यदि हम जानने की कोशिश करें कि किसान अपने पेड़ों की छटनी करते, फ़सलों को बोते और अन्न को संजोते समय अंधेरे और उजाले पक्ष का भेद क्यों रखता है, तो हम यह भी समझ जायेंगे कि सूर्य सोखा हुआ जलरस वापस लौटाता है। चन्द्रमा अन्न समेत समस्त जीवितों में रस भरने का काम करता है। वायुमण्डल जितना मोटा होगा, उतना गर्म होगा; सूर्य उतना कम जलरस लौटाएगा। चन्द्रमा को सूर्य से प्राप्त श्वेत रश्मियों के मार्ग में श्याम छायायें जितनी ज़्यादा होती जायेंगी, रस भरने की चन्द्रशक्ति उतनी कम होती जाएगी; उत्पादन उतना कम रस, गंध व स्वादयुक्त होगा।
दर्ज इतिहास के अनुसार, सूर्य व चन्द्रमा के लिए यह चुनौती सबसे पहले पृथ्वी के शुरुआती तीन से चार बिलियन वर्षों के दौरान वर्तमान कनाडा और इटली में जागे ज्वालामुखियों से निकले लावे और धुएं ने किया। आज तो एक ही वर्ष में 70-70 ज्वालामुखी फट रहे हैं। हम अपने वायुमण्डल को हर रोज धूल, धुआं, नुक़सानदेह गैसों व अन्य ठोस कणों से भर निरन्तर मोटा व असंतुलित कर रहे हैं। जल और वायु तो बदलेंगे ही।
क्षरण से मरण की ओर पृथ्वी?
दर्ज इतिहास के अनुसार, पिछले 150 करोड़ वर्षों में पांच बार प्रलय आई है; 500 करोड़ वर्ष पूर्व एक महाप्रलय, जिसमें 95 प्रतिशत प्रजातियाँ नेस्तनाबूद हो गईं। शेष बची 05 प्रतिशत ने फिर नई प्रजातियाँ रचीं। भारतीय पौराणिक आख्यान मानते हैं कि यह सब पारितंत्र के नियमानुसार ही हुआ। वे पृथ्वी को भी एक जीव मान इसकी गर्भावस्था, शैशवकाल, यौवन, प्रौढ़ व वृद्धावस्था के क्षरण व मरण की संकल्पना सामने रखते हैं। हम जन-जीवों के तन-मन, विचार-व्यवहार में आ रहे क्षरण को भी इससे जोड़ते हैं। जरा अपने आसपास घट रहे घटनाक्रम तथा उनके प्रति अपने व्यवहार का निष्पक्ष भाव से विश्लेषण कीजिए। सोचिए कि क्या ये पृथ्वी का क्षरण काल से गुजर रहे हैं। वे रचना और विध्वंस को एक-दूसरे की अनुगामी प्रक्रिया मानते हैं।
हम यह मान भी लें कि अंतरिक्ष के ज्ञात-अज्ञात ग्रहों में से एक हमारी पृथ्वी का भी क्षरण और मरण होता है। इस वक़्त पृथ्वी अपने क्षरण काल में हो, तो भी हम वर्तमान कालखण्ड में हो रही तापवृद्धि व जलवायु परिवर्तन के कारणों को महज् प्राकृतिक बताकर पल्ला नहीं झाड़ सकते। क्यों? क्योंकि यह जितनी तेज़ गति से हो रहा है, वह अप्रत्याशित है और डराने वाला भी। कारण वैश्विक हैं, तो स्थानीय भी।
जलवायु तो अब बदलेगी ही
विचार कीजिए कि छह महीने दिन, छह महीने रात वाले उत्तरी ध्रुव का अपने ऐतिहासिक तापमान से 35 डिग्री सेल्सियस ऊपर चले जाना, यूरोप के औसत तापमान से अधिक हो जाना; कोई सामान्य घटना नहीं है। यह पहली बार नवम्बर, 2018 में दर्ज किया गया। समुद्री जीवों का 1970 की तुलना में आधा हो जाना; यह भी पहली बार 2018 में ही दर्ज हुआ। ध्वनि प्रदूषण के चलते जीवों में आपसी संवाद-संचार में आई कमी व समुद्र में बढ़ते कचरा को इसका मुख्य कारण बताया गया। कार्बन अवषोशित करने में सबसे सक्षम सामुद्रिक प्राकृतिक प्रणाली कही जाने वाली मूंगा भित्तियों का रकबा लगातार घट रहा है।
पृथ्वी की धुरी में आए कोणीय बदलाव ने समुद्रों से उठने वाले मेघों के संघनन और विन्यास को ही नहीं, बल्कि समूचे जलचक्र व वायु ताप-दाब के खेल को ही बदलकर रख दिया है। ऐसे में जलवायु न बदले, यह कैसे हो सकता है? जलवायु का मतलब ही है जल और वायु।
हम भी बदलें
हम क्या कर सकते हैं? इस प्रश्न को सामने रख विचार करें तो हम कह सकते हैं कि कचरा घटायें। जुहू बीच और गंगासागर तट पर सागर सौंदर्य को निहारने जाएँ… शांति पाने जाएँ; शोर मचाने नहीं। जापान ने ज्वालामुखियों की भू-तापीय ऊर्जा को बिजली में तब्दील कर, आख़िरकार उन्हें शांत करने का ही तो काम किया है। भारत ने फ़िलहाल प्रयोग के तौर पर लद्दाख में अपनी पहली भू-तापीय ऊर्जा परियोजना पर काम शुरू कर दिया है।
भारत समेत दुनिया के बहुत सारे देश स्वयं को कोयला ऊर्जा उत्पादन से मुक्त कर सौर व पवन ऊर्जा उत्पादन को प्रोत्साहित करने में लगे हैं। बिजली से चलने वाले वाहनों के युग में हम प्रवेश कर ही चुके हैं। भारत सरकार ने कबाड़ कम करने के लिए वाहन नीति में बदलाव किया है। हम यह सब करें, किंतु यदि हम बिजली, ईंधन, पानी व औद्योगिक उत्पाद आदि के दैनिक उपभोग की सीमा रेखा न बनायें; पंच तत्वों को पंच तत्वों से काट दें तो हमारे ये वर्तमान प्रयास भी एक न एक दिन बेकार ही साबित होने वाले हैं।
सीख देता अतीत
1780 के दशक में धागे को मशीनों से कातने वाले ब्रिटेन ने नहीं सोचा होगा कि तेज गति में उत्पादन से उपजी औद्योगिक क्रांति एक दिन हवस बन पर्यावरण को खाने लग जाएगी। महात्मा गांधी ने अपने कालखण्ड में चेताया। इस भविष्य को भांप लेने वालों ने लाखों सालों तक अपनी खेती को प्राकृतिक तथा ज़रूरतों को सीमित बनाकर पर्यावरण व खुद को बचाया। हम भी बचायें। हम खेती को व्यापार की जटिल वस्तु न बनायें। औद्योगिक व्यवहार में पर्यावरणीय अनुकूलन लाएं।
कचरा बढ़ाता ऑनलाइन बाज़ार
उत्पादक, सेवा प्रदाता और ग्राहक के बीच में कमीशन बांट लेने वाली कड़ियाँ कम हों। ग्राहक को सस्ता मिले; उत्पादक फिर भी ज़्यादा कमायें। यह सोचकर ही 1997 में हॉटबॉक्स, लुकस्मार्ट, एलक्सा के अलावा 1997 में प्रथम सोशल मीडिया वेबसाइट 'सिक्स डिग्री डॉट कॉम' लांच की गई होगी। गूगल को डिजिटल मार्केटिंग की दुनिया में पहला सुनहरा क़दम माना ही जाता है। किंतु न सिर्फ़ गूगल जैसा गुरु, बल्कि आज सबसे बड़ा ऑनलाइन बाज़ार बन चुका अमेजन डॉट कॉम भी नहीं सोचना चाहता कि ग्राहक जिस पैकेट को तुरन्त फाड़कर फेंक देता है; कच्चा माल, पैकेट बनाने व पैकेजिंग में लगने वाली ऊर्जा, अनुपयोगी होने पर पैकेट का कचरा तथा सामान पहुंचाने में फूंकने वाला डीजल-पेट्रोल जलवायु को किस कदर दुष्प्रभावित कर रहे हैं।
हम ग्राहक तो सोचें। कभी पैकेजिंग, सामान की गुणवत्ता की गारण्टी थी; आज महज एक फैशन है।
अक्ल से बने नकली व मिलावटी सामानों से हमारे बाज़ार पटे पडे़ हैं। ऐसे में सरकारों और बाज़ारों को भी सोचना ही चाहिए कि खुला बिकने वाले माल की शुद्धता की गारण्टी व ग्राहक तक सुरक्षित पहुंच कैसे सुनिश्चित हो।
स्थानीय स्वावलम्बन ज़रूरी
ग़ौर कीजिए कि सरस्वती का लुप्त होना, मानव सभ्यता के इतिहास में किसी हिमालयी नदी के लुप्त होने की संभवतः पहली दर्ज घटना थी और इसके कारण किनारे बसे हड़प्पाकालीन धोलावीरा नगर के नष्ट होने की भी। नदी-नगर विनाश के इस अंतर्संबंध की पुष्टि आईआईटी, खड़गपुर के साथ मिलकर किए शोध ने अब की है। किंतु इसे बहुत पहले समझ कर ही हमारे पूर्वजों ने अपनी नदियों को समृद्ध बनाये रखने का अनुशासन अपना लिया था; हम पुनः अपनायें।
हमारी सरकारें नदियों को निर्मल बनाने में तो पूरे धन-बल के साथ लगी दिखना चाहती हैं, किंतु अविरल बहाने से कतरा रही हैं; पनबिजली और सिंचाई के कम नुक़सानदेह मॉडलों से अपनाने से दूर भाग रही हैं। वे पानी की कमी और कब्जे के वैश्विक संघर्षों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं।
बाज़ारू शक्तियाँ पानी को मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के तराजू पर तौलने वाली बाज़ारू वस्तु में तब्दील करने में लगी हैं। हम ऐसा न करें। हम संगठित हों। हम अपनी स्थानीय ज़रूरत की बिजली का उत्पादन व स्थानीय स्वावलम्बी नदी-पानी प्रबंधन करने के गुर खुद आजमायें।
चिंता कीजिए कि संघर्षों के दौर में हैं हम
ग़ौर करें कि ताप व कचरे में वृद्धि के कारण प्रमुख तौर पर अभी सिर्फ जलवायु बदल रही है। इससे मौसम बदल रहा है। बदलता मौसम, फ़िलहाल उत्पादन घटा रहा है; भूमि के स्वरूपों को उलट-पलट रहा है। मौसमी अनुकूलन के चक्कर में हम कृत्रिम उत्पादों के नए बाज़ार, नए ख़र्च और नए कर्ज़ के च्रकव्यूह में फँसते दिख रहे हैं। यदि यह क्रम जारी रहा; हमने बढ़ते ताप व कचरे को नहीं नियंत्रित किया; बदलती जलवायु व स्थानीय भू-सांस्कृतिक विविधता के हिसाब से अपनी नीति, नीयत, खेती, उद्योगों, यंत्रों, बाज़ार व निर्माण के तौर-तरीकों, सामग्रियों व जीवन शैलियों को नहीं बदला, तो चिंतित होइए कि अभी हम एक तरह के कोरोना वायरस को लेकर तबाह हैं; आगे चलकर हमारा साबका ऐसे अनेक घातक वायरसों से पड़ा तो क्या होगा?
याद रखने की बात है कि ताप व कचरा वृद्धि से शुरू हुए ये सारे बदलाव व दुष्प्रभाव आगे चलकर तीन बडे़ संघर्षों के जन्मदाता बनने वाले हैं: सेहत के लिए संघर्ष, आजीविका के लिए संघर्ष तथा संसाधनों पर कब्जे के लिए सत्ता व वर्गों को नोचकर कई फाड़ कर देने वाले गलाकाट संघर्ष। अतीत के प्रलय कालखण्डों में यही हुआ है। अपने परिवेश तथा अपनी आात्मा के साथ समरसता, सादगी व विवेकपूर्ण व्यवहार इन संघर्षों की संभावना व दुष्प्रभाव... दोनों को क्षीण करने में सक्षम हैं। क्या हम यह सक्षमता हासिल करने को लालायित हैं?
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