अपनी प्रकृति की वजह से या किसी बाह्य कारण से,जब कोई भूमि अपनी उर्वरता ख़त्म कर लेती है, तब उसमें वाह्य हस्तक्षेप अवश्यंभावी हो जाता है। यह हस्तक्षेप ऑर्गैनिक या केमिकल फर्टिलाइज़र और पेस्टिसाइड्स के रूप में सामने आते हैं और अगर फिर भी इससे आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती तो खाद्य ‘सुरक्षा’ के लिए मिट्टी में ऐसे पौधों को रोपित किया जाना चाहिए जिनमें जेनेटिक बदलाव किया गया हो। इस समय भारत में टीवी न्यूज मीडिया में इसी किस्म के ‘जेनेटिक बदलाव’ की आवश्यकता है क्योंकि पिछले आठ सालों में पत्रकारिता की ज़मीन ने अपनी उर्वरता खो दी है।
सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने एंकर की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहा कि "एंकर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। हेट स्पीच या तो मुख्यधारा के टेलीविजन में होती है या यह सोशल मीडिया में होती है।.…जहां तक मुख्यधारा के टेलीविजन चैनल का सवाल है, ….वहां एंकर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि जैसे ही आप किसी को हेट स्पीच करते हुए देखते हैं, वैसे ही एंकर का कर्तव्य बन जाता है कि….वह उस व्यक्ति को आगे कुछ भी कहने के लिए अनुमति ना दे।….”
एंकर की भूमिका को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ऑब्ज़र्वैशन कितना सटीक है उसे नूपुर शर्मा मामले से समझा जा सकता है। भाजपा नेता नूपुर शर्मा के मामले में देखा गया कि जिस कार्यक्रम में उन्होंने पैगंबर मोहम्मद के बारे में टिप्पणी की थी, यदि उस कार्यक्रम की एंकर चाहतीं तो उन्हे रोक या म्यूट कर सकती थीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इससे परिणाम यह हुआ कि महीनों तक देश का एक बड़ा क्षेत्र संवेदनशील बना रहा; अरब देशों से भारत के लिए जो टिप्पणी आई वह तो अपमानजनक थी ही। विदेशी संबंधों और देश की आंतरिक कानून व्यवस्था को तबाह करने वाली इस टिप्पणी को रोका जा सकता था लेकिन नहीं रोका गया। इसके बावजूद सरकार ने टीवी चैनल पर कोई कार्यवाही नहीं की।
ऐसा ही एक मामला तब आया जब सुदर्शन न्यूज के मालिक सुरेश चवानके अपने कार्यक्रम ‘बिंदास बोल’ पर ‘यूपीएससी जिहाद’ का कार्यक्रम चलाने वाले थे। कई दिनों से इस कार्यक्रम का प्रचार-प्रसार कर रहे सुरेश एक धर्म विशेष से चयनित होकर आने वाले सिविल सेवा के अधिकारियों के खिलाफ घृणा फैला रहे थे। केंद्र सरकार की नाक के नीचे चल रहे इस मिथ्या प्रचार को सरकार ने नजरंदाज कर दिया लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के सख्त रुख ने इस कार्यक्रम के प्रसारण पर रोक लगा दी। लेकिन न्यायालय सुरेश चवानके की हेट स्पीच की मंशा को नहीं रोक सका। शायद कोई ‘ऊपर’ से उनके साथ खड़ा था इसीलिए जब उनके कार्यक्रम पर रोक लगी तो उन्होंने हिन्दू युवा वाहिनी के दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा कि "मुझे सुरेश चव्हाणके होने पर गर्व है, जिनके शो पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी।" वो यहीं नहीं रुके उन्होंने आगे कहा "सच्चाई को सत्ता या अदालत द्वारा दबाया नहीं जा सकता। मेरे पास ऐसे 100 लोगों की सूची है जो आईएएस, आईपीएस हैं...लेकिन वे इस्लाम के लिए काम करते हैं देश के लिए नहीं।"
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यूपीएससी में कुछ खामियाँ हो सकती हैं, उन पर चर्चा की जा सकती है और अपनी आपत्ति भी दर्ज कराई जा सकती है लेकिन एक परीक्षा जिससे देश के लिए, देश को चलाने वाले अधिकारी चयनित किए जाते हैं, वह धर्म के आधार पर षड्यंत्र का कोई अड्डा है, ऐसा मानना उचित नहीं है। यूपीएससी देश के संघीय ढांचे का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ है, इसलिए कोर्ट से पहले भारत सरकार को ‘ऐक्शन’ लेना चाहिए था क्योंकि सुदर्शन न्यूज का यह कार्यक्रम देश की अखंडता के साथ खिलवाड़ का एक तरीका था।
भारत के विधि आयोग की 267वीं रिपोर्ट ने नस्ल, जातीयता, लिंग, लैंगिक पहचान और धार्मिक विश्वास के रूप में परिभाषित व्यक्तियों के समूह के खिलाफ घृणा फैलाने और उकसाने को हेट स्पीच माना है। घृणा और उकसावा राजनीतिक हितों के लिए और सांप्रदायिक तनावों को उभारने के उद्देश्य से किया जाता है।चमकदार और साफ-सुथरे दिखने वाले तमाम टीवी एंकर राजनीति के लिए घृणा के टूल बन चुके हैं। एक ऐसा टूल जिसे इन्फॉर्मैशन और मिसइन्फर्मैशन को सतर्कता के साथ फैलाने के लिए तैयार और संवारा गया है। आश्चर्य नहीं कि जो 2013 का मुजफ्फरनगर दंगा था वह एक नकली वीडियो से शुरू हुआ था उसकी जड़ें इसी झूठी खबरों को परोसने वाली मीडिया के तंत्र में थीं। मीडिया में ऐसे लोगों का कब्जा हो गया है जो मुश्किल से मिली आजादी और इस देश की एकता व अखंडता को मात्र TRP से तौल देना चाहते हैं।
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हेट स्पीच की परिभाषा क्या है? क्या पहले इसे परिभाषित किया जाना चाहिए? ये सभी विचार कुछ और दिन भारत की एकता से खेलने की अनुमति मांगने का एक सूडो-लीगल तरीका है। जिस तरह गाली-गलौज को परिभाषित करने की जरूरत नहीं उसी तरह हेट स्पीच की भी परिभाषा की जरूरत नहीं। समाज का हर वो व्यक्ति जो स्वयं हेट स्पीच से नहीं जुड़ा हुआ है वह अच्छे से जानता है कि हेटस्पीच क्या है!
वर्तमान उपलब्ध ढांचा हेट स्पीच को लेकर पर्याप्त नहीं है इसकी पुष्टि हेट स्पीच को लेकर बनी दोनों प्रमुख कमेटियाँ टी. के. विश्वनाथन कमेटी और बेज़बरूआ कमेटी से हो जाती है। यह दोनों ही कमेटियाँ भारतीय दंड संहिता में कुछ और धाराएं जोड़ने की सिफारिश कर चुकी हैं ताकि हेट स्पीच के लिए दंड सुनिश्चित और कठोर हो। स्वयं जस्टिस रोहिंटन नरीमन का भी मानना है कि हेट स्पीच के खिलाफ सजा के प्रावधानों पर संशोधन की जरूरत है।
हेट स्पीच पर सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े ने कहा कि, "यह उद्योग (मीडिया) अनियंत्रित है और इस पर कोई प्रतिबंध नहीं हैं।" वास्तविकता यह है कि मीडिया के लिए सेल्फ-रेगुलेशन नाम की सीधी साधी गाय से कोई असर नहीं होने वाला है। खबरों के नाम पर घृणा बांटने के काम में लगा मीडिया ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ और ‘विचारों की स्वतंत्रता’ के नाम पर देश को गिरवी तक रखने को तैयार है।
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विचारों और अभिव्यक्तियों का सरकार के सामने समर्पण का नाम मीडिया नहीं है।
1957 में रामजी लाल मोदी केस में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायधीशों की बेंच ने भारतीय दंड संहिता की धारा 295 (ए) की वैधता की पुष्टि की थी। यह धारा, ऐसे दुर्भावनापूर्ण कृत्यों जो जानबूझकर इसलिए किए गए हैं जिससे किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं का अपमान होता हो, को दंडित करने का प्रावधान करती है। इस धारा को वैधता प्रदान करने के लिए न्यायालय का तर्क था कि- अनुच्छेद 19(2) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सार्वजनिक-व्यवस्था(पब्लिक ऑर्डर)को ध्यान में रखते हुए उचित प्रतिबंधों की अनुमति देता है।
यदि संविधान का यह अनुच्छेद आज भी लागू है,जो कि है, तो कालीचरण और नरसिंहानंद जैसे छद्म गुरुओं, व सुरेश चवानके समेत तमाम अन्य टीवी पत्रकार, एंकर, एडिटर और इनके मालिक समय समय पर सार्वजनिक कारागार की यात्रा पर जरूर जाते! यह मानते हुए कि देश किसी एक दल विशेष का विशेषाधिकार नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह चुनावी लाभ और वैधानिक पेंचीदगियों से ऊपर उठकर देश को प्राथमिकता दें। ताकि धर्म विशेष के ‘इकोसिस्टम’ बनाकर सियासी लाभ कमाने को आतुर, इधर उधर पार्टियां छोड़-तोड़कर आने वाले, चुनाव-वीर नेताओं, को देश की एकता से खेलने से रोका जा सके।
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