अगर सिर्फ हिंदी भाषी इलाके की बात करें तो नुक्क़ड़ नाटक नाम की विधा की पिछले चार- पांच दशकों से सक्रिय उपस्थिति रही। लगभग पैंतीस साल पर पहले जब सफदर हाशमी की दिल्ली से सटे साहिबाबाद इलाके में नुक्क्ड़ नाटक होने के दौरान हत्या हुई तो समाज के बड़े वर्ग में उसे लेकर तीव्र प्रतिक्रिया हुई। ये स्वाभाविक भी था क्योंकि जिस `जन नाट्य मंच’ से सफदर हाशमी जुड़े थे उसने मज़दूरों के बीच राजनैतिक चेतना जगाने में एक भूमिका निभाई।
नुक्कड़ नाटक – कहां से शुरू होकर कहां पहुंचा?
- विविध
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- 12 Nov, 2024

इतना तो कहा ही जा सकता है कि नुक्कड़ नाटक की प्रकृति बदल गई है और ये एक तरह का लघु उद्योग भी बन गया है। बेरोजगारों की कमाई का माध्यम भी। या ये कहें कि अस्थायी रोजगार बन गया है।
`जन नाट्य मंच’ के अलावा कई और नुक्कड़ नाट्य मंडलियों की समाज में वामपंथी राजनैतिक चेतना जगाने और विकसित करने में सक्रियता रही और आज भी है। मिसाल के लिए शम्सुल इस्लाम की `निशांत’ नाट्य मंडली भी पिछले कई दशकों से भारत के भिन्न भिन्न इलाकों में नुक्कड़ नाटक करती रही। इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एशोसिएशन) का तो आजादी पूर्व मुख्य फोकस नाटक करने पर रहा मगर आगे चलकर उसने भी नुक्कड़ नाटक किए। पिछले दिनों इप्टा ने मध्य प्रदेश के नर्मदा वाले इलाके में हरिशंकर परसाई की कहानी `सदाचार की ताबीज’ को नुक्कड़ नाटक बनाकर खेला जो स्थानीय लोगों के बीच सराहा गया।