पिछले चुनाव से आज तक केंद्र सरकार के शीर्ष पर बैठे लोग दावा कर रहे हैं कि पिछले पांच वर्षों में आठ करोड़ नौकरियाँ बढीं और विपक्ष गलत “नरेटिव” (आख्यान) “सेट” कर रहा है. दावे में यहाँ तक कहा गया कि कोरोना और उसके बाद के काल में रोजगार में जबरदस्त वृद्धि हुई. सरकार को झूठ बोलने के लिए कुछ खास नहीं करना पडा. बस, रोजगार की परिभाषा को थोडा सा विस्तार दे दिया गया. याने कोरोना काल में एडी रगड़ते हुए वापस गाँव पहुँच युवाओं को जब दोबारा-तिबारा भी शहरों में उद्योगों के ठप होने से नौकरियाँ नहीं मिली तो मरता क्या न करता. वे वापस गाँव जा कर बगैर किसी वेतन के रहने-खाने के एवज में खेती में, घर की दूकान में, पशु चराने में और गाहे-ब-गाहे आस-पास के जमीनदारों की सेवा में बगैर किसी पैसे के काम करने लगे. पीएम मोदी जी के “पकौड़ी की दूकान भी रोजगार है” को मजबूरन यथार्थ रूप देते हुए खोमचा लगाने लगे. इन सबको मोदी जी की सरकार ने रोजगार मान लिया.
फिर क्या था? देश सपनो की दुनिया में “स्वर्णिम कुलांचे” मारने लगा.
चूंकि झूठ का ज्यादा दिन टिकना मुश्किल होता है लिहाज़ा सरकार के आंकड़े में यह बताना कि २०२० के कोरोना काल वाले लॉकडाउन में भी देश में ३.५ करोड़ रोजगार बढ़ गए, मोदी के गवर्नेंस के फरेब को उजागर करने लगा. लोगों ने पूछना शुरू किया “मोदी वे कौन से उद्योग या उद्यम थे जो लॉकडाउन में भी चल रहे थे या फिर वह कौन सा जादू है जिसमें उद्योग बंद करने से भी रोजगार मिलता है?”
मोदी शासन के झूठ का एक और नमूना देखें. इसके कुछ पहले स्वास्थ्य के मद में व्यय की राशि बता कर कहा गया कि विगत पांच वर्षों में डेढ़ गुना वृद्धि हुई है. ये दोनों दावे सच्चाई से कोसों दूर हैं.
बाबा तुलसी कह गए हैं “मूदें आँख, कतहूँ कछू नहीं”. मोदी ने उसे आप्त्वचन मान लिया. कोई औसत दर्जे के दिमाग वाला भी जनता है कि जब पूरे देश में लॉकडाउन था और उसके बाद के काल में भी उद्योग, खासकर नौकरी देने वाला एमएसएमई सेक्टर ठप हो गया तो रोजगार कैसे बढ़ सकता है. लेकिन सरकार ने रोजगार की दुनिया भर में मान्य अर्थशास्त्रीय परिभाषा हीं बदल डाली. जो श्रमिक एड़ी रगड़ते हुए लॉकडाउन में अपने गाँवों में पहुंचे और ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था पर बोझ बन कर घर के काम-काज और खेती में हाथ बटाने लगे उन्हें सरकार ने “एम्प्लोयड” मान लिया.
इसी तरह बगैर वेतन घर के कामकाज में (जैसे दूकान में) मदद करने वाले बेरोजगार युवा को भी कामगार मान लिया. तभी तो आरबीआई के “क्लेम्स” डेटाबेस के आधार पर तैयार रिपोर्ट में बताया गया कि वर्ष २०२०-२१ (कोरोना और लॉकडाउन का काल) में कृषि में रोजगार १.८० करोड़ बढ़ गए. बाद के वर्षों में भी कमोबेश यही स्थिति रही. बेचारगी में घर की खेती या काम में लगना पहले से हीं कृषि पर आबादी के भारी लोड को मात्र बढाता है.
उसी तरह स्वास्थ्य के मद वर्ष २०१९-२० में जहां जीडीपी का ०.३ प्रतिशत खर्च हुआ और जो कोरोना के दो वर्षों में बढ़ कर क्रमशः ०.४२ और ०.३७ हुआ, अगले दो वर्षों में घट कर ०.२९ और ०.२८ प्रतिशत रह गया. राज्यों द्वारा व्यय को जोड़ने पर यह १.३८ प्रतिशत होता है जो सात साल पहले संसद में किये गए वादे (जीडीपी का २.५ प्रतिशत) का मात्र आधा है. ऐसे वादे सरकार के प्रति भरोसा घटाते हैं.
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मोदी मॉडल के गवर्नेंस में केवल झूठ बोलने से बात नहीं बनती. बात मनवाने के लिए डराना भी पड़ता है.
केंद्र की शीर्ष जांच एजेंसी, एनआईए, ने एक व्यक्ति को नोटों की तस्करी के आरोप में बगैर किसी आरोपपत्र के चार साल से बंद कर रखा है. एससी ने नाराज होते हुए कहा “आप न्याय के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. कोर्ट इस बात पर भी सख्त था कि 80 गवाहों में से एक से भी आज तक जिरह नहीं हुई है. कोर्ट ने जमानत देते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का सम्मान करना जांच एजेंसियां सीखें.
इसके ठीक उलट एक राज्य में पुलिस ने विपक्षी दल के एक नेता और परिजनों पर सरकारी जमीन हड़प कर उस पर होटल बनवाने का केस दर्ज किया. लेकिन नेता के ज्ञानचक्षु एक दिन खुल गए और उसने सत्तापक्ष में शामिल हो कर पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य की सत्ताधारी पार्टी से टिकट लेकर चुनाव जीत लिया. परिणाम आते हीं पुलिस ने वह मुकदमा उठा लिया. नेता, सत्तापक्ष और पुलिस तीनों ने सत्यमेव जयते में विश्वास जताया. पुलिस अब किसी और विपक्षी नेता की तलाश में है. क्या किसी संविधान से शासन चलने वाले देश में ऐसा ही सकता है? क्या नेता के सत्तापक्ष के पाले में आते हीं होटल गायब हो गया, या जमीन रसातल में चली गयी? कहाँ गए म्युनिसिपल कारपोरेशन के वो डाक्यूमेंट्स (और मुकदमा करने वाला इंजिनियर) जिनसे सिद्ध होता था कि जमीन सरकार की है?
क्या चुनाव के वक्त निरीह भाव से हाथ जोड़ कर हर आमोखास से वोट की भीख पा कर शासन में आने पर संविधान में निष्ठा की शपथ लेने के बाद इन नेताओं को उसी संविधान से, जनता से, सरकारी संपत्ति से और व्यक्तिगत जीवन से खिलवाड़ करने का लाइसेंस मिल जाता है? एनआईए द्वारा जेल में ठूंसे गए जावेद को यह सुविधा नहीं थी कि वह भी राजनीति में आ कर पाला बदल सके. एससी ने एनआईए से कहा “ आप न्याय का मजाक बना रहे हैं”. लेकिन सत्ताधारी वर्ग से कौन कहे कि वे आम जनता के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं.
अब यह आम जनता के विवेक पर हैं कि वह अपने देश और अपने बच्चों का भविष्य शासकीय झूठ की वैतरणी के सहारे पार कराना चाहती है या नहीं.
(वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं)
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