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लाड़-प्यार से आवारा कॉर्पोरेट पर मोदी मेहरबान!

यह सच है कि बजट 2024 में रोजगार को लेकर पहली बार सरकार संजीदा दिखी। शायद कारण है आम चुनाव के नकारात्मक परिणाम।
एन.के. सिंह

आपने अक्सर देखा होगा कि बाप के लाड़-प्यार से आवारा हुए बेटे की जब शिकायत लेकर मोहल्ले वाले घर पहुंचते हैं तो बाप-बेटे को नहीं बेचारी माँ को डाँटता है। मोदी ने भी इस बजट में आवारा हुए कॉर्पोरेट बेटों के साथ कुछ ऐसा ही किया। भारत की इकॉनमी को लेकर पूरी दुनिया में चिंता है कि सरकार की नीतियाँ समाज में गरीबी-अमीरी की खाई उस हद तक बढ़ा चुकी है जहाँ से वापस समतामूलक समाज बनाना मुश्किल हो रहा है। और इस खाई को न पाटने से देश का जीडीपी तो बढ़ता रहेगा लेकिन मानव विकास सूचकांक पर देश वहीं का वहीं 130-135 वें स्थान पर झूलता रहेगा। 

बजट के एक दिन पहले संसद में इकनोमिक सर्वे पेश हुआ। सर्वे वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार की सदारत में बनाया जाता है। यदाकदा “प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा” भाव का प्रदर्शन करते हुए, जो केंद्र की हर सरकारी संस्था की मजबूरी बन चुकी है, सर्वे ने कुछ कटु सच्चाइयों को छिपाया नहीं बल्कि सख्त लफ़्ज़ों में उजागर किया। यह जानते हुए भी कि कॉर्पोरेट पीएम मोदी का बिगड़ैल बेटा है, सर्वे ने प्रस्तावना से निष्कर्ष तक बढ़ती आर्थिक विषमता के पीछे कॉर्पोरेट दुनिया की सैयां भये कोतवाल के भाव में “लालच और बस लालच” को खूब उजागर किया।

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दरअसल, सर्वे की प्रस्तावना में ही कॉर्पोरेट्स की “मात्र लाभ कमाने की मंशा” को लेकर नाराजगी दिखी। सर्वे में कहा गया कि वित्त-वर्ष 2020 से वित्त वर्ष 2023 तक के चार सालों में देश की कॉर्पोरेट दुनिया का लाभ चार गुना हो गया। कोरोना में जब भारत सहित पूरी दुनिया कराह रही थी, आखिर इस लाभ की वजह क्या थी? वजह थी मोदी-2 के पहले वर्ष में ही प्रोडक्शन-लिंक इन्सेंटिव (पीआईएल) दे कर उद्योगपतियों को बड़ी राहत देना। संसद में इसका उद्देश्य तो बताया गया था- उद्योग में उत्पादन को बूस्ट दे कर लाभ बढ़ाना ताकि उद्योगपति अपने कर्मचारियों/मजदूरों के प्रति उदार भाव रखे और नयी टेक्नोलजी में उन्हें प्रशिक्षित करने में खर्च करे। लेकिन सर्वे ने पाया कि चार साल में चार गुने लाभ के बावजूद कॉर्पोरेट्स ने मशीन, इक्विपमेंट या बौधिक संपदा पर ख़र्च करने की जगह रियल एस्टेट, बिल्डिंग और ढाँचे में पैसा लगाया। यानी निजी क्षेत्र उन अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा।

सीधा मतलब था कि लाभ कमाकर गुब्बारा हुए कॉर्पोरेट वर्ल्ड को मजबूर करना होगा कि कम से कम युवाओं को नयी तकनीक से प्रशिक्षित करने में और उन्हें जॉब्स देने में इस लाभ का कुछ अंश निजी क्षेत्र खर्च करे। दबाव का तरीका एक ही था- इनमें से आर्थिक रूप से शीर्षस्थ वर्ग पर एक “सुपर रिच टैक्स” लगाया जाये। दुनिया के देशों में गरीब-अमीर आर्थिक असंतुलन पर थॉमस पिकेटी की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया था कि अगर भारत के शीर्ष के इस एक प्रतिशत धनपशुओं पर सुपर रिच सरचार्ज लगाया जाये तो भारत में शिक्षा के मद में पूरा ख़र्च वहन किया जा सकता है। इसके बावजूद बजट में निजी सेक्टर पर लचीला रुख अपनाते हुए टैक्स पूर्ववत रखा गया बल्कि नौकरी देने पर कंपनियों को प्रति रोजगार (पीएफ आदि में) काफी छूट सरकार देगी यानी खर्च सरकारी खजाने से भरा जाएगा।

यह सच है कि बजट 2024 में रोजगार को लेकर पहली बार सरकार संजीदा दिखी। शायद कारण है आम चुनाव के नकारात्मक परिणाम। इसमें रोजगार देना इंसेंटिवाइज किया गया है यानी अगर कोई उद्यम रोजगार देता है तो सरकार उसे राहत देगी। 
रोजगार पाने वाले युवा को ही नहीं उद्योग को भी कई तरह के आर्थिक मुआवजा सरकारी खजाने यानी हमारे-आपके टैक्स से भरा जाएगा।
इसी क्रम में एक सर्वथा नयी स्कीम के तहत देश के 500 बड़े उपक्रमों में अगले पांच वर्षों में एक करोड़ युवाओं को एक साल की इंटर्नशिप दी जायेगी यानी इन्हें ज्वाइन करने पर 6000 रुपये और हर माह 5000 रुपये की रिटेनर राशि भी सरकार ने तजवीज की है। फिलहाल ब्लूप्रिंट नहीं आया है लेकिन माना जा रहा है कि उद्योग को केवल ट्रेनिंग का खर्च वहन करना होगा जबकि उनकी स्टाइपेंट राशि सरकार देगी। यानी हर साल खजाने से 12 हज़ार करोड़ जबकि स्किल्लिंग का लाभ उद्योग को मिलेगा। 
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इन इंटर्न्स का चुनाव किसी परीक्षा के ज़रिये होगा या “सिफारिश” से। अगर सिफारिश आधार होगा तो देश भर में यूनिवर्सिटी टीचर्स की नियुक्ति में आरएसएस की भूमिका की तरह इसमें भी संघ और भाजपा अपने आदमी लायेगी। यानी अगले पांच साल तक हर साल 20 लाख युवाओं की फ़ौज तैयार होगी जो आजीवन संघ/भाजपा/मोदी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का खुला ऐलान करती रहेगी। यही वजह है कि अर्थ-शास्त्रियों की सलाह को नकारते हुए सरकार ने कॉर्पोरेट्स पर किसी क़िस्म का “सुपररिच” टैक्स नहीं लगाया है जबकि गरीब-अमीर की बढ़ती खाई के बावजूद देश में शोध, शिक्षा और स्वास्थ्य के मद में अपेक्षित खर्च नहीं हो पा रहा है। हाँ, पूरे देश में केवल बिहार और आंध्र को क्रमशः 58,000 करोड़ और 15,000 करोड़ रुपये के अतिरिक्त प्रोजेक्ट्स या सहायता देना राजनीतिक हित-साधन माना जा रहा है क्योंकि दोनों राज्यों की सत्ताधारी पार्टियों के समर्थन से ही केंद्र की सरकार चल रही है।

(एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं।)
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