल किया जा रहा है। कभी हिजाब के नाम पर हिन्दू संगठनों द्वारा अल्पसंख्यकों के खिलाफ आवाज उठाई जाती है तो कभी नमाज़ पढ़ने को लेकर ही मुद्दा बना लिया जाता है। पिछले 6 महीने को ही देख लें तो पता चलेगा कि इस देश को न सिर्फ सांप्रदायिकता का घुन लग रहा है बल्कि इसे बनाए और बचाए रखने के लिए शासन और सत्ता का भी इस्तेमाल हो रहा है।