पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में भी अब महिलाएँ आगे बढ़ रही हैं! स्कूलों में लड़कियों का नामांकन बढ़ रहा है। यही पितृसत्तात्मक समाज लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देता दिख रहा है। आज ही एएसईआर की रिपोर्ट आई है जिसमें पता चलता है कि लड़कियों का ड्रॉप आउट यानी बीच में स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों की संख्या भी कम हो रही है। तो सवाल है कि क्या पितृसत्तात्मक भारतीय समाज अब बदल गया है? क्या महिलाओं को पुरुषों के बराबर सम्मान-हक़ मिलने लगा है? क्या महिलाओं के सामने लिंग भेद जैसी विषमता अब नहीं रही?
इन सवालों का जवाब पाने के लिए देश के गाँवों में महिलाओं की स्थिति जानने जाने की ज़रूरत नहीं है जहाँ अपेक्षाकृत कम पढ़े-लिखे लोग होते हैं, जहाँ परंपराएँ ज़्यादा रूढ़ हैं, जहाँ आधुनिकता की हवा अभी भी नहीं पहुँच पाई है और पहुँची भी है तो इतनी कि उसका असर न के बराबर दिखाई देता है। इन सवालों के जवाब तो दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई, कोलकाता जैसे मेट्रो शहरों के गगनचुंबी इमारतों में पढ़ी-लिखी महिलाओं के साथ होने वाले व्यवहार से भी मिल जाता है। और इससे बेहतर क्या हो कि हालात वहीं से मापे जाएँ जिसे आम तौर पर सबसे बेहतर स्थिति मानी जाती है।
तो बात इन्हीं दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई, कोलकाता जैसे मेट्रो शहरों की ही। और उन महिलाओं की जो अच्छी-खासी पढ़ी-लिखी हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करती हैं। जाहिर है इन कंपनियों में काम करने के लिए अधिकतर महिलाओं और लड़कियों को अपने घर, शहर छोड़कर दूसरे शहर में जाना पड़ता है। तो क्या दूसरे शहरों में ऐसी तेज-तर्रार महिलाओं को भी रहने का ठिकाना मिलना आसान है?
क्या आपने कभी ऐसी ख़बरें पढ़ीं, या घटनाएँ सुनीं जिसमें 'पेइंग गेस्ट' या हॉस्टल में रात 8 या 9 बजे के बाद लड़कियों को बाहर रहने की इजाजत नहीं होती है। जैसे रात में एक निश्चित समय के बाद लड़कियों के लिए कर्फ्यू सा माहौल हो जाता है। यहाँ लड़कियों के लिए तरह-तरह के नियम क़ानून हैं।
जिन महिलाओं को पुरुषों और दुनिया से कंधे से कंधे मिलाकर चलने के लिए की बात कही जाती है क्या वे खुद के तौर-तरीक़े से रह भी नहीं सकतीं?
शहरों में पढ़ी-लिखी और नौकरी-पेशा लड़कियों के सामने क्या बाधाएँ हैं इसपर न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक रिपोर्ट छापी है। उसमें महिलाओं के सामने आने वाली बड़ी-बड़ी चुनौतियाँ साफ़ तौर पर देखी जा सकती हैं। रिपोर्ट के अनुसार जब रुचिता चंद्रशेखर नाम की एक महिला ने नई नौकरी के लिए नवंबर में बेंगलुरु जाने का फैसला किया, तो उन्होंने पहले किराए पर कमरा लेने के लिए एक योजना बनाई। ऐसा इसलिए कि एक एकल महिला को किराए पर कमरा मिलना बेहद मुश्किल काम है। उन्होंने एक विवाहित दोस्त के साथ रहने की योजना बनाई जिनके पति पेरिस में काम करते हैं। उन्होंने योजना बनाई कि वह कहेंगी कि वे दोनों बहनें हैं। दोनों नौकरी करी थीं।
शहरों में स्वतंत्र रूप से रहने वाली कामकाजी महिलाएँ - चाहे अकेली हों, तलाकशुदा हों, विधवा हों या अपने साथियों से अलग रह रही हों- उन्हें अजीबोगरीब हालात से गुजरना पड़ता है। आसानी से कमरा नहीं मिलने पर ज़्यादा भुगतान करना पड़ता है। अजनबियों की अश्लील फब्तियाँ सुननी पड़ती हैं। उनके बारे में एक अलग ही धारणा बना ली जाती है। ऐसे में ऐसी महिलाओं की चिंताएँ भी बढ़ जाती हैं। यौन हिंसा के बारे में चिंतित दोस्त एक दूसरे को फोन पर तब तक ट्रैक करते हैं जब तक वे अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच जाते हैं।
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक अध्ययन करने वाले सोशल एंड डेवलपमेंट रिसर्च एंड एक्शन ग्रुप की संस्थापक माला भंडारी ने कहा, 'महिलाओं में कोई कमी नहीं है, उनकी आकांक्षाओं की कोई कमी नहीं है, लेकिन फिर भी हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक बेड़ियाँ इतनी मज़बूत हैं कि वे उनकी स्वतंत्रता पर अंकुश लगा रही हैं।' उन्होंने कहा, 'महिलाएं अपने अधिकार जानती हैं। लेकिन जब महिलाएं अपने अधिकारों के लिए मुखर हो जाती हैं, तो पितृसत्ता सामने आ जाती है। यह अभी भी हमारे समाज में इतनी हावी है।' नोबेल जीतने वाले पहले भारतीय अमर्त्य सेन ने भी भारत को 'सर्वप्रथम लड़कों का देश' कहा है।
अमेरिकी अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में संचार क्षेत्र में काम करने वाली 28 वर्षीय नायला ख्वाजा ने कहा, 'उन्हें लगता है कि महिलाओं को एक निश्चित तरीके से जीना चाहिए।'
कई मकान मालिक एकल महिलाओं को अकेले या समूहों में किराए पर लेने को एक जोखिम के रूप में देखते हैं। परिवार और पड़ोस की प्रतिष्ठा दोनों के मद्देनज़र। रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण दिल्ली में एक ब्रोकर दिनेश अरोड़ा कहते हैं कि मालिक किराए पर दिए गए अपार्टमेंट को अपनी जिम्मेदारी के रूप में देखते हैं। वह कहते हैं, 'जब आप एक छोटे से समुदाय में रहते हैं, तो हर कोई इस बात की चिंता करता है कि अगले दरवाजे पर क्या हो रहा है।'
माना जाता है कि महिलाओं को कमरे मिलने में दिक्कत इस वजह से ज़्यादा है क्योंकि किराए पर कमरे देने वाले भी डर और आशंकाओं से ग्रसित होते हैं। 2012 में दिल्ली में सामूहिक बलात्कार और हत्या ने अजीब छाप छोड़ी। 2021 में भारत में 31,677 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए, जो 2012 में 24,923 थे। ये हालात सिर्फ अभिभावकों में ही आशंकाएँ नहीं पैदा करते, बल्कि मकान मालिक भी किसी मुश्किल में फँसने से बचना चाहते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली, बेंगलुरु और मुंबई में एक दर्जन से अधिक अविवाहित कामकाजी महिलाओं के साक्षात्कार में, नौकरी और आवास चुनने में सुरक्षा सबसे बड़ी चिंता के रूप में उभरी। उन्होंने घर से काम की दूरी कम करने के लिए हर संभव कोशिश की।
ये हालात ऐसे हैं जो महिलाओं को आगे बढ़ने में बाधाएँ पैदा करते हैं। महिलाएँ यानी देश की क़रीब आधी आबादी का काम समाज के दकियानूसी विचार से प्रभावित होता है।
अब सालों से भारतीय महिलाएं उच्च शिक्षा की ओर तेज़ी से बढ़ रही हैं। लेकिन कामकाजी महिलाओं के प्रतिशत के हिसाब से भारत अभी भी दुनिया में सबसे अधिक पुरुष प्रधान अर्थव्यवस्थाओं में से एक है।
विश्व बैंक के आँकड़ों के मुताबिक़, चीन में 62 फीसदी और संयुक्त राज्य अमेरिका में 55 फीसदी महिलाओं की तुलना में सिर्फ़ 20 फीसदी भारतीय महिलाएँ वैतनिक कार्य में लगी हैं। कई महिलाएँ अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक नौकरियों में काम करती हैं जो वेतन के रूप में नहीं पाती हैं। वे या तो घर के ऐसे काम करती हैं जिन्हें उसका परिवार ही काम में नहीं गिनता या फिर दिहाड़ी पर काम करती हैं। यानी इतनी बड़ी संख्या महिलाएँ औपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पाई हैं।
न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा है कि अगर महिलाओं को पुरुषों के समान दर पर औपचारिक कार्यबल में प्रतिनिधित्व दिया गया, तो कुछ अनुमानों के अनुसार, भारत की अर्थव्यवस्था 2025 तक अतिरिक्त 60 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। इसे ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त में राज्य के श्रम मंत्रियों से महिलाओं की आर्थिक क्षमता का उपयोग करने के लिए विचार पेश करने के लिए कहा था।
तो सवाल है कि क्या महिलाओं के लिए ऐसी अनुकूल स्थिति बनेगी? जो महिलाएँ आगे बढ़ रही हैं उनके सामने आने वाली चुनौतियाँ दूर होंगी? शहरों में ही नहीं, बल्कि गाँवों में भी। हालाँकि गाँवों में महिलाओं के सामने चुनौतियाँ कहीं ज़्यादा बड़ी हैं।
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