वैसे तो सआदत हसन मंटो एक ही शख्सियत का नाम है जो उर्दू के एक बड़े कहानीकार थे और जिनकी कहानियां मानव जीवन के उस लोक में प्रवेश करती हैं जो समाज और साहित्य में हाल तक एक वर्जित प्रदेश रहा है। उनकी कहानियों को पढ़े बिना भारत विभाजन की त्रासदी को समझना कठिन है। ठीक आजादी के वक्त भारत का जो विभाजन हुआ वो सिर्फ एक राजनैतिक मसला नहीं था। वो एक इंसानी मसला भी बन गया। विभाजन के वक्त जो दंगे हुए, हिंसा हुई, हिंदू -मुसलमान के बीच नफरत का जो ज्वार आया, औरतों के साथ जितने बड़े पैमाने पर बलात्कार हुए- उसका पूरा जायजा तो नहीं लिया जा सका है। लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि मंटो की कहानियां उसका एक मुकम्मल साक्ष्य पेश करती हैं।
मगर भारत- विभाजन के साथ साथ मंटो के रचना लोक में एक और समानांतर संसार है। वो है औरतों की दुनिया। मंटो ने उन औरतों के दर्द और पीड़ा को भी सामने लाया जिनको आज की भाषा में `सेक्स वर्कर’ कहते हैं। मंटो के जीवन काल में उनको वेश्या कहा जाता था, कुछ हल्को में आज भी कहा जाता है। वो औरतें जिनको कोठे पर बिठा दिया जाता था, जिनकी दुनिया सीमित कर दी जाती थी। इस दुनिया में पैसे वाले कुछ गाहक होते थे और कुछ दलाल भी। और पुलिसवाले भी जो कभी दलाल भी हो जाते तो कभी हफ़्ता वसूल करनेवाले। इस दुनिया में रहनेवाली औरतों के मन में क्या घटता था इसको मंटो ने जिस बारीकि से दिखाया उसे न उस समय तक का कोई कथाकार देखा पाया और न आज का।
अमृतसर के रंगकर्मी राजिंदर सिंह के निर्देशन में पिछले हफ्ते दिल्ली के लिटल थिएटर ग्रूप (एलटीजी) सभागार में खेला गया नाटक `पाताल लोक का देव’ मंटो के इसी समानांतर संसार को दिखानेवाला था। इसमें भारत विभाजन से संबंधी कहानियों के प्रसंग नहीं हैं, बल्कि धंधे में लगी (सेक्स वर्कर) औरतें हैं, उनके दुख और गम हैं, उनका असुरक्षित जीवन है, उनकी दबी घुटी आकांक्षाएं हैं।
इसमें मंटो के व्यक्तित्व को दो भागों में विभाजित किया है- एक सआदत हसन और दूसरा मंटो। लेखक एक पर किरदार दो। बेशक इस तरह की नाटकीय युक्ति अन्य नाटकों में भी दिखाई जाती रही है। `पाताल लोक का देव’ में इसका प्रयोग इसलिए भी किया गया है कि लेखक जिस नर्क को दिखाता है उसमें बतौर व्यक्ति उसका क्या तजुर्बा रहा उसका संकेत भी दिया जा सके। हर लेखक सबसे पहले एक व्यक्ति के रूप में अपने आपपास की चीजों या घटनाओं को देखता है, उनका पर्यवेक्षण करता है, उनका अनुभव भी करता है। किंतु जब वही व्यक्ति लेखक बन जाता है तो बदल भी जाता है।
इन कहानियों की महिला चरित्र कभी सआदत हसन से टकराती हैं और कभी मंटो से। यानी कभी लेखक से तो कभी व्यक्ति से। इस टकराहट और द्वंद्व में इन औरतों की अलग अलग मन:स्थितियां उभरती हैं।
अश्लीलता के आरोप में मंटो पर कई मुकदमे चले। अविभाजित भारत में भी। पाकिस्तान में भी। उनकी `काली सलवार’ से लेकर `ठंडा गोश्त’ जैसी कई कहानियाँ मुकदमेबाजी में फंसी। पाकिस्तान में जब `ठंडा गोश्त’ कहानी छपी तो पूरी पत्रिका ही जब्त कर ली गई थी। कुछ मुक़दमों में मंटो निचली अदालत में दोषी पाए गए पर बाद में ऊंची अदालत से दोष मुक्त कर दिए गए। अगर मंटो पर चले मुकदमों पर कोई नाटक लिखा जाए तो उसमें साहित्य, समाज और कानून के आपसी रिश्ते पर एक अंतर्दृष्टि पूर्ण बहस हो सकती है। खैर, वो अलग मामला है। प्रासंगिक बात यहां ये है कि इस नाटक में भी मंटो पर चले मुकदमों के प्रसंग आते हैं। उनके छोटे छोटे दृश्य हैं पर प्रभावी है। और जो बात यहां स्पष्ट रूप से उभरती है कि इन मुकदमों और विवादों के बीच मंटो अपने लेखन में लगे रहे और जिस बात को कहना चाहते थे वो, कहते रहे। मंटो उस पाताल लोक में गए जहां सभ्यता का वो कुरूप चेहरा दिखता है जो दूसरों का दमन और शोषण करता है। ज्यादातर लेखक उस लोक में प्रवेश करने से डरते रहे।
राजिंदर सिंह निर्देशक के साथ एक अच्छे अभिनेता भी हैं और इस नाटक में भी उन्होंने मंटो के दो हिस्सों में एक का किरदार निभाया है। उनके बाकी के कलाकार भी दमदार हैं। नाटक का डिजाइन भी प्रभावशाली था। मंच को कुछ खंभों के सहारे जिस प्रकार अलग अलग स्पेस में बांटा गया था उसमें शयनकक्ष, अदालत, खुली जगह आसानी से बन गए और भिन्न भिन्न प्रसंग उसमें सहज ही समाते चले गए।
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