संसद से 146 सांसदों के निलंबन ने कई आशंकाओं को जन्म दिया है। यह निलंबन क्या सिर्फ राजनीतिक दलों के लिए चेतावनी है या फिर इसमें जनता के लिए भी कोई संदेश छिपा है। क्या भारतीय राजनीति विपक्ष मुक्त संसद की तरफ बढ़ रही है। ऐसे ही सवालों को उठाते हुए वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग की टिप्पणीः
वर्ष 2024 को लेकर भारत में तमाम आशंकाएं हैं। इन आशंकाओं और अनगिनत समाधान के बीच झूल रहे इस देश में हमारी जिन्दगी का हर पहलू क्या अब राजनीतिक घटनाओं से तय होगा? या फिर भारत के समझदार लोग अपनी जिन्दगी के हर पहलू को राजनीति के भरोसे नहीं छोड़ेंगे। स्तंभकार और चिंतक अपूर्वानंद का नजरियाः
यह अब कोई गूढ़ रहस्य नहीं है कि भारत की राजनीति में गैर जवाबदेही और बढ़ते गालीबाज नेता किस संस्कृति की देन हैं। लेकिन विडंबना यह है कि भारत की अधिकांश आबादी ने गाली और गैरजवाबदेही को एक पारिवारिक मूल्य के रूप में भी स्वीकार कर लिया है। स्तंभकार वंदिता मिश्रा पूछ रही हैं कि आखिर भारत की जनता कब जागेगी?
क्या भारतीय लोकतंत्र खतरे में है। क्यों इसमें सुधार पर विचार किया जाना चाहिए। भारतीय संविधान कई बातों पर मौन क्यों है। कुछ ऐसे ही सवालों को उठाते हुए पत्रकार प्रेम कुमार और सत्य देव चौधरी ने मिलकर इन मुद्दों पर अपने विचार रखे हैं। आप भी जानिए।
मोदी सरकार हाल ही महंगाई, ईडी की मनमानी के मुद्दे पर कांग्रेस के आंदोलन से डर गई। मात्र इस आंदोलन से डरने वाली सरकार कितनी मजबूत निकली, वो सामने आ गया। इसी से पता चलता है कि भारत में कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में आने पर मनमानी तो कर सकता है लेकिन वो इस मजबूत लोकतंत्र को विलुप्त नहीं कर सकता।
बिहार चुनाव में चिराग पासवान के अलग होने से नीतीश कुमार का दल कम सीटें पाता है तो यह उनकी पार्टी का एक सत्य है लेकिन सबसे बड़ा सत्य है कि 125 सीटें जीत कर एनडीए ने सरकार बनाई।
क्या सच में भारतीय राजनीति बदल गई है? क्या भारतीय चुनावों में बेरोज़गारी, मूल्य वृद्धि और ऐसे अन्य कारक मायने रखते हैं? इस पर जस्टिस मार्कंडेय काटजू क्या सोचते हैं?