अगर सिर्फ हिंदी भाषी इलाके की बात करें तो नुक्क़ड़ नाटक नाम की विधा की पिछले चार- पांच दशकों से सक्रिय उपस्थिति रही। लगभग पैंतीस साल पर पहले जब सफदर हाशमी की दिल्ली से सटे साहिबाबाद इलाके में नुक्क्ड़ नाटक होने के दौरान हत्या हुई तो समाज के बड़े वर्ग में उसे लेकर तीव्र प्रतिक्रिया हुई। ये स्वाभाविक भी था क्योंकि जिस `जन नाट्य मंच’ से सफदर हाशमी जुड़े थे उसने मज़दूरों के बीच राजनैतिक चेतना जगाने में एक भूमिका निभाई।
`जन नाट्य मंच’ के अलावा कई और नुक्कड़ नाट्य मंडलियों की समाज में वामपंथी राजनैतिक चेतना जगाने और विकसित करने में सक्रियता रही और आज भी है। मिसाल के लिए शम्सुल इस्लाम की `निशांत’ नाट्य मंडली भी पिछले कई दशकों से भारत के भिन्न भिन्न इलाकों में नुक्कड़ नाटक करती रही। इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एशोसिएशन) का तो आजादी पूर्व मुख्य फोकस नाटक करने पर रहा मगर आगे चलकर उसने भी नुक्कड़ नाटक किए। पिछले दिनों इप्टा ने मध्य प्रदेश के नर्मदा वाले इलाके में हरिशंकर परसाई की कहानी `सदाचार की ताबीज’ को नुक्कड़ नाटक बनाकर खेला जो स्थानीय लोगों के बीच सराहा गया।
दिल्ली की `अस्मिता’ रंगमंडली भी पिछले कई बरसों से नुक्कड़ नाटक करती रही है और आज भी करती है। कई और मंडलियों के नाम लिए जा सकते हैं। लेकिन इस आलेख का मक़सद नुक्कड़ नाटकों से जुड़े लोगों या उससे संबंधित मंडलियों की फेहरिश्त पेश करना नहीं है बल्कि इस बात को रेखांकित करना है कि नुक्कड़ नाटक किस ध्येय से शुरू हुए और और आज वे किस मंजिल पर पहुंचे हैं।
इस तथ्य से बहुत कम लोग इनकार करेंगे कि नुक्कड़ नाटकों की शुरुआत वामपंथी राजनीति और विचारधारा के प्रचार प्रसार से हुई। अलग अलग वामपंथी दलों से जुड़े अलग अलग नुक्कड़ नाट्य दल थे और आज भी हैं। मगर तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है धीरे धीरे नुक्कड़ नाटक कई पार्टियों- जिनमें वामपंथी दलों से लेकर मध्यमार्गी व दक्षिणपंथी राजनैतिक पार्टियां सम्मिलित हैं- के कार्यक्रमों की दुंदुभि बजाने के लिए भी होने लगे। कई पार्टियां चुनाव प्रचार के लिए इसका इस्तेमाल करने लगीं। जैसे दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने अपने स्थापना काल से लेकर पिछले विधानसभा चुनाव तक कई नुक्कड़ नाटक करवाए।
वर्तमान में स्थिति ये हो गई है कि कुछ साल पहले तक जो आम धारणा य़े थी कि अगर कहीं कोई नुक्कड़ नाटक हो रहा है तो ज़रूर उसके पीछे कोई राजनैतिक संदेश होगा- वो ध्वस्त हो गई है।
आजकल कई कॉलजों में नुक्कड़ नाटकों की प्रतियोगिताएं भी हो रही हैं। और उनमें ज्यादातर ऐसी प्रस्तुतियां होती हैं जिनमें किसी न किसी तरह की सामाजिक सोद्देश्यता होती है- जैसे पर्यावरण की चिंता, स्त्रियों के अधिकारों पर बल, जाति के आधार पर किसी समुदाय के साथ अन्याय का प्रतिकार आदि। कुछ विश्वविद्यालयों में प्रदर्शनकारी कला से संबंधित विभागों में नुक्कड़ नाटकों की पढ़ाई भी होने लगी है और धीरे धीरे उसका एक अकादमिक शास्त्र भी विकसित होने लगा है। आकस्मिक नहीं कि आरंभ में मात्र राजनैतिक चेतना के प्रचार -प्रसार के लिए नुक्कड़ नाटक करने वाले इसे लेकर असंतोष भी प्रकट करते रहते हैं और उनको लगता है कि जिस नई दुनिया के निर्माण के लिए वे लगे हुए थे वो तो नहीं हुआ, बल्कि जिनके विरोध में जोर जोर संवाद बोलते हुए गलियों-चौराहों पर हल्ला बोल रहे थे उसने उनको न सही, पर उनकी विधा को ही आत्मसात कर लिया है। इस बीच ये भी हुआ है कि जो नुक्कड़ कर्मी चीख चीख कर बोलते हुए राजनैतिक चेतना के लिए अपनी आवाज बुलंद करते रहे, उनके गले फट गए और वे ठीक से सामान्य आवाज में बात भी नहीं कर सकते। दुनिया तो नहीं बदली लेकिन आवाज कहीं विलीन हो गई। नुक्कड़ नाटक अब बदलाव की राजनैतिक चेतना पर उतना बल नहीं देता जितना व्यवस्था के साथ कदम मिलाकर चलने में।
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