साम्प्रदायिक विभाजन के इस दौर में बंगाल का बाउल लोक संगीत सुनना एक आध्यात्मिक उंचाई को छू लेने की तरह है। बाउल संगीत सम्राठ पूर्ण चन्द्र दास का अंदाज़ तो एक अलौकिक दुनिया में ले जाता है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पच्चीसवें रंग महोत्सव में पूर्ण चन्द्र दास ने अपनी गायन शैली और आवाज़ से लोक संगीत का एक अनूठा रंग प्रस्तुत किया। पूर्ण चन्द्र दास अब 91 वर्ष के हो चुके हैं। लेकिन अब भी उनका ओज बरक़रार है। रंग महोत्सव में उनकी मंडली ने "मोनेर मानुष" शीर्षक से एक अद्भुत रचना पेश की।
कार्यक्रम का निर्देशन करने के साथ साथ गायन में उनका साथ दिया उनके पुत्र और शिष्य पूर्णेंदु दास ने। पूर्ण चन्द्र दास ने मशहूर बांग्ला लेखक रविंद्र नाथ टैगोर की एक रचना भी पेश की जिसे उन्होंने ख़ास तौर पर पूर्ण चन्द्र दास के दादा के लिए लिखा था। दास के दादा ने टैगोर की प्रसिद्ध रचना " जदी तोर डाक सुने केउ ना आसे तबे एक़ला चलो रे" के लिए धुन तैयार किया था। धुन और गीत का अदान प्रदान एक अद्भुत रचना का आधार बन गया जिसे बाउल गायक पीढ़ी दर पीढ़ी निभा रहे हैं।
" हवा के साथ बहते जाना" यही अर्थ है बांग्ला के शब्द "बाउल" का। बंगाल में बाउल एक जाति समूह बन गया है। बाउल कभी एक जगह पर टिक कर नहीं रहते। वो घूमते रहते थे। उनका मुख्य काम आध्यात्मिक संगीत है। बाउल, ईश्वर की आराधना अपने संगीत से करते हैं। उनका लक्ष्य "मोनेर मानुष" यानी संवेदनशील व्यक्ति की तलाश करना है। नफ़रत को त्यागने, बुराइयों को ख़त्म करने और प्रेम का संदेश हर व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए बाउल भटकते रहते हैं।
बाउल गायन बांग्ला लोक संगीत का लोकप्रिय माध्यम बन चुका है। बाउल गायकों के लिए ईश्वर किसी धर्म या पंथ में बंटे रहना नहीं,बल्कि अपने अंतर मन में ईश्वर की तलाश करना है। पूर्णेंदु दास ने मोनेर मानुष की तलाश को नृत्य, संगीत और गायन से संवार कर संगीत नाटक का रूप दे दिया है।
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