दिल्ली नगर निगम (संशोधन) विधेयक, 2022 पर चर्चा का जवाब देते हुए केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, ''यह बिल संविधान की धारा 239-एए 3 बी के अनुसार संसद की निहित शक्तियों के भीतर निहित है। अगर आप राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश में अंतर नहीं जानते हैं तो मुझे लगता है कि संविधान का फिर से अध्ययन करने की ज़रूरत है।'' बिल्कुल; उक्त अंतर व दिल्ली नगर निगम ही नहीं, दिल्ली की सम्पूर्ण शासन व्यवस्था को लेकर संविधान का फिर से अध्ययन करने की ज़रूरत हम सभी को है। संविधान की धाराओं, संशोधनों और उनकी मूल भावनाओं का ठीक से अध्ययन न किए जाने का ही नतीजा है कि दिल्ली में आज एक ऐसी अधकचरी और अस्पष्ट त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था है, जिसमें एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप ही हस्तक्षेप हैं; विवाद ही विवाद हैं; सवाल ही सवाल हैं।
सवाल यह भी है कि वार्डों के परिसीमन समेत नगर निगम संचालन संबंधी किसी शक्ति का किसी एक प्रशासनिक हाथों में सौंप देना, ‘जनता की, जनता के लिए, जनता के द्वारा’ संचालित किसी भी जनप्रतिनिधि सभा की संवैधानिक व लोकतांत्रिक भावना के कितना अनुकूल है?
''दिल्ली के तीन निगमों का एकीकरण होने से कामकाज में पारदर्शिता आएगी। कहीं भी, कभी भी सुविधायें उपलब्ध हो सकेंगी। सीधे केन्द्र से बजट आएगा। ख़र्च कम होगा। वार्ड कम होंगे। अस्थाई कर्मचारी, स्थाई किए जा सकेंगे।'' अध्ययन करने की ज़रूरत है कि दिल्ली नगर निगम (संशोधन) विधेयक, 2022 के पक्ष में दिए ये तर्क क्या संवैधानिक अध्ययन के विषय हैं? क्या एकीकरण बगैर, उक्त स्थितियाँ संभव नहीं हैं?
जनप्रतिनिधि निलंबन का अधिकार किसे हो?
तुक तो किसी भी स्तर के जनप्रतिनिधि को उसके जनप्रतिनिधित्व से निलंबित करने का अधिकार किसी नौकरशाह को दिए जाने का भी नहीं है; किंतु यह है। प्रधान, पार्षद, विधायक, सांसद से लेकर प्रधानमंत्री तक, जिसे मतदाता अथवा जनप्रतिनिधियों अर्थात जिसने भी चुना है; लोकतंत्र में क़ायदे से संबंधित पद से निलंबन का अधिकार चुनने वाले को ही होना चाहिए। किंतु यह नहीं है। एक प्रधान/सरपंच को निलंबित करने का अधिकार जिलाधिकारी को दे दिया गया है। निगम पार्षद को निलंबित करने का अधिकार निगमायुक्त को सौंपा गया है।
गांव हैं तो पंचायतें क्यों नहीं?
नीचे से शुरू करें तो अध्ययन करने की ज़रूरत है कि दिल्ली का मास्टर प्लान, दिल्ली की ग्रामीण लालडोरा आबादी क्षेत्र पर लागू न करना संविधान सम्मत है अथवा विपरीत? दिल्ली में ग्रामीण क्षेत्र हैं तो 73वें संविधान के हिसाब से दिल्ली में त्रिस्तरीय पंचायतें भी होनी चाहिए कि नहीं? दिल्ली का अपना एक प्रादेशिक पंचायतीराज अधिनियम भी होना चाहिए कि नहीं? दिल्ली में गांव से नगर में तब्दील हुआ क्षेत्र है, तो दिल्ली में नगर पंचायतें भी होनी ही चाहिए न?
वार्ड हैं तो वार्ड सभायें क्यों नहीं?
आइए, 74वें संविधान संशोधन को ग़ौर से पढें। दिल्ली में नगर निगम व नगरपालिका हैं तो वार्ड सभा/वार्ड समितियाँ भी होनी चाहिए कि नहीं? तीन लाख या अधिक की आबादी वाली नगरपालिकाओं में एक या अधिक वार्डों को मिलाकर वार्ड समिति होनी चाहिए। नवगठित झारखण्ड राज्य ने अपने नगरीय क्षेत्रों में प्रत्येक मतदाता बूथ स्तर पर एक वार्डसभा गठित करने का प्रावधान रखा है। हालांकि, उसने इसे अभी तक ज़मीन पर नहीं उतारा है; फिर भी यह संविधान के प्रावधान को आगे ले जाने की एक नज़ीर है। दिल्ली तो देश की राजधानी है। यहां से निकली नजीर दूर तक जाती है।
मुख्यमंत्री बनने के बाद तक अरविंद केजरीवाल, 'नगर स्वराज' के अपने दस्तोवेज़ को लेकर जगह-जगह घूमे थे। मोहल्लासभा के रूप में वार्डसभा बनाने का इरादा भी जताया; किंतु वह आज तक न तो ज़मीन पर उतरा और न ही कागज़ पर। क्यों? मोहल्ला क्लिनिकों का संचालन भी मोहल्लों के हाथ में नहीं आ सका।
निगम क्यों? नगर सरकार क्यों नहीं?
आगे अध्ययन का विषय है कि संविधान ने जो दर्जा लोकसभा और विधानसभााओं को दिया है, 'सेल्फ गवर्नमेन्ट' के रूप में परिभाषित कर स्थानीय स्तर पर कमोबेश वही दर्जा ग्रामसभाओं और वार्ड सभााओं को देने का निर्देश व अपेक्षा की है। स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार, राज्य सरकार की तर्ज पर ग्रामसभाओं को गाँव की विधायिका तथा ग्राम पंचायतों को गांव सरकार का मंत्रिमण्डल कहा जाना चाहिए। इसी तरह नगर पंचायतों, नगर पालिकाओं तथा नगर निगमों का नाम बदलकर नगर सरकार किया जाना चाहिए।
1957 के अधिनियम को पढ़िए। 28 दिसम्बर,1957 से पूर्व 'दिल्ली नगर निगम' का नाम 'म्युनिसिपल गवर्नमेन्ट ऑफ़ देल्ही' यानी 'दिल्ली नगर सरकार' था। उक्त तिथि को पारित एक अधिनियम ने नाम को संशोधित कर 'दिल्ली नगर निगम' दिया। क्या वह संशोधन, संविधान की मूल भावना के अनुरूप था? हम कैसे भूल सकते हैं कि संविधान ने ग्राम पंचायतों तथा नगरीय निकायों को महज नागरिक सुविधा देने वाली केन्द्र अथवा कार्यदायी एजेन्सी नहीं, अपितु सेल्फ गवर्नमेन्ट के रूप में परिभाषित किया है।
सरकार का मतलब होता है, अपने और अपने कर्तव्यों व दायित्वों के बारे में स्वयं सोचने, स्वयं योजना बनाने तथा उसे स्वयं क्रियान्वित करने का अधिकार। क्या निगम का भी यही मतलब होता है? नहीं; निगम यानी कार्पोरेशन। निगम पार्षद को हम काॅरपोरेटर कहते ही हैं। दूसरी तरफ़, वाणिज्य जगत के लिए भी 'काॅरपोरेट वर्ल्ड' का प्रयोग किया जाता है। फिर भी कोई कहे कि यदि निगम और सरकार में कोई भेद नहीं, तो फिर भारत सरकार तथा उत्तर प्रदेश सरकार कहने की बजाय, क्रमशः भारत निगम तथा उत्तर प्रदेश निगम कहने में क्या हर्ज है? यदि हर्ज है तो लगे हाथ 'दिल्ली नगर निगम' का नाम बदलकर पुनः 'दिल्ली नगर सरकार' कर दिए जाने का संशोधन विधेयक पेश किया जाना चाहिए कि नहीं?
नगर सरकार की न्यायपालिका कहां है?
कायदे से सरकार के तीन अंग होते है: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। स्थानीय स्तर पर गांव स्तर की सरकारों में तो कुछ राज्यों में न्याय पंचायत व ग्राम कचहरी आदि के नाम से न्यायपालिका है। बाक़ी का क्या? उत्तर प्रदेश में योगी जी के मुख्यमंत्रित्व काल से पहले न्याय पंचायतें थीं। न्याय पंचायतों का गठन, सामान्य पंचायती चुनाव के साथ ही कर दिया जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश में 1972 के बाद से यह कभी नहीं हुआ। कल्याण सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में इसका इरादा बनाया। वह ज़मीन पर न उतर पाया। योगी जी आए तो उनकी पहल पर न्याय पंचायतों के प्रावधान को यह कहकर ख़त्म कर दिया गया कि गांव के लोग अपने बारे में न्याय करने में सक्षम नहीं है। योगी जी से यह पूछा जाना चाहिए कि जो लोग उत्तर प्रदेश में 78 सांसद, 403 विधायक और कई लाख ग्राम पंचायत प्रतिनिधि चुन सकते हैं, क्या वे इतने अक्षम हैं कि अपने बारे में सोच भी नहीं सकते? क्या वह खुद अक्षमों द्वारा चयनित जनप्रतिनिधि हैं?
ग़ौर कीजिए कि भारत की समस्त स्थानीय नगर सरकारों के पास विधायिका और कार्यपालिका तो है, किंतु न्यायपालिका तो सिरे से गायब है। ...तो क्या करें? दिल्ली समेत भारत की समस्त नगर सरकारों की न्यायपालिका गठित की जाए?
दिल्ली नगर सरकार के तौर-तरीके तय करने का अधिकार किसका?
संविधान मुताबिक, पंचायती तथा स्थानीय नगर सरकारों को 'सेल्फ गवर्नमेन्ट' यानी खुद में सरकार के रूप में भूमिका निभाने के लिए इनके गठन, चुनाव तथा कार्याकलाप के तौर-तरीकों को तय करने का वैधानिक अधिकार, राज्य के विधानमण्डल का होता है। आधी-अधूरा अधिकार प्राप्त ही सही, यदि दिल्ली राज्य है और यहां विधानमण्डल है, तो नगर सरकार व वार्ड सभा की संरचना, पद भरने तथा इनके लिए उपबंध बनाने का अधिकार भी दिल्ली विधानमण्डल को ही होना चाहिए कि नहीं? यदि दिल्ली के विधानमण्डल को यह अधिकार न हो; संविधान ने अधिकार व कर्तव्य की दृष्टि से ग्राम सरकारों को 29 तथा नगर सरकारों को 18 विषय सुपुर्द किए ही हैं और केन्द्र शासित प्रदेश होने के नाते शेष सब कुछ केन्द्र सरकार द्वारा संचालित होना है तो दिल्ली में प्रदेश सरकार व विधानमण्डल होने का मतलब ही क्या है? उसे होना ही क्यों चाहिए?
सत्ता केन्द्रित अच्छी या विकेन्द्रीकृत?
यदि दिल्ली में प्रदेश सरकार है तथा गांव व नगर सरकारों को गठित करने का संवैधानिक उद्देश्य सत्ता का विकेन्द्रीकरण है तो दिल्ली के तीन नगर निगमों को एकीकृत करना, क्या संवैधानिक उद्देश्य के विपरीत सत्ता को वापस केन्द्रित करना नहीं है? एक दिल्ली, एक नगर सभा, एक महापौर - क्या यह किसी राज्य सरकार के ढांचे जैसा केन्द्रित ढांचा नहीं हो जाएगा? यदि दिल्ली में तीनों स्तर पर केन्द्रित ढांचों के बीच फँसी तो सत्ता के विकेन्द्रीकरण का संवैधानिक सपना मर नहीं जाएगा? क्या बेहतर नहीं होगा कि नगर निगमों की संख्या एक करने की बजाय, अनेक की जाए? यदि यह बेहतर अथवा व्यावहारिक न हो तो ज़िला सभा और तहसील सभा तथा वार्ड सभाओं का गठन तो व्यावहारिक है। क्या लोकतंत्र में स्थानीय सहभागिता के इस अवसर को बढ़ाना नहीं चाहिए?
दिल्ली विकास प्राधिकरण पर केन्द्रीय आधिपत्य संवैधानिक या असंवैधानिक?
यदि स्थानीय भूमि प्रबंधन, स्थानीय नगर/गांव सरकार के दायित्व का विषय है, तो दिल्ली विकास प्राधिकरण समेत समस्त राज्यों में गठित तमाम स्थानीय विकास प्राधिकरणों के गठन व संचालन पर राज्य/केन्द्र सरकारों के आधिपत्य को असंवैधानिक न कहें तो क्या कहें? यदि असंवैधानिक हैं तो इन्हें तत्काल प्रभाव से स्थानीय नगर सरकारों को क्यों नहीं सौंपा जाना चाहिए?
इसी तरह दिल्ली जल बोर्ड तथा दिल्ली की स्थानीय बिजली वितरण व्यवस्था भी क्रमशः दिल्ली नगर निगम, नगर पालिकाओं तथा केन्टोन्मेन्ट बोर्ड के हाथों में होनी चाहिए।
कैसी हो नियोजन प्रक्रिया?
केन्द्र स्तरीय योजना आयोग भंग हुआ। नीति आयोग अस्तित्व में आया। इसका संदेश था कि केन्द्रीय स्तर पर नीति निर्धारण होगा। नियोजन की प्रक्रिया नीचे से ऊपर की ओर चलेगी। 'ग्राम पंचायत विकास योजना' के तहत ग्राम पंचायतों को बिना किसी मद का धन आवंटित कर भारत की ग्रामसभाओं को अपने सपने के गांव की स्थानीय योजना बनाने की आज़ादी व अवसर भी दिया गया। क्या अब हमें यह नहीं चाहिए कि 'ग्राम पंचायत विकास योजना' की तर्ज पर नगरों में 'नगर वार्ड विकास योजना' शुरू करें? वार्डों की योजना के आधार पर नगर सरकार की और नगर सरकारों की योजनााओं के आधार पर ऊपर की योजनायें बननी चाहिए। ऐसा करके हम स्थानीय नगर सरकारों में नगरीय नागरिकों की सहभागिता और जवाबदेही... दोनो सुनिश्चित करेंगे।
किसकी कितनी हिस्सेदारी?
यात्री कर, बिजली, पानी, वित्त आयोग तथा प्राकृतिक संसाधनों में हिस्सेदारी नगर सरकारों का संवैधानिक हक़ है; यह मिलना ही चाहिए। नगर व वार्ड सभाओं के हिस्से के काम, कर्मचारी और कोष - तीनों ही पूरी तरह उन्हें सौंप दिए जाने चाहिए।
वक़्त है कि कई राज्यों द्वारा पंचायती जनप्रतिनिधित्व में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण की मिली सुविधा को अब दिल्ली नगर सरकार चुनाव में भी दिए जाने हेतु संशोधन की पहल करनी चाहिए।
स्थानीय सरकारों में प्रतिनिधि दलगत हों या दलविहीन?
आइए, अपने संवैधानिक अध्ययन को थोड़ा और व्यापक करें। विशेषज्ञों से पूछें कि क्या भारत का संविधान स्थानीय नगर व गांव सरकारों के चुनावों में वोटिंग मशीन पर दलीय चुनाव चिन्ह अथवा दल समर्थित उम्मीदवारी की इज़ाजत देता है? यदि नहीं तो हम मतदाताओं को स्वयं पहल करनी चाहिए; कम से कम गांव व नगर स्तर की सरकारों के चुनाव में दलीय चुनाव चिन्ह तथा दल समर्थित उम्मीदवारों का चुनावी बहिष्कार करना चाहिए। बेहतर हो कि इस बार दिल्ली नगर निगम के चुनावों में ऐसा हो। दिल्ली के मोहल्लों की रेजिडेन्टस् वैलफेयर एसोसिएशन मिलकर अपने-अपने वार्ड में एकमत हो लोक-उम्मीदवार उतारें। उन्हें जिताकर नगर सभाओं को दलविहीन और लोक-पार्षदों की सभा बनाने का मार्ग प्रशस्त करें।
जनप्रतिनिधियों को दोहरा लाभ, कितना संवैधानिक?
आइने को सांसदों, विधायकों, पार्षदों, प्रधान-सरपंचों की तरफ करें। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्रियों व जनप्रतिनिधियों से पूछें कि उनकी सेवा अवधि के दौरान उन्हें सुविधा, तनख्वाह व भत्ते मिलते हैं। यदि सरकारी लाभार्थी होने के कारण ही एक सरकारी डाॅक्टर, टीचर, वकील को उनके सरकारी सेवाकाल के दौरान प्राइवेट प्रैक्टिस की इज़ाज़त नहीं है तो फिर तनख्वाह, भत्ते और तमाम सुविधा का लाभ उठा रहे जनप्रतिनिधियों को क्यों है? जनप्रतिनिधियों को मिलने वाले लाभ का स्तर तो उनसे भी ऊँचा है। वे तो एक दिन की हाजिरी लगाते ही जनप्रतिनिधि, पेंशन के हक़दार बना दिए गए हैं। ऐसे में या तो जनप्रतिनिधियों की तनख्वाह व पेंशन बंद कर दी जाए अथवा जनप्रतिनिधित्व काल के दौरान उनको व्यक्तिगत तौर पर व्यावसायिक गतिविधियों की इज़ाजत न हो। उनके व्यावसायिक लाइसेंस अस्थाई तौर पर रद्द किए जायें।
कह सकते हैं कि भारत के लोकतांत्रिक पिरामिड को उसकी नोक पर यानी एकांगी नहीं, विस्तृत आधार पर खड़ा करने की ज़रूरत है। आइए, ऐसा करें।
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