अमेरिकी टेलीविज़न नेटवर्क, द सीडब्ल्यू (The CW) की ऑरिजिनल वेबसीरीज, द 100, जब अपने अंतिम सीजन-7 में पहुँचती है तब पता चलता है कि जिस ‘द लास्ट वार’ को लेकर एक कैरेक्टर, कैडोगन, जिसे शेफर्ड के नाम से पुकारा जा रहा था, वह असल में पिछले लगभग 250 सालों से एक गलत सूचना को लेकर चल रहा था। वह इसी ग़लत सूचना के आधार पर अपनी पत्नी और बच्चों को मरने देता है और हज़ारों आम लोगों को ब्रेनवाश करके तथाकथित ‘लास्ट वार’ के लिए तैयार करता है। उसे कभी पता ही नहीं चला कि वह सैकड़ों सालों तक एक अंधे विचार के पीछे ही भाग रहा था। कमोबेश यही स्थिति आरएसएस के मामले में समझ आती है। जब से आरएसएस का जन्म हुआ तबसे लेकर आजतक उनके दिमाग में यह बात बिठा दी गई कि एक दिन मुसलिमों की जनसंख्या इतनी अधिक हो जाएगी कि वो हिंदुओं को फिर से सत्ता से बाहर कर देंगे। लगभग 97 सालों से यह विचार उनमें एक वैज्ञानिक तथ्य की तरह जगह बना चुका है।
भारत के 17वें मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरेशी ने अपनी किताब ‘द पॉपुलेशन मिथ’ (2021) में इस भ्रम को तथ्यवार ढंग से तोड़ा है। जनसंख्या से संबंधित संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी, UNFPA, भी इसे मिथ करार दे चुका है। स्वयं केंद्र सरकार द्वारा जारी, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 और भारत के रजिस्ट्रार जनरल की रिपोर्ट आँकड़ों के माध्यम से यह लगातार कह रही है कि मुसलिम जनसंख्या का विवाद, न सिर्फ एक झूठ है बल्कि सच तो यह है कि मुसलमानों की प्रजनन दर में जो गिरावट दर्ज की गई है वह किसी अन्य धर्म में नहीं है।
अब यह लगभग सर्वमान्य तथ्य है कि भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में जनसंख्या के लगातार कम होने का समय नजदीक है। एलन मस्क जैसे विजनरी उद्योगपति तो दुनिया की घटती जनसंख्या दर को जलवायु परिवर्तन से भी घातक समस्या मान रहे हैं। लेकिन आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का विजयदशमी के दिन दिया गया भाषण यह संकेत दे रहा है कि उन्हें गलत आँकड़े दिए जा रहे हैं। या यह कहें कि शायद वही आँकड़े दिए जा रहे हैं जो उन्हें पसंद हैं। विजयदशमी के दिन नागपुर में आयोजित आरएसएस के वार्षिक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि ‘‘जनसंख्या नियंत्रण के साथ-साथ पंथ आधारित जनसंख्या संतुलन भी महत्व का विषय है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।’’ या तो आरएसएस खुद को अपडेट नहीं कर रहा है या फिर ‘ओल्ड वर्ज़न’ में सहूलियत ज्यादा है, यह जानना ज़रूरी है। क्योंकि जनसंख्या उन तमाम मुद्दों में से एक है जिसका किसी धर्म विशेष से वास्ता न होने के बावजूद मुसलिमों से ही जोड़कर देखना ज्यादा सुविधाजनक लगता है।
द 100 का किरदार, कैडोगन एक बेहद वैज्ञानिक किरदार है उससे हुई भूल एक वैज्ञानिक ‘त्रुटि’ थी जिसने एक भयावह रूप धारण कर लिया। लेकिन संघ के कृत्य कोई वैज्ञानिक भूल नहीं है बल्कि यह सामाजिक तानेबाने को छिन्न-भिन्न करने की वर्षों पुरानी साधना का परिणाम नजर आती है। जीवन के उपन्यास में आशा कई बार इतना ‘निर्लज्ज’ किरदार नजर आती है कि निराशा ही बेहतर लगने लगती है। लगभग ऐसी ही आशा एक वरिष्ठ पत्रकार महोदय को आरएसएस प्रमुख के भाषण में दिखी। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा- ‘अनुरोध है कृपया इस भाषण के एक एक शब्द को ध्यान से सुनें-गुनें’। मैं जानना चाहती हूँ कि कबतक लोगों को शब्द-शिल्पियों द्वारा दिए गए भाषणों के माध्यम से परखते रहेंगे? वह दिन कब आएगा जब आलोचक भाषण नहीं कृत्यों को देखकर व्यक्तियों का आकलन करेंगे?
जिस एक भाषण ने कुछ लोगों की आशाओं में रॉकेट बांध दिए हैं उन्हें भारत के पिछले आठ सालों में अनवरत और तीव्र ह्रास को देखना चाहिए। उन्हें देखना चाहिए कि कैसे मुट्ठी भर लोगों ने रुपये की गड्डियों से दौड़ने वाले घृणा-संयंत्रों जैसे- मीडिया व आधुनिक, लेकिन पैसों पर तौली जा रही तकनीक जैसे- आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स के बलबूते देश के जनमानस पर मुसलिम विरोधी कूड़ा उड़ेल दिया है। देश संस्थागत पतन के रास्ते पर है लेकिन निर्लज्ज आशावाद चरम पर है।
लोगों को लगता है कि यह प्रचार करना ज़्यादा जरूरी है कि संघ प्रमुख मुसलिम धर्म गुरुओं से जाकर मिल रहे हैं लेकिन उन्हीं से यह प्रश्न पूछना जरूरी नहीं लगता कि बिलकिस बानो के गुनहगारों को छोड़ने की मजबूरी क्या थी?
यह प्रचार करना जरूरी है कि शायद आरएसएस प्रमुख का ही प्रभाव था कि ज्ञानवापी और मथुरा की मस्जिदों का मामला थम गया है लेकिन यह सवाल पूछना जरूरी क्यों नहीं है कि कुछ खास समूहों द्वारा सामाजिक एकता के धागों पर समय समय पर सांप्रदायिक तेजाब क्यों छिड़का जा रहा है? समय समय पर यह महिमामण्डित करना लोग नहीं भूलते कि संघ कितना बड़ा और सशक्त संगठन है और इसके अंतर्गत सैकड़ों अनुषंगी संगठन आते हैं, लेकिन जब यही अनुषंगी संगठन बीच सड़क में लिन्चिंग कर देते हैं, हेट स्पीच देते हैं और देश के माहौल को खराब करते हैं तो संघ से सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए? गायों के नाम पर जितनी मॉब लिन्चिंग हुई है, जितने जीवन खत्म हुए हैं कम से कम उतनी बार तो मॉब लिन्चिंग की आलोचना कर देते! हो सकता है कि आलोचना करना उनके लिए ‘असुविधाजनक’ हो और इसलिए वह इसे ज़रूरी न समझते हों! कोई बात नहीं। वैसे भी इस देश को आरएसएस की कार्यप्रणाली का ज्ञान नहीं चाहिए, लेकिन यदि कोई यह बताना चाहता है कि संघ प्रमुख ‘पुराने’ आरएसएस को बदलना चाह रहे हैं तो यह सब उन्हें जमीन पर करके दिखाना होगा। जोकि अब तक निश्चित रूप से नहीं दिख रहा है।
पिछले आठ सालों में देश ने हर क़िस्म का विभाजन देखा है। यूपीएससी की CSAT प्रणाली द्वारा चोट खाए परीक्षार्थियों और इससे लाभ कमाने वाले परीक्षार्थियों के बीच विभाजन; यूपीएससी में हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने वाले छात्रों और अंग्रेजी माध्यम से परीक्षा देने वाले छात्रों के बीच विभाजन; देश की सूचना की नस समझे जाने वाले टेलीविज़न मीडिया में विभाजन; सांप्रदायिकता के पक्ष और विरोध में लड़ते भारत के बुद्धिजीवियों के बीच विभाजन; अंतर-धार्मिक त्योहारों में शामिल होने को लेकर विभाजन; अंतर-धार्मिक प्रेमसंबंधों को लेकर विभाजन; खान-पान को लेकर विभाजन; कपड़े पहनने को लेकर विभाजन; अपने धर्म का पालन करने को लेकर विभाजन; ऐसे अनगिनत विभाजन हैं जिनकी पिछले कुछ वर्षों में अंकुरण से लेकर वृक्ष बनने तक की यात्रा देखी गई है।
भारत जोड़ो यात्रा को मैं, विभाजन के इन्हीं वृक्षों को जड़ से उखाड़ फेंकने की क्षमता के रूप में देखती हूँ। 7 सितंबर को शुरू हुई इस यात्रा को लगभग एक महीना बीत चुका है। राहुल गाँधी और उनके साथ देश के हजारों लोग इस यात्रा में अब तक 762 किमी का सफर तय कर चुके हैं। इस समय कर्नाटक से गुजर रही इस यात्रा में अभी भी लगभग 120 दिन और 2800 किमी का सफर बाकी है। इतिहास बताता है कि भारत की सामूहिक चेतना कभी भी घृणा की जमीन पर खड़ी नहीं दिखी। पर आज दिख रही है। इतिहास अवश्य ही इस समय को ऐसे ही रूप में दर्ज करेगा। वाद-विवाद और झगड़े, संस्कृतियों के साथ-साथ रहने का परिणाम होते हैं। लेकिन यही संस्कृतियाँ आपस में घिसते-घिसते एक साझी संस्कृति का निर्माण कर लेती हैं। यही साझी संस्कृति ही आधुनिक राष्ट्रवाद की नींव है। यह वह राष्ट्रवाद है जिसने भारत को आजादी दिलाई न कि वह राष्ट्रवाद जो आज हर बात पर हर दूसरे मुसलिम को पाकिस्तान जाने की सलाह दे डालता है।
आजादी के बाद जिस भारत का सपना गाँधी, नेहरू समेत तमाम भारतीयों ने देखा उसमें कुछ अहम कड़ियाँ थीं। पहली कड़ी है साझा विश्वास।
कोई भी राष्ट्र एक टीम की तरह होता है। टीम के सदस्य किसी भी मत के मानने वाले हो सकते हैं, किसी भी जाति या लिंग के हो सकते हैं लेकिन उनमें यह साझा विश्वास होना चाहिए कि वो एक दूसरे के साथ व एक दूसरे के लिए हैं। दूसरी कड़ी है साझा राजनीतिक पहचान। अर्थात धर्म, जाति या लिंग के आधार पर व्यक्तियों के अधिकारों में कटौती न करना। बजाय इसके एक ऐसी साझी राजनीतिक पहचान स्थापित करना जो क़ानून सम्मत या संविधान सम्मत हो, न कि किसी संगठन के हिन्दू-राष्ट्र या मुसलिम राष्ट्र बनाने के मूर्खतापूर्ण दिवास्वप्न से संबंधित। तीसरी कड़ी है साझा राजनीतिक आदर्श। ये आदर्श ऐसे आदर्श हैं जिन्हे भारत के संविधान में जगह दी गई है जैसे- धर्मनिरपेक्षता व लोकतंत्र। देश के अलग-अलग समूह भले ही अलग-अलग विचारों से क्यों न आते हों लेकिन देश में साझा राजनीतिक आदर्शों का पालन राष्ट्र को मजबूत करता है।
लेकिन दुर्भाग्य से इन्हीं कड़ियों को तोड़ देने की प्रक्रिया पिछले कुछ वर्षों में देखी जा रही है। इसी प्रक्रिया को रोकने के लिए ज़रूरी था कि एक ऐसी यात्रा शुरू की जाए जो भारत को कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आयामों के माध्यम से जोड़कर रख दे। कोशिश यह है कि भारत में जो ‘टूटन’ है उसे उत्तर से लेकर दक्षिण तक सड़कों में जाकर सुना जाए। लोगों में सरकार के प्रति घटते विश्वास का पता लगाया जाए, उसे समझने कोशिश की जाए ताकि सरकार के प्रति घटते विश्वास को भारत के प्रति घटते विश्वास के रूप में तब्दील होने से रोका जा सके। सड़क पर जब एक राष्ट्रीय पार्टी का सर्वोच्च नेता उतरता है तब सरकारी मशीनरी से लोगों का भय ख़त्म होता है और वह खुलकर महंगाई से बढ़ते बोझ को साझा कर सकते हैं, वह यह कह सकते हैं कि बेरोजगारी ने उनका जीवन दूभर कर दिया है, अल्पसंख्यक समुदाय खुलकर अपनी बात कर सकता है, लोग सर उठाकर, आँखों से आँखें मिलाकर लुढ़कते रुपये और चीन नीति पर अपनी चिंता व्यक्त कर सकते हैं और लोगों को इस बात का भय भी नहीं होगा कि उन्हें ‘राष्ट्र विरोधी’ और अर्बन नक्सल’ कहकर डराया जाएगा।
भारत जोड़ो यात्रा संवैधानिक आदर्शों की अनदेखी को रोकने की यात्रा है, यह यात्रा अंबेडकर के सामाजिक लोकतंत्र को पुनः पटरी पर लाने के लिए है, यह यात्रा उन संवैधानिक संस्थाओं को जनशक्ति प्रदान करने की यात्रा है जिनका संचालन सरकारी दबाव के चलते लगभग पूर्णतया बाधित हो चुका है, यह यात्रा धनपतियों के हाथों फिसलते जा रहे मीडिया संस्थानों में जीवित बचे कुछ पत्रकारों को ‘रेस्क्यू’ करने की यात्रा है। यह यात्रा एक आशा है जिसका ‘अन्ना-आन्दोलनीकरण’ करने से बचना चाहिए जैसा कि कुछ स्वतंत्र डिजिटल मीडिया घराने करने में लगे हुए हैं। यह वक्त पुरानी प्रतिबद्धताओं को लेकर किसी ‘उभरते हुए’ दल या व्यक्ति को स्थापित करने का नहीं, जैसा कि अन्ना-आंदोलन के समय हुआ था बल्कि यह वक्त है भारत को बचाने का। एक बार यह टास्क खत्म हो जाए तो कौन सत्ता में आए या जाए जनता तय करती रहेगी।
आज संकट भारत की छवि और प्रतिष्ठा को लेकर है। भारत की छवि को सबसे बेहतरीन तरीके से भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में व्यक्त किया है। वह कहते हैं “हालाँकि बाहरी रूप में लोगों में विविधता और अनगिनत विभिन्नताएं थीं, लेकिन हर जगह एकात्मता की वह जबरदस्त छाप थी जिसने हमें युगों तक साथ जोड़े रखा, चाहे हमें जो भी राजनीतिक भविष्य या दुर्भाग्य झेलना पड़ा हो।” भारत जोड़ो यात्रा, इसी एकात्मता को स्थापित करने के लिए सड़क पर लोगों के साथ चलने वाली, जिद का नाम है। इस जिद का पूरा होना जरूरी है, आज के लिए और आने वाले कल के लिए!
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